बिहार के छपरा जिले में बच्चों को दिये जाने वाले मिड डे मील खाने के कारण हुए हादसे से नसीहत लेते हुए राज्य सरकार कुछ नये तरीके पर हाथ आजमाने कि कोशिश करने में जुट गयी है। जिसे `हॉट कुक्ड फूड’ के नाम से प्रचारित किया जा रहा है। जिसमें ब्रान्डेड सामग्री के इस्तेमाल का निर्देश दिया गया है। मंत्रीजी का आदेश है कि मध्याह्न भोजन को बच्चों में वितरित करने से पहले संबन्धित आंगनवाड़ी कार्यकर्त्री और रसोइयों को पहले चखना पड़ेगा। कितना उत्तम विचार है.. मन्त्रीजी से लेकर संबंधित विभागीय अधिकारी सभी विकास के रास्ते पर अग्रसर हो रहें है। ग्रामीण क्षेत्रों मे शैक्षिक गुणवत्ता में कितना सुधार है इसका तो उन्हें खूब अच्छी तरह से पता है। अब चले हैं भोजन की गुणवत्ता में सुधार करने..।
सोचने वाली बात है ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ २०० से अधिक बच्चों का भोजन एक साथ बनना है वहा सब्जियाँ भी उसी मात्रा में कटती है, अब एक हैंड पम्प के सहारे वह सब्जियां कितनी बार धुली जाती होंगी आप अन्दाजा लगा सकते है। यही नही यहाँ सब्जियाँ कटवाने से लेकर नल चलाने तक का कार्य भी स्कूली बच्चों से ही लिया जाता है। क्या मंत्रीजी या संबंधित अधिकारी इस स्कूल द्वारा दी जाने वाली शिक्षा और भोजन को अपने बच्चों के लिए इस्तेमाल कर सकते है?
ग्रामीण परिवेश में पले-बढे होने के नाते मै वहाँ के लोंगो कि मानसिकता से भली-भाँति परिचित हूँ। यहाँ का गरीब वर्ग जो अपनी रोजी-रोटी चलाने में असमर्थ है उनको सरकार ने अपने बच्चों के पेट पालने का अच्छा मौका दे रखा है। इसे मौका कहें या सहारा.. पचहत्तर प्रतिशत ऐसे माँ-बाप हैं जो बच्चे पैदा करने के बाद उनका चलने का इंतजार करते है जिससे वह बच्चे को स्कूल का रास्ता दिखा सके। इससे इन्हें क्या हासिल होता है? गहराई से देखें तो सिर्फ़ एक वक्त की रोटी या कहें तो एक बैसाखी। ग्रामीण क्षेत्र में देखे तो शैक्षिक गुणवत्ता का कोई पैमाना मंत्रीजी ने बनाया ही नहीं है।
गुरूजनों को देखा गया है इन रसोइयों से अपने लिये अलग से चाय-पकौड़िया बनवाकर खाते हुए। इनकी व्यवस्था अलग से होती है जिसके लिए साफ-सुथरे वर्तन और शायद वही ब्रान्डेड तेल और मसाले का इस्तेमाल होता है। मेरे कहने का मतलब है कि यह सारा विभाग जानता है कि ब्रान्डेड किसे पचेगा और किसे लोकल।
तरस आती है ऐसे माँ-बाप और ऐसे बच्चों पर जिनकी गरीबी का राज्य सरकार भी मजाक बना रही है। कटोरा लेकर एक पंक्ति में बैठते और भोजन का इंतजार करते बच्चों में ये कैसी आदत डाल रही है हमारी सरकार? मुफ़्त के भोजन वाली पढ़ाई समाप्त होने के बाद इन बच्चों की आँखों में स्वावलम्बी बनने की तमन्ना दूर-दूर तक नही दिखायी देती है। प्राय: यही देखा गया है कि हर वक्त इनकी लरियायी आँखें किसी को ढूँढती रहती हैं कोई आये और उन्हें कुछ दान ही सही दो पैसे दे जाये। शायद ऐसे ही बच्चों के लिए मनरेगा ने रास्ता साफ कर रखा है।
दूसरी तरफ उन पच्चीस प्रतिशत लोगों की बात भी करना चाहती हूँ जो मेहनत मजदूरी करके अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में न भेजकर, प्राइवेट स्कूलों में जहाँ २०० से लेकर ५०० रूपये फीस भी दे रहे हैं। इन दोनों संस्थाओं के बच्चों को देखकर उनकी शैक्षिक योग्यता का पता लगाया जा सकता है।
बिहार सरकार ने तो एक गरीब के एक बच्चे की कीमत दो लाख रूपये लगा डाली है। इनकी गरीबी का मजाक बना के रख दिया है।
(रचना)
समाजवाद आ रहा है इन्सेक्टिसाइड के जरीकेन में रखे तेल से।
ReplyDeleteकडुवा सच है। सटीक बात!
ReplyDeleteसरकारे वोट बैंक के तलाश में हैं -वे लोगों को कहाँ स्वावलंबी बना रही हैं -उन्हें तो निकम्मे लोगों का वोट चाहिए -खाद्य सुरक्षा बिल को ही देखिये -आपके इन विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ !
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी! ये समाजवाद नहीं पूंजीवाद का अपशिष्ट है।
ReplyDeleteद्विवेदी जी, हो सकता है कि यह पूँजीवाद का अपशिष्ट हो लेकिन जो लोग यह कर रहे हैं वे सभी समाजवाद का चोला पहनकर कर रहे हैं और समाजवाद के नाम पर ही कर रहे हैं। मिड डे मील का संबंध पूँजीवाद से कैसे हो सकता है?
Deleteबहुत ही दुखद, सरकारों को सिर्फ़ वोट बैंक से मतलब है और जिसको मौका मिल जाये उसको भ्रष्टाचार से मतलब है, जनता जाये भाड में.
ReplyDeleteरामराम.
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