Friday, February 21, 2014

मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू

एक लड़का जब विवाह करने योग्य हो जाता है तो वह अपने होने वाली पत्नी में उन सभी गुणों के होने की चाह रखता है जिससे वह दुनिया के सामने उसे बड़ी शान से दिखा सके। आखिर क्या है वह गुण? वैवाहिक विज्ञापनों में इसकी बानगी दिखती है। जैसे कि लड़की गोरी, सुन्दर और सुशील हो; गृहकार्य दक्ष हो; लम्बाई किसी विश्व सुन्दरी अथवा ब्रह्माण्ड सुन्दरी के समतुल्य हो; फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हो। कामकाजी हो तो अति उत्तम ताकि उसके आने पर घर की अर्थव्यस्था में कोई कमजोरी न आए बल्कि उसकी मजबूती में लगातार वृद्धि होती रहे। भले से भले लोग भी इतना तो चाहते ही हैं कि लड़की के घर वाले दहेज भले ही न दें लेकिन विवाह के दौरान हुए खर्चों का बोझ लड़के वालों के कंधों पर न पड़े।

अब जरूरी तो नहीं कि इतना सारा मीनू एक ही लड़की पूरा कर पाये। अब जो कमी रह जाती है उसे दहेज से एड्जेस्ट करने का विकल्प चुना जाता है। सोचती हूँ कि ये लड़के क्या करेंगे इतने सारे गुणों से परिपूर्ण लड़की। अगर कोई मिल भी जाती है तो क्या वह उस लड़की की नुमाइश लगाएंगे या किसी “आदर्श पत्नी प्रतियोगिता” का अवार्ड हासिल करने के लिए परेड कराएंगे। वे ऐसी उम्मीद क्यों रखते है?

आज की युवा पीढ़ी कितनी भ्रमित है । एक ग्रामीण कहावत है कि लालची आदमी को चाहिए- “मीठो भर, कठवतियो भर।” मतलब, कोई व्यंजन जो स्वादिष्ट भी हो और ज्यादा। परिवर्तन के इस दौर में हमारे समाज में कितना कुछ बदल गया है; रहन-सहन,खान-पान,वेश-भूषा आदि कहाँ से कहाँ चले गये। लेकिन अगर नहीं बदली तो स्त्री के प्रति पुरुष की सामन्ती मानसिकता।

आजकल गांव में एक रोचक नजारा देखने को मिलता है। अनेक बेरोजगार युवक जो खुद तो इस लायक नहीं हुए कि उन्हें नौकरी मिल सके, लेकिन प्राथमिक शिक्षा और आंगनवाणी विभागों में मिले अवसर का लाभ उठाकर अपनी पत्नियों को नौकरी दिलाने के लिए रात दिन एक कर देते हैं। जब बीबी को नौकरी मिल जाती है तो उसकी कमाई पर अपने वो सारे शौक पूरा करते हैं जिससे वे अब तक वंचित रहे हैं। मोटर साइकिल पर अपनी सहधर्मिणी को एक हाथ का घुंघट कराकर पीछे सीट पर बैठा लेते है, और बड़े शान से निकल पड़ते है उन्हें उनके कार्य-स्थल पर छोड़ने के लिए; और उनके काम से छूटने से ठीक पहले वहाँ मौजूद रहते हैं पुन: उसे बाइक के पीछे बैठाकर घर लाने के लिए। इतना ‘कार्य’ करने के उपरान्त वह ‘थककर’ दरवाजे पर बैठ जाते है और पत्नी को आदेश देते है कि मेरे लिए चाय नाश्ता का इंतजाम करो। पत्नी फिर अपनी दूसरी ड्यूटी में लग जाती हैं। इस तरह वह अपने दफ़्तर के साथ-साथ अपने दूसरे दायित्यों की पूर्ति भी करती हैं। यानि इन मर्दों के लिए अभी भी वही हाल है- मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू...।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, February 13, 2014

संविधान की ठकुरसुहाती

अरविन्द केजरीवाल ने अपनी दिल्ली सरकार को जिस तरह भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए खतरे में डाल दिया है उसपर दूसरी राजनीतिक पार्टियों से लेकर अखबारों ने और न्यूज चैनेल के स्वयंभू विद्वान संपादकों से लेकर सोशल मीडिया के सूरमाओं ने हाय तौबा-मचा रखी है। संविधान की दुहाई से लेकर राजनैतिक मर्यादा और अनुशासन की तमाम बातें लगातार घोंटी जा रहीं है। केजरीवाल का हल्ला-बोल इनके गले नहीं उतर रहा है।

