बचपन की दहलीज पार करके जब मैं किशोरावस्था में कॉलेज पहुँची तो पहली बार वैलेंटाइन-डे का नाम कान में पड़ा। वह भी किसी ऐसी चीज के रूप में जिसपर बड़े-बूढ़ों का पहरा लगा रहता है। बड़ा रहस्यमय टाइप लगा यह। मुझे इस वैलेन्टाइन-डे का मतलब समझने में ही सालों लग गये। जबतक इस डे को मैं पूरी तरह समझ पाती मेरी शादी हो चुकी थी। अब तो मन मसोसने के अलावा कोई चारा नहीं है। लेकिन मैंने अपना रास्ता निकाल लिया है।
सबका 'वैलेन्टाइन डे' मनाने का अपना-अपना तरीका होता है। मेरा भी यह दिन मनाने का अपना एक अलग तरीका है। शादी होने से लेकर आजतक कोई भी 'डे' हो हम अपने घर में ही अपने पति और परिवार के साथ मनाते हैं। इस दिन हम दाल भरी पूड़ी, सब्जी, खीर और साथ में ‘रसियाव’ बनाते हैं। कुछ लोग रासियाव को बखीर भी कहते हैं। इस व्यंजन का नाम तो सुनने में ही 'रसिया' की तरह बहुत मीठा लगता है। यह चावल में गुड़ डालकर पकाया जाता है । मीठी सुगन्ध वाले चावल में जब गुड़ भी मिल जाय तो यह और कितना मीठा हो जाएगा। हमें कोई भी 'डे' मनाना हो तो यह डिश जरूर बनाते हैं। घर में जिस दिन यह व्यंजन खाने को मिल जाय तो समझ लीजिये कि उस दिन हम जरूर कोई न कोई 'डे' मना रहें होते हैं जैसे- वैलेन्टाइन-डे, हग-डे, किस-डे, बर्थ-डे हो। रसियाव तब भी बनता है जब कोई निजी उत्सव जैसे शादी की सालगिरह हो, या कोई पारंपरिक त्यौहार हो जैसे- दीपावली, दशहरा, होली आदि।
वैलेन्टाइन डे पर एक मौज़ू गाना है सुनायी देता है जिसे आपने भी सुना होगा- "चेहरा क्या देखते हो दिल में उतर कर देखो ना" मुझे लगता है कि इस प्रेम-दिवस पर सभी प्रेमी जन इसी लक्ष्य का पीछा करते हैं कि कैसे अपने प्रिय के दिल में पक्की जगह बना ली जाय। प्रेम होने से पहले ही शादी हो जाने और जीवन साथी मिल जाने के बाद मुझे तो यह समझ में ही नहीं आया कि दिल में उतरने का काम भी बड़ा चुनौतीपूर्ण है। रास्ता भला कहाँ से ढ़ूढतें...। एक साथ रहते-रहते दिन, महीने, फिर साल गुजरते गये। हर एक 'डे' आता गया और इनके दिल में उतरने का रास्ता इनकी बातों से और दूसरे लक्षणों से प्रकट होता गया। हमारे यहाँ दिल में उतरने का एकमात्र और सटीक रास्ता है जो पारंपरिक भी है और ठोस आजमाया हुआ भी है। दिल तक पहुँचने का यह रास्ता न आँखों से होकर जाता है और न दिमाग से गुजरता है। यह रास्ता गुजरता है इनके पेट से होते हुये। अगर पेट की पूजा बढ़िया हो गयी तो दिल बाग-बाग हो जाता है और वहाँ अपना रिजर्वेशन पक्का।
अब ये वेलेंटाइन 'डे'! जिसमें फरवरी का महीना हो, रंग-बिरंगे फूलों के मौसम के साथ फूल गोभी और मटर का सीजन हो तो वेलेंटाइन 'डे' का क्या पूछना..यह तो कुछ ख़ास ही हो जाता है। हम दोनों इस दिन 'फूलगोभी' और 'मटर' जरूर खरीदते हैं। फरवरी का महीना आते तक तो मटर की कीमत भी कम हो जाती है। इस समय हम एक-दो किलो मटर नहीं खरीदते हैं। बल्कि पूरे तीस-चालीस किलो मटर इकठ्ठा खरीदकर इसके दाने छुड़ा लेते हैं और फ्रीजर में रख लेते हैं। इसके बाद पूरे साल जितना भी अलाना-फलाना-‘डे’ पड़ता है, हमारी थाली का जायका हरी-मटर के साथ और भी बढ़ जाता है।
हाँ मटर छुड़ाने का बोरिंग काम भी मुझे नहीं करना पड़ता इसलिए यह आनंद दोगुना हो जाता है। मेरे पति को मेरा आलू-प्याज काटना और घंटों मटर छुड़ाना बिल्कुल नहीं देखा जाता। उनका मुझसे साफ-साफ कहना है कि- “मेरे होते हुये तुम प्याज काटो और मटर छीलो यह हो ही नहीं सकता, मैं हूँ ना...!" बस इस प्रकार मेरा तो 'वेलेंटाइन डे' ऐसे ही बहुत ख़ुशी-ख़ुशी घर के आनंद में पूरा हो जाता है।
(रचना त्रिपाठी)
बधाई हो...
ReplyDeleteपूर्वांचल की महिला बिना बखीर के तो कोई उत्सव मना ही नहीं सकती :p
ReplyDeleteप्यारी पोस्ट. हमारे इधर गुड़ की खीर को कुछ और कहते हैं सोच के बताते हैं. लेकिन बड़ी स्वादिष्ट पोस्ट है भाई :)
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