Saturday, May 28, 2016

नयी फ्रॉक

दैनिक जागरण 'साहित्यिक पुनर्नवा' में छपी मेरी कहानी 'नई फ्रॉक'

ओसारे में बाँस की खाट पर पड़े-पड़े उसका पूरा शरीर अकड़ गया था। दो महीने हो गये थे घर में बचिया के ऊपर ‘महरानी जी’ का आसन आये। उसके बालों में महीने भर से कंघी नहीं पड़ी थी। चट-चट करते बालों ने आपस में लट्ट बाँध लिये थे। खाट पर सिर्फ़ दरी बिछी थी और उसके सिरहाने नींम के पत्ते वाली छोटी-छोटी कुछ टहनियां रखी गयी थीं। वहीं बगल में गोंइठा की आग लगातार सुलगती रहती थी। उसका पूरा शरीर लाल पड़ गया था। ऐसे में उसके ऊपर चन्दन और पियरी माटी का लेप लगाने के अलावा और कोई दवा भी नहीं दी जा रही थी। ऐसी मान्यता थी कि दवा देने पर देवी माँ और कुपित हो जायेंगी और बचिया जल्दी ठीक नहीं होगी। उसके शरीर पर पड़े फफोले सूखते, फिर हरे हो जाते। चेचक के साथ उसे बुखार भी रहने लगा था। उसके होठ सूखे सन्तरे की फांक की तरह मुरझा गये थे। कई दिन हो गये थे। वह न कुछ खाती, न पीती। बस टुकुर-टुकुर आने जाने-वालों को बेबस निहारती रहती।

घर में महरानी जी के आसन को अब काफ़ी लम्बा समय हो गया था। ऐसे में ‘बाबू’ की अम्मा की चिंता और बढ़ती जा रही थी। घर में दवा-दारु, लहसुन-प्याज और दाल में तड़का लगाना सब वर्जित था। भुनी हुई कलेजी और बाजार का समोसा-जलेबी बन्द हो जाने से बाबू की जीभ सुन्न होने लगी थी। फीका और उबला खाना बिल्कुल नहीं सुहा रहा था। बाऊजी को भी महीनों से घर का बना भोजन बेस्वाद लगने लगा था। वे अक्सर भोजन का एक निवाला मुंह में डालते ही बेटी सोनल पर चिल्ला पड़ते थे- " एक़रे लगे कवनो ढंग-सहूर नइखे, भोजन बनवले बाड़े कि आपन कपार... ले तेही खो "। कभी-कभी नाराज़ होकर भोजन की थाली उसके आगे ही पटक दिया करते। 

अम्मा को महरानी जी की शक्ति में जो अदम्य आस्था थी उसमें भयतत्व की प्रधानता थी। उन्हें घर के नेम-धरम और पूजा-पाठ में जो विश्वास था वह अशिक्षा और कर्मकांडी परंपराओं का पोसा-पाला हुआ था। लेकिन यह आस्था न हिलने वाली थी और विश्वास न डिगने वाला था। इसके अलावा उनके अंदर एक ग़ज़ब की अभिनय कला भी विद्यमान थी। अपनी अदाकारी से वो गुस्से में लाल-पीले हुए अपने ‘हुकुम’ को चुटकियों में मना लिया करतीं। बड़ी सफाई से वे पानी-पीढ़ा लगाती; बेना डुलाने बैठ जाती और ‘बड़ी माता’ के समय की आचार संहिता समझाते हुए सोनल का बनाया वही खाना उन्हें जिमा देती जो उन्हें थोड़ी देर पहले बेस्वाद लग रहा था।

लेकिन आज तो घर में खाने -पीने का बिल्कुल ही महौल नहीं था। बचिया की हालत देखकर सबको उबकाई आ रही थी। नाक दबाकर ही आना-जाना हो रहा था। बाबू तो घर छोड़कर बाजार का ही चक्कर लगा रहे थे। अलबत्ता महरानी जी के डर से बाहर का कुछ खाने की हिम्मत उन्हें भी नहीं थी। अभी बाबू और उसके पापा के खाने की चिंता गृहस्वामिनी को सता ही रही थी कि ऐन वक्त पर बचिया ने फिर उल्टी कर दी! उफ्फ...

इस बार उसके मुंह से लंबे-लंबे लच्छेदार जाला बाँधे हुए पीले रंग का मैगीनूडल्स जैसा कुछ बाहर निकला। पर बचिया ने तो ऐसा कुछ खाया ही नहीं था। बल्कि खाया तो उसने कुछ भी नहीं था। फिर यह लच्छे कैसे? 

