Saturday, March 21, 2015

नकलची समाज के हाशिए पर लड़कियाँ-

ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों के बारे में उनके अभिभावकों से लेकर अध्यापकों तक की यह सोच कि ज्यादा पढ़ा-लिखा कर इनसे भला कौन सी नौकरी करानी है, इनको और बेचारगी की तरफ ढकेलती है। ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी और पढ़ने वाली बच्चियों के प्रति उनके घर, गाँव, समाज ही नहीं बल्कि स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर्स का भी यही नजरिया देखकर निराशा होती है। उनकी नजर में पढ़ाई का उद्देश्य कमाई करना और कमाई के मायने सिर्फ 'अर्थ' यानी रूपया-पैसा कमाने से ही है जो सिर्फ लड़के ही कर सकते हैं। लड़कियों के हिस्से में तो सिर्फ घर में रहकर चूल्हा-चौका सम्हालना और बच्चे पैदा करके उन्हें पालना ही होता है।

यही वजह है कि परीक्षा के दौरान गुरुजनों की दृष्टि उन बच्चियों के ऊपर और उदार हो जाती है। आज-कल बिहार और यूपी में बोर्ड परीक्षाओं में नक़ल महायज्ञ जोरों पर है। वैसे तो इस बार फ्री फॉर आल का नज़ारा है लेकिन लड़कियों को विशेष सुविधा एक परम्परा बन चुकी है। परीक्षा-केंद्र पर गुरुजन उन्हें नकल करने-कराने की सामग्री सहित हर तरह की सुविधाओं की पूरी छूट मुहैया करा डालते हैं। इस नकल से प्राप्त डिग्री और उससे प्राप्त कन्या विद्याधन का लाभ उनके आगे की पढ़ाई में मिले या न मिले, इससे न तो उन बच्चियों के अभिभावक का कोई सरोकार होता और न ही उस स्कूल के टीचर्स का। वहाँ से उनको शिक्षा-दीक्षा में अपने अधिकारों और हितों के प्रति जाहिली और अनभिज्ञता के सिवा कुछ भी नहीं मिला होता।

ऐसे में उन बच्चियों को अगर नक़ल न कराया जाय तो बोर्ड परीक्षा में सफल बिद्यार्थियों का प्रतिशत बिगड़ने से 'स्कूल की इज्जत' मटिया-मेट होने का भय रहता है। बिरादरी में नाक ऊँची रखने के लिए उसके प्रबंधकों को नक़ल की सुविधा उपलब्ध कराने के सभी उपाय कराने पड़ते हैं। वहाँ स्कूल की इज्जत का विकट सवाल खड़ा हो जाता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ ऐसी भी बच्चियां हैं जिनको अपने स्कूल का मुँह भी परीक्षा के दौरान पहली बार दिखाया जाता है। स्कूल की चारदीवारी का कोना-कोना उनसे इस कदर अपरिचित होता है कि वे अकेले अपने क्लास-रूम तक जाने में असमर्थ रहती हैं। उनकी शकल-सूरत भी दया की पात्र दिखाई देती है। पर दस-पन्द्रह दिन की जद्दोजहद से मिली मार्कशीट के आधार पर सरकारी कृपा वाली कन्या विद्याधन योजना उनके जीवन में थोड़ा सा 'अर्थ' तो जरूर प्रदान करती है। ऐसा तात्कालिक लाभ उनके परिवार वालों को उनकी वैवाहिक योजनाओं को सफल बनाने में जरूर मदद करता है। परन्तु इस तरह की शिक्षा-दीक्षा से यह जरुरी नहीं है कि वैवाहिक योजानाओं की सफलता की तरह उनकी भावी जिंदगी को भी कोई सम्मानजनक अर्थ मिल सके।

(रचना त्रिपाठी)

