Friday, March 6, 2015

होली के रंग में तंग

अपनी तो 'होली' भी होली पर किसी ने न तो जबरदस्ती मुझे रंग डाला और न ही चेहरे पर लगे रंग वाली एक भी तस्वीर खींची... इस बार मेरे हमजोली जो नहीं थे। फिर ऐसे में भला मेरी फ़ोटो कौन खींचता! वैसे भी इस बार मैंने बहुत रंग नहीं खेला| यह अच्छा ही हुआ वर्ना बिना रंग वाली होली की तस्वीर में बेइज्जती हो जाती। मेरे पड़ोसियों ने मेरे चेहरे पर बड़ी इज्जत के साथ थोड़ा-थोड़ा गुलाल लगाया।अपने-अपने कैमरे से मेरी तस्वीर भी खींची पर वे उसे अपने घर ले गये।

मन हुआ की बच्चों से कह दूं कि-जरा मुँह में लगे गुलाल के संग एक मेरी भी फ़ोटो खींच दो... लेकिन वे अपने रंग में इस कदर सराबोर थे कि पूछिये मत... मैंने भी सोचा छोड़ो जाने दो... उस समय उनसे फ़ोटो खिंचवाना उनके रंग में भंग डालने जैसा था। इस प्रकार इस होली की मेरी एक भी तस्वीर नहीं है जो मैं भी व्हाट्सएप और फेसबुक पर लगाऊँ।

इससे पहले कि आप लोग इन्हें लानत भेजे मैं अस्पष्ट कर दूं कि गाँव में इनकी भाभियों की शिकायत थी कि -"कई सालों से देवर के संग होली नहीं खेली, बिना देवर के होली का रंग फीका हो जाता है" और इनका भी कहना था कि भाभियों के रंग लगे हाथों से पुआ खाने-खिलाने का तो मजा ही कुछ और है ! सो मैंने इन्हें जाने दिया।

फिलहाल अपना तो कोई सगा छोटा देवर भी नहीं है जिसके साथ होली खेलती। बच्चों की यहाँ पर अपनी अलग कम्पनी है, जिसे वे होली में छोड़कर कहीं और जाना पसन्द नहीं करते हैं। उनको रंग खेलते देखकर मुझे भी बहुत आनन्द आता है।

इस बार व्हाट्सएप पर दोस्तों, मम्मी-पापा और भाइयों की होली में रंग लगे फ़ोटो के साथ लाइव कमेंट्री भी चल रही थी। उसे देखकर बचपन में भाइयों और दोस्तों के साथ की होली याद आ गयी। आज यकायक ऐसा लगा कि फिर से अगर संभव होता तो मैं भी अपनी "घर वापसी" करा लेती।

(रचना त्रिपाठी)

 

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