दरअसल वे केंचुए थे जो उसकी आंत में न जाने कितने वर्षों से पल रहे थे। बढ़ते-बढ़ते उनकी संख्या इतनी ज्यादा हो गई थी कि अब उन्हें आँत में रहने लिए जगह नहीं बची थी। शायद इसीलिए उनमें से कुछ अपने लिए किसी और ठिकाने का रास्ता तलाशते उसके मुँह और गले के बीच में ही फँस गये थे। वह अपने एक हाथ से केंचुओं को खींच-खींच कर बाहर की तरफ़ झटक रही थी। वह इतनी कमजोर हो गयी थी खुद से उठकर उल्टी करने के लिये अपना मुंह खाट से बाहर नहीं लटका सकती थी। उसने उठने की कई कोशिशें की थी पर शरीर उसका साथ नहीं दे रहा था। उल्टी सूखी हुई थी। उसमें कोई तरल पदार्थ नहीं थे, बल्कि सिर्फ केंचुए थे। उन लच्छों का कुछ हिस्सा दरी पर भी गिर गया था। हरदम साथ ही रहने वाली उसकी बहन ‘छोटिया’ ने उसे खाट से उठाने की बहुत कोशिश की, पर वह अकेले उसके मान में नहीं आयी।

बचिया की उल्टी देखकर कहीं बाऊजी को भी खाते समय उबकाई न आ जाय इसलिये अम्मा ने पीढ़ा और पानी का लोटा उठाया और सोनल से 'बाऊजी का भोजन कोठरी में ही ले आ' कहकर भीतर चली गईं। हुकुम के लिए कमरे में पानी-पीढ़ा लगाकर हाथ में बेना लिये वे उनके सामने बैठ गयीं। सोनल ने हाँफ़ती-काँपती बचिया को इशारे से बताया कि अभी जल्दी ही आयेगी और भोजन की थाली हाथ में उठाये झट से ओसारे से कोठरी की तरफ चल पड़ी। जबतक बाऊजी खाना खाते रहे तबतक वह भी वहीँ दोहरावन पूछने के लिये खड़ी रही।

बचिया अपनी कातर नजरों से निरीह अपराध भाव से चारों तरफ निहार रही थी – इस आस में कि शायद कोई उसकी पीठ पर थोड़ी थपकी दे दे और उसकी सांस स्थिर हो जाय। पर अफसोस! सभी व्यस्त थे। 

कुछ देर बाद सोनल जूठी थाली के साथ बाहर निकली। थरिया नल की तरफ टरका कर बचिया के बिछावन की तरफ बढ़ी। एक हाथ से उसे सहारा देकर उठाते हुये छोटिया से दरी खींच लेने को कहा। दोनों ने मिलकर बचिया को पानी से धो-पोछकर साफ किया। उल्टी से खराब हो गयी दरी को धुल कर धूप में सूखने के लिये डाल दिया। बचिया दरी के सूखने तक निखहरे खाट पर लेटी रही। उल्टी हो जाने के बाद उसकी बेचैनी थोड़ी कम हो गई थी। लेकिन मूज की रस्सी से बुनी खाट के ताने-बाने उसके फफोलों को चुभने लगे। फिर भी वह असक्त लेटी रही। आँगन में तार पर टंगी दरी की तरफ टकटकी लगाकर देखती रही। कुछ ही देर में कमजोरी और थकान ने तकलीफ़ पर बढ़त बना ली और वह बेदम होकर ऊँघने लगी।


अगले दिन महरानी जी का आसन उठ गया। उनकी बिदाई की तैयारी हो रही थी। बड़े सबेरे ही बाऊजी स्नान के बाद सफेद मर्दानी लपेटे, काँधे पर जनेऊ पहने छोटिया-छोटिया हाँक लगाये जा रहे थे। उन्हें अपने बालों में कंघी करनी थी और कंघी थी कि मिल ही नहीं रही थी। 

