Wednesday, September 5, 2018

लोभ और भय के बीच बेवक्त ऊँघना

स्कूल की क्लास में तीसरी घंटी के बाद बड़े-बड़े तुर्रमखां पढ़ाकुओं की अकड़ भी ढीली पड़ जाती थी। गुरुजी चाहे जितने भी प्रभावशाली क्यों न हों, और उनके वचनों से साक्षात् सरस्वती ही क्यों न प्रवाहित हो रही हों उस पीरियड में बहुत कस के उँघाई आती थी। दन्न-दन्न  प्रश्नों का हल दागते देख गुरुजी लोग प्रसन्न होकर अपने चहेते चेलों को अक्सर अपने ठीक सामने की बेंच पर बिठा लिए करते थे। इससे बैक बेंचर्स को मिलने वाली आड़ की सुविधा भी उन्हें नहीं मिल पाती थी।

उस पीरियड ने बड़े- बड़ों की पोल खोल कर रख दिया था। जबरदस्ती आँख फैलाये रहने के बावजूद नींद का झोंका सिर को धोबीपाट के कपडों की भांति उठा-उठा कर आगे-पीछे तो कभी अगल-बगल में बैठे सहपाठी के कंधे पर पटकता रहता। स्कूल के दौरान कई बार इस बेमुरौवत लफड़े में मैं भी फंस चुकी हूँ। लेकिन जो भी हो, यस सर, जी सर कहकर मैं अपनी पूरी जुगत लगा लेती थी उनको इस भ्रम में रखने के लिए कि 'गुरुजी, आप जो पढ़ा रहे हैं वो मेरे समझ में ख़ूब आ रहा है।'

ऐसा करना विद्यार्थी धर्म के विपरीत और नैतिकता के विरुद्ध होने से अपराधबोध को भी जन्म देता था। पर गुरुजी के विश्वास को बनाये रखने का लोभ और उसके साथ उनके बगल में रखी बेत की छड़ी जिसे गुरूजी दुखहरण कहा करते थे उसका भय इतना अधिक था कि हमारा ऐसा करना हमारी मजबूरी थी।

बचपन के उस अकिंचन अपराध के लिए क्षमायाचना सहित अपने सभी गुरुओं को शिक्षक-दिवस की ढेरों बधाई, हार्दिक शुभकामनाएं और सादर प्रणाम।

(रचना त्रिपाठी)

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