तथा-कथित सर्वे कंपनियां और मीडिया वाले सबका हाल बताते-बताते खुद की चाल बिगाड़ बैठे है। याद आ रहा है वो दिन जब हम पूरे दिन इंतजार करने के बाद रात को साढ़े आठ बजे दूरदर्शन पर सारी दुनिया का हाल-चाल जानने के लिए बैठे रहते थे। दूरदर्शन पर आधे घंटे के समाचार में किसी भी पार्टी या प्रोडक्ट का प्रचार नाम की कोई चीज नहीं दिखाई जाती थी। लेकिन अब क्या है..रंग-बिरंगे न्यूज चैनल और रंग बिरंगी चटपटी खबरें! इन चैनलों पर समाचार के नाम पर आचार-विचार की कोई चीज देखने को नहीं मिलती हैं। दस से पंद्रह सालों में जो विकास का उदाहरण देखने को मिल रहा है क्या उसमें से एक विकास का मॉडल यह पेड न्यूज और धंधेबाज सर्वे कंपनियां भी हैं?
चौथे स्तंभ का रवैया तो ऐसे ही ढुल-मुल लग रहा था। बाकी बची-खुची कसर अब आइटम गर्ल की तरह सर्वे कम्पनियां अपना- अपना ओपीनियन पोल पब्लिक को दिखाकर पूरा कर दे रही हैं। क्या होगा भला इस जनतंत्र का? जिस पार्टी ने अपने दस साल के कार्य-काल में देश में सिर्फ गड्ढा खोदने का कार्य किया हो कुछ न्यूज चैनल्स तो उनका गुणगान गा-गा कर फिचकूर फेंक देते हैं। देखने वाले को घिन्न आने लगती है ऐसे न्यूज चैनलों को। एक चैनल से मन ऊबने लगता है तो दूसरे पर रिमोट घुमाते ही पता चलता है कि यहां पर भी उसी पार्टी का गाना-बजाना चल रहा है। अब देखे भी तो कोई क्या? और रही बात सर्वे कंपनियों की तो पब्लिक को चाहिए कि इनका भरोसा हरगिज न करें।
अगर आम जनता को जरूरत है तो सिर्फ अपने विवेक का इस्तेमाल करने की। क्योंकि सुना है आजकल चुनावी मार्केट में गंजो को भी कंघी बेची जा रही है। अपने आस-पास के विकास को देखकर अपने दिमाग की बत्ती जलाने की; जो सिर्फ मिंटोफ्रेश खाने से नहीं जलेगा। चुनावी खबरों की चाय की चुस्की लेने से पहले अपने दिमाग की छननी से छान लेना बहुत जरूरी है।
सही है। वैसे लोग कहते हैं जब देखा जाता है टीवी तो दिमाग अलसाया रहता है। काम कम करता है। :)
ReplyDeleteबहुत सही आकलन। अभी अभी मैंने भी कुछ इसी तरह का स्टेटस डाला है य़े भी सच है कि शहरी दर्शक इनकी असलियत जान गया है इनका असली निशाना तो ग्रामीण दर्शक है।
ReplyDeleteसारा अनर्थ अर्थ का किया हुआ है !
ReplyDeleteसमाचार सूचना देने का माध्यम होना चाहिए था मगर अब सिर्फ सनसनी फ़ैलाने का कार्यक्रम बन कर रह गया है .
ReplyDeleteबहुत सही
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