अम्मा तो बिल्कुल भी खाली न थी। उन्होंने बचिया की पसन्द के बहुत से सामान मंगा रखे थे। शीशा-कंघी, तेल-साबुन, नहाने के वास्ते नया बाल्टी-मग्गा, तौलिया, चप्पल, लाल रिबन, मोतियों की माला, काजल, इस्नो-पाउडर, खाने के लिये उसकी पसन्द के फल, मेवे और मिठाइयां, चावल-दाल-आटे का इन्तजाम तो था ही। इतना ही नहीं, उसकी पसन्द के कपड़े भी मंगा रखी थीं। खासतौर पर नीले रंग की एक फ्रॉक जो बचिया को बहुत दिनों से पहनने का मन था। अम्मा का मन बचिया के लिए आज बड़ा भावुक हो रहा था। उसकी ज़रूरत और पसंद का कहीं कोई सामान छूट न जाय इसके लिए वह याद कर-करके एक-एक चीज मँगवा रही थी। अब वह सयानी जो हो गई थी। 

दूर खड़ी ‘छोटिया’ सारा तमाशा आँखे फैलाये देख रही थी। बचिया के लिए इतना सारा सामान देखकर वह उलझन में पड़ गयी थी। सोच रही थी- अम्मा आज ब‍उरा ग‍इलि बा का!  

छोटिया का मन आज घर के किसी भी काम में नहीं लग रहा था। वह आज अपनी अम्मा की कही कोई बात भी नहीं सुन रही थी। आज पहली बार उसके मन में बचिया के प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हआ था जो उसके चेहरे पर भी साफ-साफ झलक रहा था। भला क्यों न होती डाह? उसे भी अपने लिये नयी फ्रॉक और चप्पल चाहिये थी। वह अम्मा से कई बार बोल चुकी थी- "एक ठो फराक हमहूँ के मँगवा देतू त घटि ज‍इतू! हमरा के त हरदम दीदी लोग के छोड़ने-छाड़न पहिरे के मीलेला।"  इतनी मिन्नतों के बाद भी अम्मा ने उसके लिये कुछ नहीं मँगवाया था। उधर जिस कंचे को खेलने के लिये बचिया अक्सर पिट जाया करती थी आज वही कंचे भी उसके लिए अम्मा ने ख़ुद ही मँगवा लिए थे!

अपने साथ अम्मा का सौतेला व्यवहार देखकर छोटिया आख़िर कबतक  चुप रहती! उसका मन आज पक चुका था। उसने ठान लिया कि अब वह किसी की कोई बात नहीं सुनने वाली और ना ही किसी का कहा कुछ करने वाली है। अपनी बात मनवाने के लिये घर का सारा काम छोड़कर वह ठनगन करने लगी। अम्मा को उसकी इतनी बेरुख़ी बिल्क़ुल भी नहीं भा रही थी। वो भी इस मौक़े पर जब महरानी जी की पूजा पर घर में आस-पड़ोस की ढेरो महिलाएँ भी मौजूद थीं। वह उसके ऊपर दाँत पीसतीं, आँखें दिखातीं और उन महिलाओं से छुप-छुपाकर किसी बात पर उसकी पीठ पर एकाध चटाका भी लगा देतीं।

आज ओसारा और आँगन से लेकर घर का कोना-कोना गोबर से लीपा गया था। मानों घर की पूरी गंदगी आज साफ हो गई हो। सारी अल्लाय मिट गयी हो। बाँस की पुरानी खाट एक कोने में खड़ी कर दी गयी थी। चिलचिलाती धूप में आँगन के बीचो-बीच एक नई चारपाई बिछी हुई थी जिसपर नया गद्दा और चमचमाती चादर भी डाली गयी थी। अम्मा एक-एक कर सारा सामान उसके आस-पास सजा रही थीं। 

मौक़ा पाकर छोटिया ने उन सामानों में से वो नीला फ़्रॉक निकाल कर कहीं और छुपा दिया था। जब घर के सभी लोग आँगन में हो रही पूजा-पाठ में व्यस्त हो गये थे तो छोटिया ने उस फ़्रॉक को पहन लिया और ओसारे में पड़ोस की आयी महिलाओं के बीच दुबक कर बैठ गई। सहसा अम्मा की नज़र छोटिया पर पड़ गयी। उसके शरीर पर नया वाला फ्रॉक देखकर वो तमतमा उठीं। बाघिन की तरह उस पर झपट पड़ी-  "रे अभागिन...जल्दी निकालु इ फराक...  नाहीं त ओकर आतमा एहरे भटकी आ तोके चैन से ज़ीये नाइ दी"। यह कहते हुए उसके गाल पर तड़ातड़ तमाचा जड़ने लगीं।

छोटिया भी चोट खाकर चीत्कार कर उठी - अब हमहूँ नाइ जीअब... मुआ दे हमहूँ के... ए जियले से निम्मन बा अम्मा कि हमहूँ मरि ज‍इतीं... तब तऽ ते हमरो ख़ातिर नाया फराक मंगवते न...?