करप्शन मिटाओं आन्दोलन को आगे बढ़ाने वाली यह राजनीति किसी भी पार्टी को रास नहीं आ रही है। देश से करप्शन मिटाने के लिए ईमानदार राजनीति की दिशा में अगर किसी ने पहला कदम बढ़ाया है तो वह हैं केजरीवाल। लेकिन स्वनामधन्य संपादकों से लेकर पूरा मीडिया क्‍लास उनकी टांग खिंचाई करने में चीटियों की तरह झोंझ लगाकर जुटा हुआ है। बचपन में जब देखती थी कि दो-तीन इंच लंबे एक जिन्दा गोंजर पर सैकड़ों चीटियाँ एक साथ हमला कर देती और उसे बेहोश करने के बाद अपने बिल तक खींच ले जाती थी तो कौतूहल के साथ-साथ उस जीव की मजबूरी पर दया भी आती थी। “केजरीवाल को राजनीति नहीं आती” यह कहते मीडिया वालों की जुबान नहीं थक रही। इधर बहुत से संपादकों ने संविधान और शासन-प्रशासन की परिपाटी के उल्‍लंघन की बात लिखने में कलम तोड़ दी है।

जिस संविधान ने ऐसी निर्लज्ज और भ्रष्ट सरकारों का निर्माण कराया हो, जिस कानून ने तमाम प्रत्यक्ष भ्रष्टाचारियों को बेखौफ़ घूमने का अवसर दिया हो, जिस राजनीतिक परिपाटी ने योग्यता के बजाय वंशवाद और चाटुकारिता को बड़ा मूल्य बना दिया हो, जिस मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लालच, ब्लैकमेलिंग और लामबन्दी की क्षुद्र मानसिकता से विषाक्त बना दिया हो उसे धता बताकर और उसपर हमला बोलकर केजरीवाल क्या गुनाह कर रहे हैं? संविधान की ठकुरसुहाती गाने वालों की भीड़ में यदि कोई भ्रष्टतंत्र की कड़वी सच्चाई के बारे में खरी-खरी कहना और एक सार्थक परिणाम लाने के लिए कुछ करना चाहता है तो इतना कोहराम क्यों?

केजरीवाल से पहले भी बहुत सी नामी-गिरामी पार्टियाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का नारा देकर सत्ता में आयीं लेकिन किसी भी पार्टी ने अपने देश की जनता के साथ हो रहे छल को उजागर नहीं किया; क्यों? उल्टा, भ्रष्टाचारियों की पीठ ठोकती रही और प्रकारान्तर से भ्रष्टाचारियों का बचाव भी किया। सत्ता में आने के बाद सबके सुर बदल जाते रहे हैं। लेकिन पहली बार यह हुआ है कि सत्ताधारी होने का कोई गुमान इस आम आदमी में नहीं है। केजरीवाल को अगर सत्ता का लोभ होता तो वह भी इन बड़े-बड़े कारोबारियों से हाथ मिलाकर कुर्सी तोड़ते। किसी घपले-घोटाले की जांच करवाने की राह नहीं चुनते।

मुकेश अंबानी एक ही गैस के लिए बंगलादेश से 2.35 डालर और अपने देश की जनता से 4 डालर लेते हैं। अप्रेल से गैस कीमत और बढने जा रही हैं, आखिर क्यों? सरकार का कहना है कि वह जनता को सब्सिडी पर गैस दे रही है, लेकिन देश के संसाधनों से निजी मुनाफ़ा कमाने वाले अंबानी से इतनी महंगी गैस खरीदने की क्या मजबूरी थी...? यहां सरकार की जवाबदेही  बनती है। आप को नहीं लगता है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग बड़े-बड़े ठगों से मिलकर जनहित को परे रख जनता को ठगने की राजनीति पर उतर आए हैं। यह व्यवसायी वर्ग सरकारी खजाने पर डकैती डाल रहा है। दूसरी तरफ चैरिटी के नाम पर दिये जाने वाले अनुदान में“दानदाता” बनकर गरीबों के मसीहा बन जाते हैं। यह कैसा देश प्रेम हैं?