Sunday, March 8, 2015

महिला दिवस बाद में


मना लो अम्मा-चाची आज महिला दिवस

कल तुम्हारे छोटे बेटे की शादी है न 

फिर तो तुम भी हो जाओगी व्यस्त 

अपनी नई नवेली दुल्हन के स्वागत में 



बड़ी बहू ने तो सिर्फ बेटियां ही जनी है 

देखना इस बार कोई चूक न हो जाय 

बड़े-बुजुर्गों का उसे आशीर्वाद दिलवाने का 

पहले से ही कर लेना सारा प्रबन्ध 



टेंट-शामियाना, मेज-कुर्सी, चौकी-बेलन 

पड़ोसी के घर से एक छोटे से बच्चे का 

छुपा देना उस कलमुंही की बेटियों को 

रोते बिलखते किसी बंद कमरे में 



कहीं पड़ न जाये उनकी परछाईं कोहबर में 

झट से डाल देना दुल्हन की गोद में 

लड्डू खिलाते उस पड़ोसी के पोते को 

कल फिर मना लेंगे महिला दिवस 



(रचना त्रिपाठी)


Friday, March 6, 2015

होली के रंग में तंग

अपनी तो 'होली' भी होली पर किसी ने न तो जबरदस्ती मुझे रंग डाला और न ही चेहरे पर लगे रंग वाली एक भी तस्वीर खींची... इस बार मेरे हमजोली जो नहीं थे। फिर ऐसे में भला मेरी फ़ोटो कौन खींचता! वैसे भी इस बार मैंने बहुत रंग नहीं खेला| यह अच्छा ही हुआ वर्ना बिना रंग वाली होली की तस्वीर में बेइज्जती हो जाती। मेरे पड़ोसियों ने मेरे चेहरे पर बड़ी इज्जत के साथ थोड़ा-थोड़ा गुलाल लगाया।अपने-अपने कैमरे से मेरी तस्वीर भी खींची पर वे उसे अपने घर ले गये।

मन हुआ की बच्चों से कह दूं कि-जरा मुँह में लगे गुलाल के संग एक मेरी भी फ़ोटो खींच दो... लेकिन वे अपने रंग में इस कदर सराबोर थे कि पूछिये मत... मैंने भी सोचा छोड़ो जाने दो... उस समय उनसे फ़ोटो खिंचवाना उनके रंग में भंग डालने जैसा था। इस प्रकार इस होली की मेरी एक भी तस्वीर नहीं है जो मैं भी व्हाट्सएप और फेसबुक पर लगाऊँ।

इससे पहले कि आप लोग इन्हें लानत भेजे मैं अस्पष्ट कर दूं कि गाँव में इनकी भाभियों की शिकायत थी कि -"कई सालों से देवर के संग होली नहीं खेली, बिना देवर के होली का रंग फीका हो जाता है" और इनका भी कहना था कि भाभियों के रंग लगे हाथों से पुआ खाने-खिलाने का तो मजा ही कुछ और है ! सो मैंने इन्हें जाने दिया।

फिलहाल अपना तो कोई सगा छोटा देवर भी नहीं है जिसके साथ होली खेलती। बच्चों की यहाँ पर अपनी अलग कम्पनी है, जिसे वे होली में छोड़कर कहीं और जाना पसन्द नहीं करते हैं। उनको रंग खेलते देखकर मुझे भी बहुत आनन्द आता है।

इस बार व्हाट्सएप पर दोस्तों, मम्मी-पापा और भाइयों की होली में रंग लगे फ़ोटो के साथ लाइव कमेंट्री भी चल रही थी। उसे देखकर बचपन में भाइयों और दोस्तों के साथ की होली याद आ गयी। आज यकायक ऐसा लगा कि फिर से अगर संभव होता तो मैं भी अपनी "घर वापसी" करा लेती।

(रचना त्रिपाठी)

 

Wednesday, March 4, 2015

बलात्कार की चर्चा से मनोरंजन की मानसिकता

तिहाड़ जेल में बन्द एक दोषसिद्ध बलात्कारी का साक्षात्कार आजकल चर्चा में है। भूत-प्रेत, टोना-टोटका और स्टिंग ऑपरेशन के बाद मीडिया को अब यही दिखाना बाकी रह गया था। समाज के बारे में और खास तौर पर लड़कियों के रहन-सहन और ओढ़ने पहनने के बारे में इस अमानुष का प्रवचन सुनना ही अब नारी जाति के लिए बचा रह गया था। यह अधम प्रयास वे चैनेल कर रहे हैं जिनकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अच्छी प्रतिष्ठा है। जिन विद्वानों और विदुषियों को लड़कियों के साथ बलात्कार होने का कारण उनके द्वारा छोटे वस्त्र पहनना, देर रात में अपने किसी पुरुष मित्र के साथ बाहर निकलना, फिल्में देखना आदि ही समझ में आ रहा है उन्हें यह बताना पड़ेगा कि फिर क्या हर उस नयी शादी-शुदा लड़की के साथ बलात्कार नहीं हो जाना चाहिये जो अपने पति के साथ हनीमून पर जाती है.. किसी अनजान होटल में ठहरती है... अपने नये नवेले पति के साथ देर रात तक बाहर रहती है या रात में फिल्म देखकर लौटती है..? ये लोग उदाहरण दे सकते हैं कि कहीं कहीं इस तरह के केस में भी बलात्कार होते सुना गया है। तो क्या यह मान लिया जाय कि हम अपने समाज को स्त्रियों के जीने लायक नहीं बना सकते।

