हमारे गाँव में किसी भी यज्ञ-प्रयोजन के सकुशल सम्पन्न हो जाने के बाद घर के सामने वाले बाग में स्थापित काली माँ के मंदिर में ‘कड़ाही चढ़ाने’ की परम्परा है। जहाँ पूजा-पाठ के बाद कच्ची मिट्टी के चूल्हे या मिट्टी के तेल से जलने वाले स्टोव पर गरमा-गर्म हलवा और पूड़ी - चाहे वह शुद्ध देशी घी का हो या कच्ची घानी सरसो के तेल में बना हो - उसे मंदिर परिसर में ताजा बनाकर ही देवी माँ का भोग लगाया जाता है।
यथा शक्ति तथा भक्ति की परिपाटी में देवी माँ को बस साफ-सुथरा “अपनी आँखों के सामने” बना प्रसाद ग्रहण करना पसन्द है। यहाँ घर से बनाकर लाने या बाजार से खरीदकर प्रसाद चढ़ाने की परंपरा नहीं है। उस मन्दिर के सामने कोई ऐसी दुकान नहीं है जिसपर रेडीमेड प्रसाद मिलता हो। गाँव-गाँव में स्थापित कोट माई, बरम बाबा, काली माई, डीह बाबा, इत्यादि नामों से प्रचलित देवी-देवताओं के असंख्य स्थानों पर यही होता है। नहा धोकर जाइए, अपनी श्रद्धा के अनुसार शीश नवाइए, कपूर-अगरबत्ती जलाइए या कड़ाही चढ़ाइए। कोई दक्षिणा नहीं देना पड़ता, न दानपात्र रखा होता है और न यहाँ किसी की पंडागीरी चलती है।
महालक्षमी मंदिर
इस पूजा-विधि में प्रसाद बनाते वक्त साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। चाहे वह बर्तन की शुद्धता और सफाई हो या उस प्रसाद को बनाने वाले के लिए स्नान करके साफ धुले कपड़े पहनने की आनिवार्यता हो या फिर उस स्थान की लिपाई-पुताई करके स्वच्छ रखने की जहाँ चूल्हा जलाया जाता है। बिना स्नान किये और धुला-धुलाया वस्त्र पहने कड़ाही चढ़ाने पर निषेध है। ऐसा माना जाता है कि इस विधि में थोड़ी सी भी चूक देवी माँ को मंजूर नहीं है। वह शीघ्र ही कुपित हो जाती हैं और लापरवाही बरतने वाले के ऊपर ही सवार (प्रकट) हो जाती हैं। इस भय से लोग साफ-सुथरा प्रसाद बनाने में विशेष सावधानी बरतते हैं। बिहार की प्रसिद्ध छठ पूजा में तो शुद्धता की जबरदस्त संहिता का पालन होता है।
बच्चों को उस प्रसाद से थोड़ा दूर ही रखा जाता है कि कहीं वे उसे देवी माँ को अर्पित करने से पहले जूठा ना कर दें। जूठा मतलब देवी माँ को हलवा पूरी चढ़ाने (भोग लगाने) से पहले बच्चों द्वारा चख लिया जाना जूठा हुआ मान लिया जाता है। वैसे ही जैसे गाँव में सासू जी के भोजन करने से पहले अगर बहू ने खा लिया तो उस भोजन को सखरी यानी जूठा मान लिया जाता है। आज भी गाँव के देवी-देवता के वहां इसी विधि से प्रसाद बनाकर चढ़ाया जाता है। जिसे बहुत मन हुआ उसने प्रसाद के साथ एक-दो सिक्के चढ़ा दिए नहीं तो वे फूल-अक्षत, धार-कपूर आदि चढ़ा देने से ही प्रसन्न हो जाती हैं।
इसके विपरीत बड़े सिद्ध स्थलों पर जहाँ दूर-दूर से भक्तगण दर्शन के लिए आते हैं वहाँ इसी देवी माँ के दर्शन के लिए पंडा जी लोग तो रेडीमेड महंगे प्रसाद और कीमती चढ़ावे लेकर आने वाले भक्तों पर ही इनकी कृपा बरसने देते हैं। यानी वहां देवी माँ की उतनी नहीं चलती जितना कि उनके पहरू बने पण्डा महराज की चलती है। भले से वह प्रसाद बासी ही क्यों ना हो। व्यावसायिक स्तर पर वह कहाँ और कैसे बना इससे उनका कोई सरोकार नहीं होता। उसकी शुद्धता के बारे में भक्तगण भी शायद ही सोचते हों। मंदिरों के बाहर सजी प्रसाद की प्रायः सभी दुकानें भक्त गणों के जूते चप्पल रखवाने की सुविधा भी देती हैं, यानि देश भर के जूते चप्पल उस प्रसाद के बगल में ही रखे जाते हैं। मंदिर प्रबन्धन द्वारा जूता-चप्पल रखवाने की जो व्यवस्था की जाती है उसका प्रयोग करने के बजाय भक्तगण प्रसाद की दुकान में ही उसे रखना श्रेयस्कर समझते हैं।
मंदिर के भीतर भक्त महोदय पूर्ण स्नान करके आये है या नहीं यह कम महत्वपूर्ण है लेकिन उनके हाथ का चढ़ावा कितना दमदार है उसी से उनकी गरिमा का आकलन पंडा जी करते हैं। बड़े-बड़े मन्दिरों के आस-पास की दुकानों में मॉल की तरह सजा हुआ प्रसाद भी शायद ब्रांडेड हो जिसपर देवी माँ आँखमूंद कर विश्वास कर लेती हों। तभी तो भक्तगण को उनके कुपित हो जाने का कोई भय नहीं होता। मुझे तो यही माजरा समझ में आता है। नहीं तो फिर हमारे गाँव की देवी माँ शायद कम पढ़ी-लिखी पुराने खयालों की दकियानूस टाइप हों उन सासू माँ जैसी जिनका गुस्सा उनकी नाक पर ही होता है।
(रचना त्रिपाठी)
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDeleteअंधी आस्था को कौन समझाए ?
ReplyDeleteअच्छी जानकारी, सच्ची देवी माँ की।
ReplyDeleteसबकी अपनी श्रद्धा है . किसी को कही सच्ची श्रद्धा है तो किसी को कहीं ! :)
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