याद है वो दिन जब शादी तय हो जाने के बाद मंदिर ले जाने के बहाने तुम मुझे पहली बार मेरे घर मिलने आये थे। तुम्हें अपनी बिल्कुल सुध नही थी कि तुम कैसे चले आये थे। कोई मेक-अप नहीं। तुम्हें देखकर मुझे लग रहा था कि काश थोड़ी कंघी तो बाल में घुमा लिए होते। लेकिन कैसे कहती? मुझे तो ऐसे भी तुम बहुत अच्छे लग रहे थे। तुम्हारी सादगी और तुम्हारे मुस्कान की चर्चा तो हमने पहले भी सुनी थी जिसे देखने के लिए मेरा मन महीनों से बेचैन हो रहा था। कितना आत्मविश्वास था तुम्हारे चेहरे पर! जिसको जैसी वेश-भूषा में देखते वैसे ही बात करना शुरु कर देते। तुम्हारी सादगी मुझे इतनी भा गई थी कि मुझे खुद दुनिया की बनावटी वस्तुएं बेकार लगने लगी।
जब तुम बारात लेकर मेरे दरवाजे पर आये तब तुम्हारी सूरत देखने लायक थी। पता चला था कि सारे बाराती तो दरवाजे पर आ गये थे लेकिन तुम्हारी गाड़ी कहीं रास्ते में ही खराब हो गयी थी। रास्ते में किसी से लिफ़्ट लेकर मेरे गाँव तक पहुँचे थे। फिर दूसरी गाड़ी बिना किसी सजावट के तुम्हें लेकर मेरे दरवाजे पर आयी थी। तुम भी बिना किसी सजावट के हकासे-पियासे पहुँचे थे और पता नहीं क्यों दूल्हा-टोपी उतार कर तुमने अपनी गोद में रख लिया था। मैने एक बार सोचा कि काश मै तुम्हें बता दी होती कि बाल में मेंहदी लगवा लेना.. लेकिन क्या करती इतनी झिझक जो थी तुमसे..। खैर! अब तो जनम-जनम का साथ है तुम्हें मुझसे बाल मे मेंहदी तो लगवानी ही पड़ेगी। आखिर अब कहाँ जाओगे मुझसे भागकर...।
जबतक मै नहीं कहती तुम बाल में मेंहंदी तक नही लगवाते थे। कैसे मुझे प्यार से समझा दिया करते थे कि छोड़ो ये सारे श्रृंगार करना, हम पुरुष के लिए श्रृंगार नही बना। ये तो औरतों को शोभा देता है। अब तो मेरी उम्र की महिलाएं इन्हें अंकल जी भी कहना शुरु कर दी है। हर जगह हमें इन्हें समझाना पड़ता था कि देखो यह तुम्हारे पके बाल का नतीजा है कि दो बच्चों की माँ भी तुम्हें अंकलजी कहना शुरु कर दी है।
इस सप्ताहान्त जब तुम घर लौटे तो हमने सोच रखा था कि इस बार फिर तुम्हारे बाल में मेंहदी लगानी है। मै दुकान पर जाकर तुम्हारे लिए मेंहंदी भी लेकर आयी थी। लेकिन हमने देखा कि तुम तो बाहर से ही बाल कलर कराके आ गये हो। तुम्हें क्या हो गया? तुम्हारा जवाब सुनकर मुझे हँसी आ गयी- ‘‘यार सोच रहा था कि चालीस पार का हो गया। अब मुझे भी सुंदर दिखने के लिए कुछ करना चहिए..।”
हो न हो, अब तुम बदल गये हो।
(रचना)
वाह, बहुत अच्छी पोस्ट।
ReplyDeleteक्या पता हाकिम-ए-खजाना को कोई टोकता हो- आप इत्ती अच्छी शकल वाले पर ये रंग-बिरंगे बाल अच्छे नहीं लगते। कम से कम ’मैडम’ के पास जब जायें तो ’कलर’ करा के जायें।
हो न हों बदल गयें हों लेकिन बदले तो ’मैडम’ के ही चलते। :)
बहुत ही सटीक कलम चलाई है आपने, लाजवाब आलेख.
ReplyDeleteरामराम.
:-)
ReplyDeleteऐसा ही होता है सभी पुरुष एक जैसे ही होते हैं और कुछ तो बिल्कुल ही एक जैसे!आत्मकथात्मक संस्मरण है आगे भी फ्लैश बैक चलता रहे !
ये सैलून ही गए होंगें न? फिर भी इत्मीनान कर लीजियेगा :-)
क्यों आग लगाते हैं जी?
Delete:)
ये तो पहली बार मन्दिर जाने से लेकर ह्कासे पियासे द्वारपूजन मे पहुचने तक की कहानी अलग से जाननी होगी :)। लेकिन, जच रहे है तो 'बदलाव अच्छे है'।
ReplyDeleteप्रभावशाली कलम . . .
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