 (रचना त्रिपाठी)

Saturday, February 20, 2016

स्वच्छता अभियान की जय हो

कूड़े वाली गाड़ी आयी 
रम पम पम... पों पों पों
कूड़ा हम उठायेंगे, लखनऊ स्वच्छ बनायेंगे...
रम पम पम... पों पों पों
तेज आवाज में यह गाना गाती और भोंपू बजाती हुई यह गाड़ी सुबह 8.30 से 9 बजे के बीच मोहल्ले में आती तो सभी घरों से लोग कूड़े के थैले लेकर बाहर आ जाते। घरों के बच्चे तो कौतूहल से गाड़ी देखने और उसका संगीत सुनने ही निकल पड़ते थे। बच्चों के साथ बड़े भी कुछ देर के लिए इस नज़ारे को देखने बालकनी में निकल आया करते थे। इस पूरे खेल में कुल 10-15 मिनट लगते थे।
कूड़े-कचरे के उन्मूलन के लिये नगर निगम द्वारा की गयी यह पहल बहुत ही सराहनीय है, और कामयाब होते भी दिख रही है।

पर पिछले दो चार दिनों से यह रोचक संगीत सुनने को नहीं मिल रहा है। पता चला कि एक दिन हमारी ही बिल्डिंग के एक महोदय ने गाड़ी वाले को ज़ोर से डाँट कर भोंपू बजाने से मना कर दिया। उसके भोंपू बजाने से उनकी सुबह की नींद में खलल पड़ रहा था। तबसे वह नहीं बजाता। नाइट ड्यूटी करने वालों की सुबह की नींद भी जरुरी है। ऐसे में कूड़े वाले का शोर मचाकर घर घर से कूड़ा इकठ्ठा करने का अभियान इनकी नींद का सबसे बड़ा दुश्मन बन रहा था। सुविधा संपन्न लोगों को तो कमरे में विंडो ए.सी. की आवाज भी डिस्टर्ब कर देती है; भला इसके भोंपू की आवाज कैसे बर्दाश्त हो सकती है? अब गाड़ी रोज़ आती तो है पर चुपचाप। बच्चे दौड़कर बालकनी में उसे देखने नहीं जा रहे हैं। क्योंकि उन्हें पता ही नहीं चल पाता कि कूड़े वाली ट्राली कब आयी और चली गई।

आज मैंने तय समय पर बालकनी से नीचे झाँककर देखा तो ट्राली नीचे खड़ी थी। घरों से कूड़े के थैले आ रहे थे। सड़क पर ट्रैफिक की आवाजाही के शोर-शराबे के बीच ट्रॉली में कूड़े के ढेर से सटकर गहरी नींद में सोता हुआ कर्मचारी दिखा। यह किसी भी आवाज से बिल्कुल बेखबर, बेसुध सा पड़ा था। कोई शोर उसे डिस्टर्ब नहीं कर पा रहा था।

मेरे मोहल्ले की सड़कें और पार्क जिसपर कचरे का ढेर लगा रहता था अब ज़्यादा साफ़-सुथरी दिखने लगीं हैं। जिसने बच्चों  के अंदर भी सफ़ाई के प्रति नई जागरूकता पैदा कर डाली है। स्वच्छता के प्रति बड़ों से ज़्यादा बच्चों में उत्साह, उमंग और प्रतिबद्धता देखने को मिल रही है। घर में वे अब सफ़ाई के प्रति सजग तो रहते ही हैं बाहर भी इस अभियान को सफल बनाने में उनका बहुत ज़्यादा सपोर्ट मिल रहा है। राह चलते सड़क पर हम बड़ों से यदि ग़लती से भी कोई अवांछित पदार्थ गिर जाय तो वे फ़ौरन हमारी भी क्लास लगा देते हैं। बाहर कार की खिड़की से खरीदी हुई आइसक्रीम का रैपर वे संभाल कर घर तक लाते हैं और डस्टबिन में ही डालते हैं। अब टोके जाने के डर से बड़े-बूढ़े भी ऐसा करने को मजबूर हैं। यह सकारात्मक बदलाव मन में आशा जगाता है कि शायद अच्छे दिन ऐसे ही आएंगे।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, February 10, 2016

