आज महिला दिवस पूरा देश मना रहा है। इस दिन का जश्न मनाने के लिए महिला सशक्तिकरण पर कार्य करने वाली संस्थाएं, सभी प्रकार के राजनैतिक दल, सोशल मीडिया एवं सामान्य पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुष सब उत्साहित दिख रहे हैं। मैं सोच रही हूँ कि महिला दिवस मनाने के लिए किसी जुलूस, सार्वजनिक स्थल या मंच की क्या जरूरत है..? सिर्फ एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिला का सम्मान नहीं बढ़ जाता। जरूरत है तो समाज में नारी सम्मान, नारी शिक्षा, नारी स्वास्थ्य के साथ-साथ नारी के राजनैतिक सशक्तिकरण की जो सिर्फ कानून बन जाने से नहीं मिल सकता।
आज महिला दिवस पर भी अगर किसी व्यक्ति के घर में बेटी पैदा होगी तो ‘सोहर’ नहीं गाया जाएगा। सोहर गाना एक ऐसी प्रथा है जिसमें सिर्फ लड़का पैदा होने के उपलक्ष्य में घर की महिलाओं द्वारा यह खुशी का गीत गाया जाता है। अभी तो महिला अपने ही घर में स्वतंत्र या सशक्त नहीं है कि बेटी पैदा होने पर ‘सोहर’ गा सकें या किसी अन्य प्रकार का ‘जश्न’ मना सके; अपनी ही प्रतिरूप को अपने आंचल में रखकर घर के अन्य सदस्यों के सामने अपनी खुशी का इजहार कर सके। ऐसा नहीं है कि एक परिवार में महिलाओं की संख्या पुरुषों की अपेक्षा कम होती है। जब तक एक स्त्री के द्वारा दूसरी स्त्री की उपेक्षा होती रहेगी तब तक किसी भी प्रकार से महिला को सशक्त नहीं बनाया जा सकता तथा महिला दिवस या महिला सशक्तिकरण जैसे कानून सिर्फ अखबार के पन्नों की शोभा बढ़ाते रहेंगे जिसके लाभ से महिलाएं हमेशा ही वंचित रहेंगी।
एक गर्भवती महिला को जब प्रसव के दौरान किसी महिला डॉक्टर के पास ले जाया जाता है तो बेटा होने पर डॉक्टर जितनी गर्मजोशी से उस महिला के घर वालों को बधाई देती है उतनी गर्मजोशी एक बेटी के होने पर नहीं दिखाती। वहां की नर्स और दाइयों का भी बेटा होने की बक्शीस ज्यादा होती है। महिलाओं में स्वयं ही लिंगभेद को लेकर असमानताएं है। हर स्त्री को चाहिए कि वह अपने घर में इस पर्व को जरूर मनाये; बेटी के होने पर भी सोहर गाये; पूड़ी- पकवान बनाए। अगर एक स्त्री अपने ही घर में उपेक्षित हो या दूसरे स्त्री की उपेक्षा करे तो समाज से उसे उम्मीद नहीं करनी चाहिए। बेटे का जन्म हो या बेटी का अपनी पुरानी रुढिवादी परम्पराओं को घर की स्त्रियों को खुद तोड़ कर बाहर निकलना होगा। अपने वजूद को समझना होगा। अपने कार्यों के महत्व को समझना होगा। तभी वह सशक्त बन पाएंगी।
(रचना त्रिपाठी)
बेटे का जन्म हो या बेटी का अपनी पुरानी रुढिवादी परम्पराओं को घर की स्त्रियों को खुद तोड़ कर बाहर निकलना होगा।
ReplyDelete-बिल्कुल, यही इस विवेचन की बाटम लाईन है ,निष्पत्ति है !
मतलब ये कि बेटियां जनम से ही माँ बाप कि बचत करती हैं , और बेटे जनम से ही खर्च करवाते हैं
ReplyDeleteउत्तम बात. वैसे पूछा जा सकता है कि महिला दिवस को ही यह सवाल क्यों? :)
ReplyDeleteलेखिका का विचार भी यही है- “सिर्फ एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिला का सम्मान नहीं बढ़ जाता।”
Deleteकदाचित् महिला दिवस की औपचारिक खानापूर्ति से व्यथित होकर ही यह आलेख लिखा गया होगा।
उत्तम बात. वैसे पूछा जा सकता है कि महिला दिवस को ही यह सवाल क्यों? :)
ReplyDeleteबिटिया के लिये नये सोहर लिखने होंगे। कौनो मेहरारू पहल करे उनकी रचना करने में।
ReplyDeleteपरम्परा बदलने का काम महिलायें बखूबी शुरू कर सकती हैं।
पुराने सोहर में ही संसोधन की जरूरत है, जिसमें बहुत दिमाग लगाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जैसे ‘लल्ला’ की जगह ‘लल्ली’ और ‘बबुआ’ के स्थान पर ‘बबुनी’ लगा दिया जाय।
Deleteमैं तो सोहर , लोरी लिखती भी हूँ और गाती भी हूँ ।
ReplyDelete" लछमी धरिस हावै पॉव मोरे अॅगना ।
गाहौं मैं तो सोहर आज मोरे ललना।
गाहौं मैं तो सोहर...."