Wednesday, October 1, 2014

भारत में सफाई- बड़ी मुश्किल है भाई

आज कल जिस तरह सफाई अभियान का जोश सरकार से लेकर सरकारी महकमें तक दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि सच में गांधी जी का सपना साकार होने जा रहा है। शरीर, मन और मस्तिष्क तीनों के विकास के लिए देश से कूड़ा- कचरा और गंदगी का उन्मूलन होना बहुत जरूरी है। जब तक इस देश का प्रत्येक नागरिक शरीर से स्वस्थ, मन से मजबूत और दिमाग से दुरुस्त नहीं होगा तब तक इस अभियान का उद्देश्य पूरा नहीं हो पायेगा। यह जिम्मेदारी सिर्फ ‘मोदी’ की नहीं है।

हमारे यहां एक कहावत कही जाती है- “कौन अभागा जे के राम न भावें” मतलब ये कि शायद ही कोई ऐसा हो जिसे ईश्वर को पाने की चाह न हो। ठीक वैसे ही साफ-सफाई को लेकर प्रत्येक नागरिक के मन में यही चाह होती है कि हमारा घर और आस-पास का वातावरण हमेशा स्वच्छ बना रहे। लेकिन इसे बनाये रखने के लिए हमारी चाहत ही काफी नहीं है बल्कि सबका दायित्व भी है कि वे इसके लिए पूरे मनोयोग से यह संकल्प लें कि अपने घर के साथ- साथ अपने आस-पड़ोस, गली मुहल्ला, चौराहा, नदी-नाले से लेकर गंगा की सफाई तक का ध्यान रखना है। लेकिन यह कार्य भी उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को पाना।

जिस प्रकार ईश्वर को पाने की चाह में हम अपनी भक्ति के साथ अपनी पूरी शक्ति भी लगा डालते है ठीक उसी प्रकार अगर एक मजबूत, स्वच्छ और सुंदर भारत के निर्माण के लिए इस देश के प्रत्येक नागरिक को अपना श्रम, साधन और शक्ति का योगदान करना होगा। लेकिन यह भारत है। यहां मामला थोड़ा उल्टा पड़ जाता है।

सबको सिर्फ अपने की पड़ी रहती है। लोग अपना घर तो साफ-सुथरा रखना चाहते हैं। लेकिन अपने घर की गंदगी निकालकर पड़ोस में फेंक कर पड़ोसी धर्म निभाने का स्वांग भी रचते हैं। हद तो तब हो जाती है जब अपने घर से मुंह में पान की पीक दबाये बाहर निकलते ही पड़ोसी की दीवाल पर थूक मारते हैं। घर से निकलते ही जहां-तहां खड़े होकर पैंट की जिप खोलकर ‘पेशाब’ कर निकल लेते हैं। बिना इसकी परवाह किए कि मेरे सामने से गुजरने वाले हर एक व्यक्ति खासतौर पर स्त्रियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।

ये वही लोग हैं जो अपने घर में अपनी मां-बेटी और बड़े बुजुर्गों के सामने सभ्यता की चादर ताने सभ्य होने का दिखावा करते हैं; जिन्हें सिर्फ अपने घर को साफ रखने की चिंता सताती है। अगर प्रत्येक व्यक्ति यही सोच रखने लगे तो सोचिए देश की हालत क्या होगी..? जिसका अंजाम इन्हें भी भुगतना पड़ेगा; और भुगतना पड़ता भी है। लेकिन फिर भी कोई बदलाव नहीं आता। मुझे आशंका है कि मोदी के माह अभियान के बाद भी हमें यह न कहना पड़े कि- वही ढाक के तीन पात।

(रचना त्रिपाठी)

5 comments:

  1. देखते हैं, आगे क्या क्या होता है :)

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  2. अच्छा लिखा है। अभियान के लिये आशा कर रहे हैं कि अच्छा चलेगा।

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  3. बढिया है. इस अभियान में सबको सहयोग करना ही चाहिये.

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  4. इस अभियान में सबको सहयोग करना ही चाहिये

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