एक लड़का जब विवाह करने योग्य हो जाता है तो वह अपने होने वाली पत्नी में उन सभी गुणों के होने की चाह रखता है जिससे वह दुनिया के सामने उसे बड़ी शान से दिखा सके। आखिर क्या है वह गुण? वैवाहिक विज्ञापनों में इसकी बानगी दिखती है। जैसे कि लड़की गोरी, सुन्दर और सुशील हो; गृहकार्य दक्ष हो; लम्बाई किसी विश्व सुन्दरी अथवा ब्रह्माण्ड सुन्दरी के समतुल्य हो; फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हो। कामकाजी हो तो अति उत्तम ताकि उसके आने पर घर की अर्थव्यस्था में कोई कमजोरी न आए बल्कि उसकी मजबूती में लगातार वृद्धि होती रहे। भले से भले लोग भी इतना तो चाहते ही हैं कि लड़की के घर वाले दहेज भले ही न दें लेकिन विवाह के दौरान हुए खर्चों का बोझ लड़के वालों के कंधों पर न पड़े।
अब जरूरी तो नहीं कि इतना सारा मीनू एक ही लड़की पूरा कर पाये। अब जो कमी रह जाती है उसे दहेज से एड्जेस्ट करने का विकल्प चुना जाता है। सोचती हूँ कि ये लड़के क्या करेंगे इतने सारे गुणों से परिपूर्ण लड़की। अगर कोई मिल भी जाती है तो क्या वह उस लड़की की नुमाइश लगाएंगे या किसी “आदर्श पत्नी प्रतियोगिता” का अवार्ड हासिल करने के लिए परेड कराएंगे। वे ऐसी उम्मीद क्यों रखते है?
आज की युवा पीढ़ी कितनी भ्रमित है । एक ग्रामीण कहावत है कि लालची आदमी को चाहिए- “मीठो भर, कठवतियो भर।” मतलब, कोई व्यंजन जो स्वादिष्ट भी हो और ज्यादा। परिवर्तन के इस दौर में हमारे समाज में कितना कुछ बदल गया है; रहन-सहन,खान-पान,वेश-भूषा आदि कहाँ से कहाँ चले गये। लेकिन अगर नहीं बदली तो स्त्री के प्रति पुरुष की सामन्ती मानसिकता।
आजकल गांव में एक रोचक नजारा देखने को मिलता है। अनेक बेरोजगार युवक जो खुद तो इस लायक नहीं हुए कि उन्हें नौकरी मिल सके, लेकिन प्राथमिक शिक्षा और आंगनवाणी विभागों में मिले अवसर का लाभ उठाकर अपनी पत्नियों को नौकरी दिलाने के लिए रात दिन एक कर देते हैं। जब बीबी को नौकरी मिल जाती है तो उसकी कमाई पर अपने वो सारे शौक पूरा करते हैं जिससे वे अब तक वंचित रहे हैं। मोटर साइकिल पर अपनी सहधर्मिणी को एक हाथ का घुंघट कराकर पीछे सीट पर बैठा लेते है, और बड़े शान से निकल पड़ते है उन्हें उनके कार्य-स्थल पर छोड़ने के लिए; और उनके काम से छूटने से ठीक पहले वहाँ मौजूद रहते हैं पुन: उसे बाइक के पीछे बैठाकर घर लाने के लिए। इतना ‘कार्य’ करने के उपरान्त वह ‘थककर’ दरवाजे पर बैठ जाते है और पत्नी को आदेश देते है कि मेरे लिए चाय नाश्ता का इंतजाम करो। पत्नी फिर अपनी दूसरी ड्यूटी में लग जाती हैं। इस तरह वह अपने दफ़्तर के साथ-साथ अपने दूसरे दायित्यों की पूर्ति भी करती हैं। यानि इन मर्दों के लिए अभी भी वही हाल है- मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू...।
(रचना त्रिपाठी)
भारतीय समाज अभी भी संक्रमण काल से अभिशप्त है -नयी दिशा देने में हम सभी का सहयोग अभीष्ट है !
ReplyDeleteपरिवार और समाज में स्त्रियों के उत्थान के लिए जो किया जा रहा है , उसका लाभ अंततः पुरुष उठाना चाहते हैं ! इस पर ध्यान देना होगा !
ReplyDeletePerhaps it is not limited to feudal male mindset. What happens when a boy gets a good job? He suddenly acquires the status of an 'eligible' bachelor. And also, I have seen girls' parents, who have money, choosing grooms for their daughters in a similar way as if they are out purchasing vegetables in the market. And most of the times it is the girls' parents who make the first move and bring the boy out in the bidding race.
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