सेल्फ़ी की सनसनी

एक महिला अधिकारी के द्वारा अपनी निजता के अधिकारों की रक्षा के लिए उठाया गया कदम मीडिया को इसलिये नहीं सुहा रहा क्योंकि उसने उन्हीं के सवाल पर उल्टा सवाल दाग दिया। उस महिला का सवाल ही उसका सही जवाब था। पहले तो एक अन्जान युवक ने उस महिला के साथ जबरदस्ती सेल्फ़ी ली। जब उसे निजता के उलंघन में डीएम ने जेल भेज दिया तो अब मीडिया अपने ओछेपन पर उतर आई है। खुन्नस इतनी कि महिला के अधिकारों पर ही सवाल उठाने चल पड़ी है यह भांड मीडिया। यह भी एक प्रकार का अतिक्रमण ही तो है। एक स्त्री के मना करने के बावजूद उसके साथ युवक का सेल्फ़ी लेना, क्या यह आपत्तिजनक नहीं है? आपत्तिजनक क्या इसलिये नहीं होना चाहिये कि वह महिला एक प्रशासनिक पद पर विराजमान है?
उस बेवकूफ़ संस्कारहीन लड़के को जेल क्या हो गयी स्वयंभू समाज रक्षक चल पड़े सवाल दागने। जब स्वाभिमान की धनी अधिकारी ने अपने प्रतिप्रश्नों से पत्रकार महोदय की बोलती बंद कर दी तो मानो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ ही दरक गया। मीडिया वाले बिलबिला से गए हैं। उस महिला अधिकारी की कमाई की पड़ताल शुरू हो गयी है। कोई यह तो बताये कि इस घटना के पहले अख़बार वालों ने ऐसी पड़ताल क्यों नहीं की? साफ है कि सारा कोहराम बदले की भावना से मचाया जा रहा है, ताकि फिर कोई इन छुछेरों की बदतमीज़ी के खिलाफ़ खड़ा होने की हिम्मत न कर सके।
जरा सोचिये, अभी ये मामला एक साधारण महिला का नहीं है बल्कि एक तेज तर्रार पढ़ी-लिखी, शक्तिसंपन्न महिला का है तब हमारे तथाकथिक बुद्धजीवियों का ये हाल है; तो एक साधारण जीवन यापन करने वाली किसी आम महिला की इस समाज में क्या स्थिति होगी?
आये दिन अखबारों में दो-चार खबरें औरतों के साथ छेड़छाड़, अश्लील हरकत, ब्लैकमेलिंग, मारपीट, अपहरण, बलात्कार, एसिड अटैक व हत्या कर दिये जाने की घटनाएं पढ़ने को मिलती रहती हैं। सोशल मीडिया पर महिलाओं की तस्वीरों के साथ  किस तरह की छेड़छाड़ होती रही है, यह भी किसी से छुपा नहीं है। उस पर एक पत्रकार का यह सवाल पूछना कि मात्र एक सेल्फ़ी लेने की वजह से एक युवक को जेल भेज दिया गया, बेहद भद्दा और अश्लील कृत्य है? क्या उसे एक स्त्री की निजता के अधिकारों के बारे में कुछ भी नहीं पता जो पहले से आहत महिला के जले पर नमक छिड़कने चल दिए?
कितनी लड़कियां समाज में पुरुषों के हाथो पड़कर कथित तौर पर कलंकित होने की शर्म से आत्महत्या जैसा क्रूर अपराध कर डालती हैं। मिडिया में खबर आती भी है तो संदेह के बादल पीड़िता के चरित्र के इर्द-गिर्द ही घिरा दिये जाते हैं।  परिणाम यह है कि आज भी इस तरह की सैकड़ों खबरों का कोई पुरसाहाल नहीं होता।
ऐसे ही ढीठ युवकों ने राह चलते कितनी लड़कियों के दुपट्टे खींचे होंगे और न जाने कितनी लड़कियों के नितंबों पर भीड़ का सहारा लेकर अपने हाथ साफ किये होंगे। इसकी भनक उनके अपने परिवार वालों को भी नहीं मिली होगी। मीडिया तो बहुत दूर की चीज़ है। क्योंकि औरत जब तक नुच- चुथ न जाय मिडिया में कोई विशेष खबर नहीं बनती। ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं होती। ऐसी 'छोटी-मोटी' बातों से उनके कानों पर जू तक नहीं रेंगती।
लेकिन जब बात एक पब्लिक फिगर की हो और उसपर भी निशाने पर एक स्त्री हो, तो ये उसका छींकना तक मुहाल कर देते हैं। यहाँ तो एक महिला कलेक्टर ने अनजान व्यक्ति द्वारा अपने साथ सेल्फ़ी लेने का विरोध किया और नहीं मानने पर उसे जेल भेज दिया। भला इससे बड़ी खबर मीडिया के लिए और क्या हो सकती है? संभव है कि कल को यही अखबार वाले महिला डीएम और उस लड़के के साथ की सेल्फ़ी को चटपटी खबर बनाकर और संदेहास्पद स्थिति का संकेत देकर उसकी अस्मिता को उछालते और सुर्खियां भी बटोरते!
इसलिए यह अच्छा ही हुआ जो उस शरारती लड़के के साथ-साथ उस गैरजिम्मेदार पत्रकार को भी कठोर भाषा में उनकी सही जगह दिखाने का हौसला इस महिला अधिकारी ने दिखाया। उन्हें हमारा सलाम।
(रचना त्रिपाठी)

