समलैंगिक भी इस लोकतांत्रिक समाज का एक हिस्सा हैं, जिन्हें अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का पूरा अधिकार है। जबतक उनसे इस समाज और देश का कोई नुकसान नहीं होता तबतक उनकी यौनिक पसन्द पर आपत्ति नहीं की जा सकती। समलैंगिकता अपराध तब है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य के साथ अप्राकृतिक ढंग से जबरदस्ती संबंध बनाने का प्रयास करे। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस वर्ग के लोगों के लिए कदाचित उचित नहीं है क्योंकि समलैंगिक प्रवृत्ति, आप इसे गुण कहे या दोष; यह भी प्रकृत प्रदत्त ही है जो हार्मोन पर निर्भर करता है न कि समाज में किन्हीं अराजक तत्वों द्वारा उत्पन्न हुआ है। एक स्त्री का किसी अन्य स्त्री के प्रति आकर्षण या एक पुरुष का किसी अन्य पुरुष के प्रति आकर्षण उतना ही संभव है, जितना एक पुरुष अथवा स्त्री का विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होता है। प्रकृति में ऐसे मनुष्यों का आविर्भाव भी हो सकता है जिसे ठीक-ठीक स्त्री या पुरुष की श्रेणी में ही न रखा जा सके। प्रकृति प्रदत्त ऐसे विशिष्टियों के लिए किसी को अपराधी ठहरा देना कहाँ तक न्यायसंगत हो सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने अप्राकृतिक यौनाचार और समलैंगिक संबंधों को अपराध करार दिया है, जिसकी सजा में उम्रकैद तक का प्रावधान है।
इस तरह से देखा जाय तो इस यौनवृत्ति को अवैधानिक घोषित कर सजा का प्रावधान गलत है। इसको सामान्य प्राकृतिक लक्षणों से अलग एक आंशिक विकृति मानकर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर उपचारात्मक प्रक्रिया की बात तो समझ में आती है। लेकिन इसे अपराध की श्रेणी में रखकर देखा जाना उचित नहीं समझा जा सकता है। अगर लोकतंत्र मे सेरोगेसी को स्थान मिल सकता है, लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता मिल सकती है तो समलैंगिको के साथ यह भेद-भाव क्यों है? समलैगिकता को एक दायरे में सीमित कर देना तो उचित हो सकता है ताकि यह इस समाज में एक अपराध बनकर न उभरे; लेकिन इसे स्वयं एक अपराध घोषित कर देना ज्यादती होगी।
(रचना त्रिपाठी)
सुप्रीम कोर्ट ने केवल यह कहा है कि क़ानून बनाना/हटाना संसद का काम है और जब तक नहीं वापस लेती यह धारा प्रभावी है !
ReplyDeleteकुछ बच्चों और किशोरों में यह प्रवृत्ति एक तरह से जिज्ञासु खोजबीन(एक्सप्लोरेटरी बिहवियर) है मगर उम्रदराज लोगों में यह एक व्यवहारगत विकृति।
व्यक्ति विशेष में से इसके (एल जी बी टी) निवारण के चिकित्सीय प्रयास होने चाहिए -परामर्श , हार्मोनल और जेनिक चिकित्सा भी ! विकृतियों को क़ानून सम्मत बनाना कतई उचित नहीं है !
इसको सामान्य प्राकृतिक लक्षणों से अलग एक आंशिक विकृति मानकर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर उपचारात्मक प्रक्रिया की बात तो समझ में आती है। लेकिन इसे अपराध की श्रेणी में रखकर देखा जाना उचित नहीं समझा जा सकता है।
ReplyDeleteसुप्रीम कोर्ट सरकार से कह रहा है भाई कानून बना लो। सरकार बेचारी कह रही है बहुमत कहां है भाई? इन दुई पाटन के बीच में बेचारे समलैंगिक फ़ंस गये।
ReplyDeleteसमसामयिक मुद्दे पर बहुत अच्छा लिखा है। बधाई।
सुप्रीम कोर्ट की बातों को पूरी तरह समझा नहीं गया है ।
ReplyDeleteबाकी इनके साथ समाज को संवेदनशील तो होना ही चाहिए किन्तु उपचार हेतू परिवार का साथ भी होना चाहिए क्योंकि यह एक बायोलॉजिकल इम्बैलेंस तो है ही ।
Please permit me to republish this on naari blog with backlink to your blog as its a good sensible post
ReplyDeleteKindly email your acceptance
आदरणीया, यदि आप इसे नारी ब्लॉग पर पोस्ट करना चाहती हैं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
Deleteधन्यवाद।
मैं आपसे सहमत हूँ !! आभार एक अच्छी पोस्ट के लिए !!
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