निठारी नरभक्षी कांड में अपराधी सुरेंद्र कोली को आखिरकार फांसी की सजा देने का समय आ गया मगर सालों बाद; जब इस समय तक अधिकांश लोगों के दिलों-दिमाग में इस जघन्यतम अपराध की परछाईं मात्र ही शेष बची होगी। इसे इस देश की लचर कानून व्यस्था की लेटलतीफी कही जाय या उस नरपिशाच की क्रूर हिंसा के शिकार बने बच्चों के परिवार वालों के प्रति विलंबित न्याय जो वंचित न्याय के समान है। उनकी आंखे तो अभी तक अपने मासूमों की बोटी-बोटी काटकर खा जाने वाले राक्षस को सजा दिलाने के इंतजार में पथरा ही गयी होंगी।
बीते सालों में हमारे समाज में जितने भी अपराध हुए उनकी सुनवाई भी कुछ इसी रफ्तार से होती रही है। यही कारण है कि समाज में आपराधिक प्रवृतियां बढ़ रही हैं। अपराध तो हर एक दिन, हर घंटे, हर मिनट पर हो रहा है। लेकिन दोषियों के पकड़े जाने के बाद उनपर कानूनी कार्यवाही की लेटलतीफी का नतीजा है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए समाज को सही संदेश नहीं मिल रहा है। आज भी इस तरह की घटनाओं से अनजान बहुत से निर्दोष और भोले-भाले बच्चे सामाजिक अपराध के शिकार हो रहे हैं।
माना न्याय का अपना सिद्धान्त है कि- सौ अपराधी सजा पाने से भले ही छूट जाँय मगर एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। यह बिल्कुल सही है। लेकिन जब सजा के पात्र अपराधियों को कोर्ट से तारीख पर तारीख मिलने लगे तो कहीं न कहीं वे अपने को उतना कसूरवार नहीं मानते जितना कि वे वास्तव में होते हैं। यह तंत्र ऐसे काम करता है कि अपने को निर्दोष साबित कर लेने की या कम से कम अंतिम फैसला दशकों तक टाले रखने की उनकी आशा बनी रहती है और वे इसके लिए कोई कसर नहीं छोड़ते। कभी-कभी तो उन्हें महंगे वकीलों की दलीलों से सफलता भी मिल जाती है। अपनी सफलता पर वे खुलेआम इसी समाज में अपनी बेहयाई का गुणगान भी करते रहते है।
आर्थिक अपराधों के मामले में तो इसके ऐसे उदाहरण हैं कि अपराधी ने भारी अपराध करने के बाद लगभग पूरी जिन्दगी सत्ता के शीर्ष पदों का मजा लिया और दोषसिद्ध हो जाने के बाद जेल चले जाने के बावजूद राजनैतिक अखाड़े में विधिवत् दाँव लगाता रहा और अपने उम्मीदवारों को जीत भी दिलाता रहा। जाहिर है कि जनता की स्मृति का लोप बहुत आसानी से हो जाता है।
इतने सालों बाद अगर इस अपराधी को जघन्य अपराध में फांसी की सजा मिली है तो कहीं न कहीं वो ऐसे लोगों के सामने जो इस प्रकरण से पूरी तरह से परिचित न हो, दया का पात्र भी बन सकता है। खासतौर पर ऐसे युवाओं के सामने जिनकी उम्र उस घटना के समय सिर्फ आठ से दस वर्ष रही होगी। आज की तारीख में वे सोलह से अठारह की उम्र में होंगे। इन्हें उन दिनों की खबरें याद नहीं होंगी जो कठोर से कठोर व्यक्ति का खून जमा देने वाली थी। उन्हें पता नहीं होगा कि कितने मासूमों के शरीर से काटे गये अंगों के टुकड़े उस आदमखोर के किचेन की खिड़की के पीछे बहने वाले नाले से बरामद किये गये थे।
आज तो सुरक्षाकर्मियों से घिरा हुआ फाँसी की सजा से भयाक्रान्त दिखता सुरेन्द्र कोली ही अखबारों के मुखपृष्ठ पर दिख रहा है। दीन-हीन और कातर। मुझे डर है कि उसकी रक्षा के लिए चन्द वकीलों के साथ-साथ मानवाधिकारवादी धंधेबाज दस्ता भी न कूद पड़े। काश सुप्रीम कोर्ट द्वारा बढ़ायी गयी फाँसी की मियाद एक सप्ताह से आगे न बढ़े।
(रचना त्रिपाठी)
आज तो सुरक्षाकर्मियों से घिरा हुआ फाँसी की सजा से भयाक्रान्त दिखता सुरेन्द्र कोली ही अखबारों के मुखपृष्ठ पर दिख रहा है। दीन-हीन और कातर।
ReplyDeleteसच जब मौत सामने खड़ी दिखाई दे तो कैसा भी दरिंदा हो उसे दीन-हीन और कातर बनते देर नहीं।
सहमत हूँ!
ReplyDeleteमाननीय न्यायाधीश महोदय ही कुछ प्रकाश डालेंगे। वैसे कहते तो हैं ही -जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड!
ReplyDeleteसहमत हूँ आपकी बात से पूरी तरह ...
ReplyDeleteन्याय समय पर होना ही अन्याय को रोकने में कारगर होता है।
ReplyDeleteसहमत !
इतने वर्ष लग गए कोली को सजा मिलाने में। उन बच्चों के माँ बाप की न्याय पथरा गयीं होंगी और फिर रातों रात फँसी रद्द - कोई तो खेल है।
ReplyDeleteआपकी बात से सहमत हूँ
ReplyDeletekafi kuch hai is blog me jo shikh de sake sunder......!!
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