Friday, January 22, 2016

गिद्ध

जो चला गया वो कायर था। अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं जानता था। अपने पीछे अपने माता-पिता के सपने और भाई-बन्धुओं की उम्मीदों पर पानी फेर उन्हें जीवन भर के लिए रात-दिन सीने में चुभता हुआ एक शूल छोड़ गया। अपने दोस्तों के लिये वह बुरे सपने की तरह उनके भविष्य का हर वक्त पीछा करने वाला एक काला साया छोड़ गया। इस समाज में आने वाली नौनिहाल पीढ़ी के लिये सही-गलत के भ्रम में डालने वाला एक सवाल छोड़ गया।

अफसोस होता है ऐसे युवा पर जो अपनी मौलिक और नैतिक जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने के लिये आत्महत्या जैसा कुकृत्य कर बैठा। जीवन का दूसरा नाम ही संघर्ष है जिसपर विजय पाने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है। इसे बिना लड़े ही हार मान लेना हमारी युवा पीढ़ी को शोभा नहीं देता। क्योंकि यह बलिदानों की धरती रही है। बलिदान कायरता नहीं वीरता की निशानी है। अधिकारों के लिये आत्महत्या नहीं, लड़ाई जरुरी है, एक क्रांति जरुरी है, ऐसी क्रान्ति जिसका उदाहरण यह देश खुद है। उसका ऐसे चोरी से चले जाना इस सामाजिक ढांचे के ताने-बाने के लिये बहुत घातक है। हाँ, अलबत्ता धर्म, जाति व संप्रदाय को बाँटने वाली घटिया राजनीति में जरूर बहार आ गई है।

इनके लिये दलित हो या ब्राह्मण क्या फ़र्क पड़ता है? वे तो रोज पैदा होते हैं और आगे भी होते रहेंगे। लेकिन दलित ने आत्महत्या की- ऐसा सुनहरा अवसर उनके हाथ बार-बार नहीं लगने वाला। इसलिये अब वे बारी-बारी से उसकी चिता की आग में हवन करना शुरू कर उसकी राख से अपने-अपने पार्टी कार्यालयों की चौखट टीक रहे हैं। अगले चुनाव में उसपर नींबू-मिर्चे का तोरण बनाकर लटकायेंगे। ताकि अपनी गिरती राजनीति की नजर उतार सकें, बलैया ले सकें और इस टोटके से अपनी फिर उसी गन्दी राजनीति को  संवार सकें। इसी फेरे में अब राजनेता अपने वोट की भूख मिटाने के लिये रोहित की लाश पर अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाये हुये हैं।

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, September 22, 2015

अतिक्रमण पुलिसिया

आज मैंने अपनी आँखों से एक ऐसे अतिक्रमण का वाकया देखा जो किसी फुटपाथ पर जीविका कमाने वाले ठेले-खोमचे अथवा टाइपराइटर वाले ने नहीं किया। बल्कि उसी वर्दी वाले एक 'लोकसेवक' ने किया जिस वर्दी को पहनकर अभी हाल ही में एक दरोगा जी अतिक्रमण हटाने के अति उत्साह में टाइपिस्ट के साथ दुर्व्यवहार करने के जुर्म में निलंबित हुए हैं।

