औरत होकर ये तेवर
किसने दी तुम्हें इजाजत
चीखने -चिल्लाने की
ये तो है मर्दों का हुनर
क्यों रुँधता है गला
सूख जाती हैं आँखे
खुद ही तो चुना था अपना धन
रीति-रिवाज और सामाजिक बंधन
कहाँ है बेटी तेरी माँ
जो पोछती तेरे आंसू
भरते तुम्हारे भी जख़्म
मत भर झूठा दंभ कि
तुम्हारी भी “माँ" होती है
अगर यह सच है तो बता
क्यों चुपचाप यूं
मझधार में अकेले ही रोती है
आगे से तू भी
बेटी की माँ बन
उसे पराया न बना
अधिकारों की बात मत कर
पहले बन एक ‘औरत’ की माँ
जो भरती है आत्मविश्वास
देती है संबल
सुख-दुख में
देती है साथ, और
अपना कहने का हक
(रचना त्रिपाठी)
संवेदनशील कविता!
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबेटी होती है 'परायी'
ReplyDeleteये परायी बहुत पीड़ादायी है बेटियों के लिए
वैसे माँ के लिए बेटी कभी परायी नहीं होती
सुन्दर !
माँ को ही जागना होगा ... अपने लिए सबसे पहले तभी बेटी में भी साहस आएगा ... प्रभावी रचना ...
ReplyDeletevery nice.
ReplyDeletehttp://hindikavitamanch.blogspot.in/
bahut pasand aai aapki post.
ReplyDeleteहर स्त्रीत्व को अपने आत्मसम्मान को सम्भालना होगा.
ReplyDeleteSanvedansheel prantu ab har stri ko jaagna hoga .. Ladna hoga apna mahaatv samjhna hoga ,... Lajawaab !!
ReplyDeleteसुन्दर रचना | माँ करो ना याद कि तुम भी थी बेटी
ReplyDeleteफिर आज कैसे बनी पराई तुम्हारी अपनी बेटी |
संवेदनशील रचना ....
ReplyDelete