विगत 20-21 सितम्बर को हिन्दी ब्लॉगिंग व सोशल मीडिया पर एक राष्ट्रीय सेमीनार महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में आयोजित हुआ। इस विचार गोष्ठी में एक से बढ़कर एक दिग्गज ब्लॉगर मौजूद थे। मुझे भी इनके साथ इस ब्लॉगरी पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उद्घाटन सत्र में सोशल मीडिया के महत्व और उसकी विशेषताओं पर हुई चर्चा से काफी गहमा-गहमी बनी रही। इसी दौरान इस विश्वविद्यालय के कुलपति जी श्री विभूति नारायण राय ने हिंदी ब्लॉग जगत को एक शानदार सौगात देने की घोषणा की- विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर शुरू होगा “चिट्ठा समय” ब्लॉग संकलक जो हिंन्दी ब्लॉगों को जोड़ने के लिए एग्रीगेटर का कार्य करेगा।
उद्घाटन सत्र से लेकर समापन समारोह तक चर्चा के लिए जितने भी विषय दिए गये थे उन सभी विषयों पर चर्चा हो चुकी थी; बस एक विषय छूटा जा रहा था जो मनीषा पान्डेय जी के द्वारा विशेष उल्लेख के अनुरोध से पूरा किया गया- ‘स्त्री और उनके अधिकार’। मनीषा जी ने बहुत सी आँखे खोलने वाली बातें कीं। लड़कों की ही तरह लड़कियों को मिलनी चाहिए घूमने की आजादी और पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी आदि।
लेकिन हमें लगता है नारीवाद अपने आप में एक विवाद का विषय हो गया है। स्त्रियों के अधिकारों की बात सुनकर बहुत अच्छा लगता है। मिल जाए तो उससे भी कहीं ज्यादा अच्छा लगेगा। लेकिन नारीवादियों का भी एक आदर्श होना चाहिए जिससे इसके उद्देश्यों की प्राप्ति में तेजी आ सके। स्वतंत्रता और खुलेपन की अंधी दौड़ में शामिल होने की आतुरता हमें ऐसी दिशा में तो नहीं ले जा रही जहाँ जाकर हमें खुद ही लज्जित होना पड़े। अपनी मूल संस्कृति और संस्कारों को केवल प्रगतिशीलता के नाम पर तिलांजलि दे देने से हमें क्या कुछ बड़ा और महत्वपूर्ण हासिल होगा? इसका ठीक-ठीक उत्तर मिलना अभी शेष है। एक नया मूल्य स्थापित करने की ललक में हमें अनेक पारंपरिक मूल्यों को नष्ट करने से पहले ठहरकर शांतचित्त हो कुछ सोच लेना चाहिए।
यदि हम सजग नहीं रहे तो इस देश की देवीस्वरूपा नारी और राष्ट्रभाषा हिन्दी की शायद एक ही प्रकार से दुर्गति होने वाली है। सेमिनार में एक छात्र तो हिंदी को बदलकर पूरी तरह हिंगलिश बनाने के लिए व्याकुल दिख रहा था। भला हो कि हमारे बीच से ही कुछ लोगों ने उसकी व्यग्रता कम करने की कोशिश की। देखते हैं कब गाड़ी पटरी पर आती है?
इन बड़े-बड़े ब्लॉगरों के बीच हम तो भिला (खो) से गये थे। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा जहाँ पर मैं अपने परिवार के साथ जून-2010 में गयी थी, पूरे नौ महीने रहने के बाद उस जगह का रूखा वातावरण देखकर मेरा धैर्य जवाब दे गया था और हम पुन: यू.पी. वापस चले आये थे। लेकिन अब वहाँ जाकर इस ढाई साल में हुए अद्भुत परिवर्तन को देखकर हम दंग रह गये। बड़ा ही जीवंत माहौल था वहाँ का। चारों तरफ हरियाली और फूलों से सुसज्जित ‘नागार्जुन सराय’ नामक गेस्ट हाउस जिसका दो साल पहले लगभग कोई अस्तित्व नहीं था, हमारे लिए बिल्कुल नया था। इस विश्वविद्यालय की खुशनुमा शाम पूरे सुर-लय-ताल में बँधी वीणा की तरह बज रही थी। इसका सारा श्रेय कुलपति महोदय को जाता है। यह श्री विभूति नारायण राय की वीणा है। जब तक यह वीणा इस विश्वविद्यालय में रहेगी इसका स्वरूप और अनोखा होता जायेगा, यह मेरा मानना है।
इन दो दिनों में सभी ब्लॉगर मित्रों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। हिंदी ब्लॉग के प्रथम हस्ताक्षर/ निर्माणकर्ता आलोक कुमारजी से मिलना भी मेरे लिए इस सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। कुलपति जी द्वारा दिये गये रात्रिकालीन प्रीतिभोज के पहले अरविन्द मिश्र जी की सुरीली आवाज में गाये गीत ने इस आकर्षक माहौल में चार चाँद लगा दिये।
(रचना)
वर्धा में जो हमने देखा…
ReplyDeleteसुन्दर वर्णन !!