यह लोमहर्षक घटना मेरी आँखों के सामने हुई। बल्कि मैं खुद ही इस पुलिस वाले की ज्यादती का शिकार होने से बाल-बाल ही बची। मैं अपनी सहेली से मिलने स्कूटी से जा रही थी तभी 100 न. हेल्पलाइन की पीसीआर गाड़ी बगल से गुजरी। इसमें ड्राइविंग सीट पर एक खाकी वर्दी वाला सवार था जो घोषित रूप से जनता का मददगार था। उसने भरी ट्रैफिक में अपनी गाड़ी को पूरी स्पीड में मेरी गतिशील स्कूटी के ठीक सामने लाकर अचानक घुमाने की कोशिश की। मैंने झट से ब्रेक लगाकर अपनी स्कूटी को जैसे-तैसे बचा लिया। लेकिन अगले ही क्षण उसने बिना हार्न बजाये भीड़ को चीरते हुये यू-टर्न लेने की कोशिश की और अपने सामने  से गुजर रहे एक बाइक सवार को ठोक दिया। बाइक सवार गिर पड़े।

पीछे से आ रही एक दूसरी बाइक भी गिरते-गिरते चिचिया कर संभल गई। चूँकि बाइक वाले नयी उम्र के लड़के थे इसलिये मुझे लगा कि कुछ नोंक-झोंक होगी और मामला गंभीर हो जाएगा। बाइक वाले युवक ने अपनी बाइक को तेजी से उठाते हुये बहुत गुस्से में पीछे पलट कर देखा भी। लेकिन पुलिस की गाड़ी पाकर उसके चेहरे का पारा जितनी तेजी से ऊपर चढ़ा था उससे दोगुनी रफ़्तार से नीचे गिर गया। पुलिसवाले को मैंने एक बार ऊँची आवाज में बताने की कोशिश भी की- ''आप सड़क और नियम के साथ जबरदस्ती कर रहे हो।" लेकिन वहाँ मेरी बात वह बन गयी जिसे नक्कारखाने में तूती की आवाज कहते हैं।

मुझे ऐसा लगा वो महाशय अपनी गाड़ी का हूटर बजाते और बाइक वालों को घूरते अपनी सीट पर बैठे ट्रैफिक नियम के साथ छेड़छाड़ का आनन्द उठा रहे थे। सड़क और उसके नियमों के साथ पुलिस द्वारा किया गया ऐसा बर्ताव क्या किसी अतिक्रमण से कम है? यह देखकर मैं तो सन्न रह गई कि इतना खतरनाक स्टंट करने और बाइक गिरा देने के बाद भी उस पुलिस वाले के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी और सहम कर अपराध बोध से ग्रस्त होना उन लड़कों के हिस्से में आया।

मुझे लगा था कि लड़को में अभी नया खून हैं; जरूर अपना हिसाब वर्दी वाले रंगबाज से चुकता कर ही लेंगे पर मैं गलत थी। मैंने देखा बाइक पर सवार नौजवान लोगों का गरम खून ऐसा ठंडा हुआ कि मानो उसे नार्मल करने के लिए सिंकाई करनी पड़ेगी। वे अपनी बाइक जल्दी से साइड में लगाकर काठ बन गये नजर आ रहे थे।

ऐसी दुर्घटना अगर किसी आम नागरिक की गाड़ी से हुई होती तो मामला इतना आसान न होता और यही पुलिस उसे अपने कायदे से निपटा भी रही होती। अतिक्रमण का मैंने कभी समर्थन नहीं किया। पर ऐसे अतिक्रमण का क्या किया जाना चाहिये जिसका संबंध दूसरों के जान-माल की हानि से हो, और नुकसान पहुँचाने वाले स्वयं कानून के रखवाले हो।

अभी बीते दो दिन पहले की बात है एक दरोगा साहब को अखिलेश सरकार ने इसलिए निलंबित कर दिया क्योंकि उन्होंने फुटपाथ पर बैठे किसी गरीब की टाइपराइटर अपने पैरों से मार-मार कर तोड़ दिया। अतिक्रमण के जुर्म में अगर दरोगा जी ने उसे वहाँ से हटाने के लिए साम-दाम दण्ड-भेद का फार्मूला अपनाया तो उन्हें कौन रोक सकता था? उन्हें तो ऐसे ही बहुत से अधिकार मिले हैं जो वे बिना किसी के इजाजत के खुद प्रयोग कर सकते हैं। यह तो भला हो खबरिया चैनेलों और सोशल मीडिया का जो सरकार के ऊपरी माले तक खबर पहुँच गयी और मुख्यमंत्री जी ने संवेदनशीलता का परिचय देकर उस आदमी की मज़बूरी, गरीबी और लाचारी पर तरस खाते हुये आनन-फानन में उसका टाइपराइटर नया कर दिया।