(रचना त्रिपाठी)

Friday, February 7, 2014

नेटजनित असाध्य रोग

आजकल एक ऐसी बीमारी का प्रादुर्भाव हो गया है जो 13 साल के नवयुवक से लेकर 73 साल के बुजुर्गो में पायी जा रही है। इस बीमारी का प्रकोप फेसबुक के माध्यम से हुआ है जिसका हाल ही में नामकरण किया गया है  ‘लाइकेरिया’। इसका संबंध बनस्पति विज्ञान से संबंधित किसी पेड़-पौधे से नहीं है। इसे अंग्रेजी के ‘लाइक’ शब्द से लिया गया है। फेसबुक पर इस रोग की तीव्रता नापने का ‘लाइकोमीटर’ तो बना है, लेकिन इसका कोई इलाज नहीं ढूँढा जा सका है। डाक्टरों के मुताविक यह बीमारी छूआ-छूत से नहीं वरन्‌ मात्र देखा-देखी से उत्पन्न हो जाती है। पहले यह बीमारी मुख्य रूप से शहरों के उन कंप्यूटरधारक मनुष्यों के बीच फैली जिनके पास इंटरनेट कनेक्शन होता था। तब इसे मधुमेह और रक्तचाप की तरह अमीरों की बीमारी कहा जा सकता था; लेकिन इस बीमारी के किटाणुओं ने मोबाइल फोन्स के जरिये अपना प्रसार तेजी से करना शुरू किया जिसमें एंड्रायड की भूमिका तगड़े उत्प्रेरक की हो गयी।

अब इस बीमारी ने शहरों के साथ-साथ गांवों में भी पैर पसार लिया है। यह महामारी बहुत तेजी से फैल रही है। इसकी चपेट में न सिर्फ़ विद्यार्थी और कामकाजी नौजवान आ रहे हैं बल्कि बड़ी संख्या में मध्यम वर्गीय गृहिणियाँ भी इसका शिकार हो रही हैं। इसकी रोक-थाम करने में सरकार भी फेल होती नजर आ रही है। बल्कि सरकार का ध्यान इस ओर गया ही नहीं है जो जाने-अनजाने इसके प्रसार में सहयोग प्रदान कर रही है। लोगों में इस बीमारी के प्रति जो आकर्षण है वह किसी नशे से कम नहीं है। इसे पकड़ लेने के लिए सबके बीच एक होड़ मची हुई है।

किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रखते ही जिस बीमारी के पकड़ने का डर पहले हुआ करता था उसे नाम दिया गया - लवेरिया। इस बीमारी की चपेट में किशोर-किशोरी कब आ जाते हैं उन्हें खुद भी पता नहीं चल पाता। जब पता चलता है तो बहुत देर हो गयी रहती है। इस उम्र के बच्चों के सभी अभिभावको को यह चिंता सताती है कि कहीं उनका बच्चा लव-वब के चक्कर में न पड़ जाय। यह अकेली एक ऐसी बीमारी है जिस पर पूरे समाज का पहरा लगा रहता है; लेकिन फिर भी यह सेंध मार कर अपना असर छोड़ ही जाती है। लाख पहरे के बावजूद लवेरिया जैसी महामारी से कच्ची उम्र में पार-पाना मुश्किल ही रहता है। लेकिन अब लाइकेरिया नामक नयी बीमारी इस रोग को पीछे छोड़ती जा रही है। अब बच्चों को एक जगह अटकने का कोई स्कोप ही नहीं रहा। उनके मित्रों की संख्या अब एक-दो नहीं बल्कि सैकड़ों में होती है जो लगातार बढ़ती रहती है। बीच-बीच में कुछ लोग अमित्र भी कर दिये जाते हैं। इस तरह देखा जाय तो प्रेम-व्यवहार की दुनिया में बहुत तेजी से परिवर्तन आ गया है। यह लाइकेरिया का सकारात्मक पहलू माना जा सकता है।

हम पर ईश्वर की बड़ी कृपा रही कि हम भी इस बीमारी की चपेट में बहुत बार आते-आते बच गये। इस रोग की एकाध चिनगारी उठी भी तो अफसोस! उसे पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाया। इस दौर से गुजरने के बावजूद मुझे लाइकेरिया से ग्रसित नहीं होना पड़ा। लेकिन इसका कारण है एक दूसरी बीमारी जो है तो टुच्ची सी लेकिन मुझे लाइकेरिया से बचाये रखती है; और फिलहाल हल्के नशे की तरह आनन्द भी दे रही है। यह बीमारी कुछ साल पहले मेरे पतिदेव को लगी थी, उन्हीं से मुझे मिल गयी। इसका नाम है- ‘ब्लॉगेरिया’। एक जमाने में इसका जोर भी बहुत बढ़ गया था लेकिन इस मुए फेसबुक वाली लाइकेरिया ने इसे धकिया कर किनारे कर दिया है। अब मैं भी ब्लॉगेरिया से आए-दिन तौबा करती रहती हूं लेकिन यह छोड़ने का नाम ही नहीं लेती। जब देखो तब यह हमें ऊल-जुलुल लिखने को मजबूर करती रहती है।

सरकार ने मलेरिया और फाइलेरिया जैसे रोगों पर नियंत्रण के लिए तमाम अभियान चला रखे हैं और इसके सकारात्मक परिणाम भी आये हैं। इनका आक्रमण अब पढ़े-लिखे मध्यम वर्गीय युवाओं पर प्रायः मंद पड़ गया है। लेकिन इन नये रोगों की गिरफ़्त में आ गये लोगों पर कुढ़ रहे डाक्टर हाथ पर हाथ रखे मरीजो का इंतजार करते हैं कि वह कंप्यूटर और मोबाइल की फेसबुक से उठे तो कुछ बात बने।

(रचना त्रिपाठी)

Monday, February 3, 2014

आजम से आजिज..

