राजनीति का मंच सार्वजनिक होता है... आखिर यह लोकतंत्र जो है. देश के हर नागरिक को राजनीति के क्षेत्र में भाग्य आजमाने का अधिकार है। सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी पर काबिल लोग आ सकें इसके लिए यह व्यवस्था की गयी होगी; लेकिन इस मंच पर जो आते हैं उनका बायोडेटा देखने पर हाल कुछ और नजर आता है। यहाँ आने के लिए जो काबिलियत चाहिए वह कुछ दूसरी तरह की है। पढ़ा-लिखा हो या नहीं इससे क्या मतलब है देश को..? चोर, लुटेरे, व्यभिचारी, सूदखोर, ब्लैकमेलर, हत्यारोपी, रंगदार, भांड़, नचनिया, गवनियां सब राजनीति के मजे चखना चाहते है... आखिर मालामाल जो है। इन्होंने तमाम गलत रास्तों से पहले पूँजी इकठ्ठा कर ली और फिर कूद पड़े।
पूछिए इनसे - राजनीति में आने के लिए कालाधन क्यों उगाते हो भाई? बोलेंगे- खाएंगे तभी तो खिलाएंगे.. इतनी सहूलियत और कहाँ मिलेगी इन्हें..? एक बार बस गद्दी हाथ लग जाय तो देखो कमाल इनका.. न तो कमर मटकाने की जरूरत पड़ेगी और न ही अपने फिटनेस के लिए किसी जिम में जाकर जी तोड़ मेहनत कर पसीने बहाने की.. इस देश की राजनीति में क्या जरूरत है किसी सोसल वर्कर की..? कहीं समाज जागरुक हो गया तो इनकी माला कौन जपेगा..?
ऐसी स्थिति में पेशेवर सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए कोई गुंजाइश बचती है क्या? समाज के लिए कार्य करना अपना समय बर्बाद करने के बराबर है.. यूँ कहे तो राख में घी डालने के बराबर..। समाज इन्हें देता ही क्या है..? अमुक जी नाच-गाना कर के या दूसरे तरीकों से करोड़ों कमाकर रखे है- इसी दिन रात के लिए कि बैठाकर मुफ्त की रोटियाँ खिलाएंगे.. गाँव में वीडियो चलाकर तिवारी जी का नाच-गाना दिखाएंगे और उसके बाद कुछ खिला-पिलाकर सुबह वोट बटोर के ले जायेंगे.. फिर क्या! मंच पर कोई दूसरे बाबा का अवतार होगा..और फिर शुरू होगा ‘‘ओठवा में लगवले बाड़ी, कनवा में पहिने बाली चाल चलेली मतवाली, बगल वाली जान मारेली”। कितने रोजगार जैसे शिक्षक की भर्तियाँ इत्यादि सफेद पोशाक वाले सालों से सिकहर पर टांगे बैठे हैं कि कही कोई और बिल्ली झपट्टा न मार ले इनके वोट के खजाने को..।
..फिर क्या बगल वाली हो या अपना पड़ोसी, जान मारे या मरवाये.. हम तो भई! जैसे हैं वैसे रहेंगे.. देश मुंआ मुह पिटाये, आखिर यही तो होता रहा है आज तक यहाँ की राजनीति में.. ये कौन सी इस परम्परा से अलग हट कर कुछ नया करने को सोचने वाले हैं.. बड़का-बड़का राजनितिज्ञ तो जेल की हवा खा रहे हैं.. करमजला कानून ने भी एक लफड़ा लगा दिया है.. इनको आराम फरमाने का.. दूसरा कोई करे भी तो क्या..? ऐसा कोई माई का लाल पैसे वाला जन्मा ही नही कि चुनाव में अपना लगाकर जीत जाये.. क्योंकि यह भी जानते है आम जनता की हालत इतनी खस्ती है कि दो दिन भी भरपेट भोजन, दारू नाच-गाना में इनको मस्त कर दिए तो ३६३ दिन की चिंता तो इन्हें भूल जायेगी.. आखिर भूखमरी की शिकार जनता को दो-चार दिन खिला-खिला कर अघवाएंगे नही तो अपने फिर पाँच साल कैसे अघाएंगे..?
(रचना)
प्रजातंत्र की सबसे बडी खामी है, जनता की अशिक्षा । आपने सामयिक समस्या को उठाया है यह अच्छी शुरुआत है, निश्चित ही बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी ।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति .सही कहा प्रजातंत्र कि एक बड़ी बाधा है अशिक्षा .
ReplyDeleteनई पोस्ट : मंदारं शिखरं दृष्ट्वा
नवरात्रि की शुभकामनाएँ.
अच्छा लिखा है जी।
ReplyDeleteरामेन्द्र त्रिपाठी की एक कविता की पंक्तियां याद आईं:
"राजनीति की मण्डी बड़ी नशीली है,
इस मण्डी ने सारी मदिरा पी ली है।"
राजनीति और समाचार चैनल आजकल मनोहर कहानियों से लगते हैं :(
ReplyDeleteहां अब तो बिलकुल भी नहीं है !
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