जीव-जंतु, पेड़-पौधे, आकाश-पाताल, नदी-पहाड़ आदि सभी चीजों का निर्माण तो ईश्वर ने किया है और उसी ने इंसान के रूप में एक बच्चे (लड़का-लड़की) को जन्म दिया है- किसी साधू या अपराधी को नहीं। लेकिन आधुनिकता और उपभोक्तावाद के जंगल में तब्दील हो चुके हमारे समाज ने ऐसे नरपिशाचों को पैदा कर दिया है जिन्होंने इन्हें बनाने वाले को भी बदनाम करके रख दिया है। बलात्कारियों का अपना कोई नाम पता नहीं होता या उनके चेहरे पर नहीं लिखा होता की फला व्यक्ति बलात्कारी है जिसे देखते ही हर लड़की सावधान हो जाये और अपना काम-धाम छोड़कर किसी सुरक्षित बन्द कमरे में खुद को कैद कर ले अथवा कोई चादर ओढ़कर या बुरका पहनकर चोरी-चोरी छिपते-छिपाते बाहर निकले। लेकिन, क्या बुरका पहनने वाली स्त्रियों के साथ कभी बलात्कार नहीं हुआ है.. या किसी छह महीने की बच्ची से लेकर अधेड़ महिला के साथ इस तरह का दुष्कृत्य नहीं हुआ है?
अगर मिडिया को किसी केस का पोस्टमार्टम करना ही है तो जरा इस मानसिकता का पोस्टमार्टम करके बतायें कि लड़कियों के लिए छोटे कपड़ें बनते ही क्यों है..? और अगर ऐसे कपड़ो का प्रोडक्शन हो रहा है तो उनके पहनने पर आपत्ति क्यों..? यदि छोटे कपड़े बलात्कार को आमंत्रण देते हैं तो इसका उत्पादन करने और बेचने वाली फर्मों पर आपराधिक मुकदमा क्यों नहीं चलाया जाना चाहिए? फिर यह भेद-भाव ही क्यों कि ऐसे कपड़े किस तरह की लड़की पहने या किस तरह की न पहने..? देर रात में सिनेमा हॉल में फिल्में चलती ही क्यों हैं..अगर देर रात में फिल्में चलती भी हैं तो लड़कियों के लिये प्रतिबंधित क्यों नहीं कर दिया जाता है...। यदि नहीं तो फिल्म देखकर लौटने वाली लड़की के साथ बलात्कार होने पर सिनेमाहाल के मालिक के खिलाफ़ एफ़.आई.आर क्यों नहीं? या फिर देर रात का सिनेमा मर्द ही क्यों देखे..? देर रात फ़िल्म देखकर घर लौटने पर ऐसी विकृति मानसिकता वाला पुरुष अपने घर में ही अपनी वीबी या बेटी-बहू के साथ बलात्कार नहीं कर सकता क्या..?

एक बलात्कारी जैसे जघन्य अपराधी का साक्षात्कार क्या इतना जरूरी है जो उसकी डॉक्यूमेंट्री बनाकर पब्लिक नें प्रसारित की जाय..? क्या मिलने वाला है उससे? सिवाय उस निर्भया और उस जैसी तमाम पीड़ित स्त्रियों और उनके रिश्तेदारों के अपमान और मानसिक उत्पीड़न के। ऐसी वाहियात बातों की चर्चा का प्रयास करना भी सामाजिक अपराध को एक खास तरह की मान्यता  देता है और मानसिक रुग्णता के शिकार लोगों के मनोरंजन का साधन बनता है। सरकार को इसपर अविलंब पूर्ण प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।

(रचना त्रिपाठी)