आम आदमी को तो इसका एहसास होता ही रहता है लेकिन शायद अब जानवरों को भी यह लगने लगा है कि इस देश में सेक्युलर चोला ओढ़कर साम्प्रदायिकता को भड़काने वाले नेता अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक की राजनीति करते हुए राष्ट्र की मूलभूत नीतियों के विरुद्ध कार्य करने में जुटे हुए हैं। यूपी के कद्दावर नेता आजमखाँ, जो मुज्जफरनगर में सांप्रदायिक दंगों के बाद अपनी सेकुलर छवि सिद्ध करने में लहूलुहान हो रहे हैं उन्हें उनकी भैंस ने भी नोटिस थमा दी है। इनकी जुबान सेकुलरिज़्म की बात करते-करते महज ‘सांप्रदायिक दुकान’ बनकर रह गयी है। इसे एक ‘तबेला’ कह लें तो गलत नहीं होगा, जहां सिर्फ मिलावटी धंधे की बात होती है।

कभी किसी ने सोचा कि आखिर उनकी भैंस गयी कहां? उस भैंस की जाति क्या थी? वह मुस्लिम थी या हिन्दू? मै बताती हूँ। हम लोगों की तरह ही भैस ने भी मंत्री जी का वह महान वक्तव्य कहीं सुन लिया था  जिसमें उन्होंने अलीगढ़ के मुस्लिमों के बीच एक मशहूर दन्तकथा के माध्यम से एक खास संदेश दिया था। तीन ठगों ने कैसे एक आदमी का बकरा ठग लिया था, अलग-अलग स्थानों पर यह बताकर कि वह बकरा नहीं गधा है। उन्होंने कहा कि संघियों ने  मुस्लिमों को यह कहकर बदनाम करना शुरू किया कि वे बच्चे ज्यादा पैदा करते हैं। देश की जनसंख्या बढ़ाने में मुसलमानों का रोल ज्यादा है। इस लांछन से बचने के लिए ये बेवकूफ़ मुसलमान बच्चों की संख्या कम करने लगे। सिर्फ दो बच्चे पैदा करने की सलाह देकर अल्पसंख्यकों को बेवकूफ बनाया जा रहा है और यह वर्ग उनकी बातों में आकर बच्चे कम पैदा करने लगे हैं जिससे इस वर्ग को बहुत बड़ी हानि पहुचने वाली है। यह बात यहीं पर जाकर खत्म नहीं होती है। उन्होंने परिवार छोटा रखने की सलाह देने वालों को ‘ठग’ तक करार दिया।

वोट की राजनीति से प्रेरित इस संदेश का अर्थ अल्पसंख्यकों को समझ में आए या न आये लेकिन उनकी भैंस को यह बात समझ में आ गयी होगी कि मंत्रीजी ने अपने धन्धे को चंगा बनाये रखने के लिए भैसों के साथ भी राजनीति कर सकते हैं। दुग्ध उत्पादन में कोई कमी न आए इसके लिए वह डाक्टरों की सलाह लेकर भैसों को जल्दी-जल्दी बच्चा देने के लिए जबरिया मजबूर कर सकते हैं। एक भैंस मुर्गी तो बन नहीं सकती कि थोक के भाव से अन्डे देगी। नेता जी की इच्छा से आजिज होकर भैसों ने सोचा होगा कि अब उनके तबेले में निबाह नहीं है, जरूर वह रात में खूंटा उखाड़ भाग निकली होगी। शायद वह  मंत्रीजी के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज करा देती; लेकिन उसको क्या पता था- जिसकी लाठी उसकी भैंस; कि पुलिसवाले भी उन्हीं के इशारे पर कार्य करते हैं, आखिर मनुष्य और जानवर में यही तो फर्क है। यह तो हमने भी सोचा था कि मंत्रीजी के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए लेकिन यूपी पुलिस कि हकीकत क्या है, यह तो सब जानते हैं।  मंत्रीजी  के सलाहकार अब शायद उन्हें सूअर पालने के धन्धे के बारे में बतायें। वह भी एक बार में चार से छ: बच्चे पैदा करती है।

(रचना त्रिपाठी)