अरविन्द केजरीवाल ने अपनी दिल्ली सरकार को जिस तरह भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए खतरे में डाल दिया है उसपर दूसरी राजनीतिक पार्टियों से लेकर अखबारों ने और न्यूज चैनेल के स्वयंभू विद्वान संपादकों से लेकर सोशल मीडिया के सूरमाओं ने हाय तौबा-मचा रखी है। संविधान की दुहाई से लेकर राजनैतिक मर्यादा और अनुशासन की तमाम बातें लगातार घोंटी जा रहीं है। केजरीवाल का हल्ला-बोल इनके गले नहीं उतर रहा है।
करप्शन मिटाओं आन्दोलन को आगे बढ़ाने वाली यह राजनीति किसी भी पार्टी को रास नहीं आ रही है। देश से करप्शन मिटाने के लिए ईमानदार राजनीति की दिशा में अगर किसी ने पहला कदम बढ़ाया है तो वह हैं केजरीवाल। लेकिन स्वनामधन्य संपादकों से लेकर पूरा मीडिया क्लास उनकी टांग खिंचाई करने में चीटियों की तरह झोंझ लगाकर जुटा हुआ है। बचपन में जब देखती थी कि दो-तीन इंच लंबे एक जिन्दा गोंजर पर सैकड़ों चीटियाँ एक साथ हमला कर देती और उसे बेहोश करने के बाद अपने बिल तक खींच ले जाती थी तो कौतूहल के साथ-साथ उस जीव की मजबूरी पर दया भी आती थी। “केजरीवाल को राजनीति नहीं आती” यह कहते मीडिया वालों की जुबान नहीं थक रही। इधर बहुत से संपादकों ने संविधान और शासन-प्रशासन की परिपाटी के उल्लंघन की बात लिखने में कलम तोड़ दी है।
जिस संविधान ने ऐसी निर्लज्ज और भ्रष्ट सरकारों का निर्माण कराया हो, जिस कानून ने तमाम प्रत्यक्ष भ्रष्टाचारियों को बेखौफ़ घूमने का अवसर दिया हो, जिस राजनीतिक परिपाटी ने योग्यता के बजाय वंशवाद और चाटुकारिता को बड़ा मूल्य बना दिया हो, जिस मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लालच, ब्लैकमेलिंग और लामबन्दी की क्षुद्र मानसिकता से विषाक्त बना दिया हो उसे धता बताकर और उसपर हमला बोलकर केजरीवाल क्या गुनाह कर रहे हैं? संविधान की ठकुरसुहाती गाने वालों की भीड़ में यदि कोई भ्रष्टतंत्र की कड़वी सच्चाई के बारे में खरी-खरी कहना और एक सार्थक परिणाम लाने के लिए कुछ करना चाहता है तो इतना कोहराम क्यों?
केजरीवाल से पहले भी बहुत सी नामी-गिरामी पार्टियाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का नारा देकर सत्ता में आयीं लेकिन किसी भी पार्टी ने अपने देश की जनता के साथ हो रहे छल को उजागर नहीं किया; क्यों? उल्टा, भ्रष्टाचारियों की पीठ ठोकती रही और प्रकारान्तर से भ्रष्टाचारियों का बचाव भी किया। सत्ता में आने के बाद सबके सुर बदल जाते रहे हैं। लेकिन पहली बार यह हुआ है कि सत्ताधारी होने का कोई गुमान इस आम आदमी में नहीं है। केजरीवाल को अगर सत्ता का लोभ होता तो वह भी इन बड़े-बड़े कारोबारियों से हाथ मिलाकर कुर्सी तोड़ते। किसी घपले-घोटाले की जांच करवाने की राह नहीं चुनते।
मुकेश अंबानी एक ही गैस के लिए बंगलादेश से 2.35 डालर और अपने देश की जनता से 4 डालर लेते हैं। अप्रेल से गैस कीमत और बढने जा रही हैं, आखिर क्यों? सरकार का कहना है कि वह जनता को सब्सिडी पर गैस दे रही है, लेकिन देश के संसाधनों से निजी मुनाफ़ा कमाने वाले अंबानी से इतनी महंगी गैस खरीदने की क्या मजबूरी थी...? यहां सरकार की जवाबदेही बनती है। आप को नहीं लगता है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग बड़े-बड़े ठगों से मिलकर जनहित को परे रख जनता को ठगने की राजनीति पर उतर आए हैं। यह व्यवसायी वर्ग सरकारी खजाने पर डकैती डाल रहा है। दूसरी तरफ चैरिटी के नाम पर दिये जाने वाले अनुदान में“दानदाता” बनकर गरीबों के मसीहा बन जाते हैं। यह कैसा देश प्रेम हैं?
(रचना त्रिपाठी)
Absolutely correct. I am sure no news paper will publish this article because they are purchased by Ambani. Our media is controlled by pseudo-intellectuals who does not see the bare realities.
ReplyDeleteइस भ्रष्ट तंत्र देश और काल में केजरीवाल को कौन पसंद करेगा ?
ReplyDeleteअच्छा लिखा है !