देवीस्वरूपा नारी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के संबंध में बड़ी गहरी बात कही है आपने. आप भिला नहीं न गई थीं, सिद्धार्थ जी के साथ ब्लॉगरों के आदर सत्कार में लगातार सक्रिय थीं.
ReplyDeleteभिलाई तो नहीं पहुँच गईं? :-)
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Deleteमेरा काव्य पाठ का श्रम सिद्ध और सार्थक हो गया -आभार!
ReplyDeleteनारीवाद की मौजूदा प्रवृत्तियाँ एक बड़ी और अनवरत चर्चा की मांग करती हैं मगर संतुलन के पक्षधर हम भी हैं!
हम कुछ तो सत्यम शिवम सुन्दरम बना रहने दें !
achcha laga......
ReplyDeleteनारी की स्वतंत्रता जरूरी है पर स्वच्छंदता नहीं,मगर यह निर्णय करना पुरुषों के नहीं उन्हीं के हाथ में है।
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ReplyDeleteब्लॉग का नाम चाहे टटी फूटी है पर रचनाएं बेजोड़,संतुलित और लेखन अनुपम है।
ReplyDeleteअधिकार की मांग जायज है यदि कर्तव्यों की पूर्ति की जा रही हो। सिर्फ अधिकार मांगते रहने की होड़ ने देश को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया है। यही ख्याल नारीवाद के बारे में है।
ReplyDeleteनारीवाद से सम्बंधित आपके विचारों से पूर्ण सहमति।
अच्छी पोस्ट लिखी !
ReplyDeleteलोग सोये भी खूब हैं वहां :)
ReplyDeleteअब वहाँ जाकर इस ढाई साल में हुए अद्भुत परिवर्तन को देखकर हम दंग रह गये। बड़ा ही जीवंत माहौल था वहाँ का। :)
ReplyDeleteआपसे सहमत हूं -
ReplyDelete''नारीवादियों का भी एक आदर्श होना चाहिए जिससे इसके उद्देश्यों की प्राप्ति में तेजी आ सके। स्वतंत्रता और खुलेपन की अंधी दौड़ में शामिल होने की आतुरता हमें ऐसी दिशा में तो नहीं ले जा रही जहाँ जाकर हमें खुद ही लज्जित होना पड़े। अपनी मूल संस्कृति और संस्कारों को केवल प्रगतिशीलता के नाम पर तिलांजलि दे देने से हमें क्या कुछ बड़ा और महत्वपूर्ण हासिल होगा? इसका ठीक-ठीक उत्तर मिलना अभी शेष है। एक नया मूल्य स्थापित करने की ललक में हमें अनेक पारंपरिक मूल्यों को नष्ट करने से पहले ठहरकर शांतचित्त हो कुछ सोच लेना चाहिए।''
सार्थक नारीविमर्श से परिपूर्ण एक बेहतर और संतुलित रपट के लिए बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और स्मरणीय संस्मरण. आपने बिलकुल ठीक देखा और उसे ही दिखाया भी. नारी को क्या होना चाहिए और वो क्या है, यह तय करने का अधिकार उसे ही दिया जाय. उसमें किसी मर्दवादी पुरुष या पुरुषवादी नारियों की घुसपैठ न हो, यही उचित होगा. सादर.
ReplyDeleteसभी विषय अच्छे उठे वहाँ पर और चर्चा भी जम कर हुयी, कुल मिला कर बहुत उपयोगी रही वर्धा यात्रा, हम सबके लिये।
ReplyDeleteबढिया रपट.
ReplyDeleteaapne jo apni sashakt upisithiti darj karvaai hai aur jis prakar ke
ReplyDeletevichaar aapne rakhe hein, vo har kisii ko naari-savantratraa ke har pahalu se avgat karaane ke liye kaafi hai, thanks, Rachna Ji.