सुना है उसके उत्पीड़न की क्षतिपूर्ति के लिए एक लाख की आर्थिक सहायता भी दी गयी है। यह कदम आम जनमानस के लिये जरूर राहत भरा होगा।  पर मेरे लिये यह टोकेनबाजी के अलावा कुछ भी नहीं है। फुटपाथ छेंककर बैठे दूसरे लोग सोच रहे होंगे की काश दरोगा की लात उनके ऊपर भी पड़ गयी होती तो मुख्यमंत्री की राहत आ जाती। सीएम साहब ने दरोगा जी को निलंबित कर उस गरीब को नये टाइपराइटर से उपकृत कर जनता के दिलों में अपनी जगह तो बना ली! पर बड़ा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि अतिक्रमण और विशेष तौर पर पुलिसिया अतिक्रमण से निजात पाने के लिये क्या यह सरकार कोई पुख्ता प्रबन्ध कर पाने में सक्षम भी है? क्या इसकी इच्छाशक्ति भी दिखायी देती है?

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, September 2, 2015

बाबू बनल रहें

दैनिक जागरण 'साहित्यिक पुनर्नवा' में 'बाबू बनल रहें'

सात बहनों के बीच उनके इकलौते भाई थे-बाबू। बहुत देवता-पित्तर को पूजा चढ़ाने और देवकुर लीपने के बाद कोंख में आये थे बाबू। पंडी जी ने तो जन्म मुहूर्त के अनुसार दूसरा नाम रखा था लेकिन पूरा परिवार प्यार से उन्हें ‘बाबू’ ही कहता था। सभी बहनें उनसे अत्यधिक प्यार करती थीं। राखी के पर्व पर उनकी पूरी कलाई रंग-बिरंगी राखियों से भरी रहती थी। चार-पांच साल की उम्र में ही वो अपने दो-तीन भांजो के मामा बन चुके थे। उनकी बहनों द्वारा बाबू की देख-भाल और सेवा-सुश्रुषा देखकर मुझे कुढ़न होती थी। ‘बाबू’ की पसन्द-नापसंद का ख्याल रखना उनकी बहनों की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था। 'छोटिया' और 'बचिया' उम्र में बाबू से कुछ ही बड़ी थीं। छोटी करीब तीन साल और बचिया सिर्फ डेढ़ साल बड़ी रही होगी। वे दोनों चौबीस घण्टे परछाई की तरह बाबू के पीछे लगी रहतीं। सबसे बड़ी तीन बहनों की शादी हो चुकी थी। दो बहनें घर के चूल्हा-चौका झाड़ू पोछा बर्तन आदि कामों में लगी रहती थी।
माता जी का बच्चे पैदा कर लेने के बाद एकसूत्री कार्यक्रम अपने पति के पास बैठकर ठकुरसुहाती गाना था। वे 'मालिक' की सेवा-टहल के लिये अपनी लड़कियों का नाम लेकर हमेशा हांकते-पुकारते रहने में ही थक जाती थीं। संवेदना विहीन, भावशून्य, निष्क्रिय चेहरा उनकी पहचान थी। उनके लिए शीत वसंत में कोई फर्क नहीं था। मैंने उन्हें कभी हँसते हुये नहीं देखा। न कभी आँखे ही नम हुई। सुना था कभी-कभार बाबू की हरकतें उन्हें मुस्कराने पर मजबूर कर देती थीं।
बाबू को छोड़कर बाकी बेटियाँ अपने पिता को बाऊजी पुकारती थी; लेकिन बाबू उन्हें पापा कहा करते थे।

पापा कहीं बाहर से लौटते तो छोटिया और बचिया बाबू की पूरी दिनचर्या उनसे हंस-खिलखिला कर बताना शुरू कर देतीं - बाबू ने क्या खाया; क्या पिया; क्या पढ़े; आज कहाँ-कहाँ घूमने गए; उनके पैरों में चप्पल किसने पहनाया; उनकी किन-किन बच्चों से लड़ाई हुई; किस-किसको इन दोनों ने बाबू के लिए मारा; किसके-किसके घर शिकायतें लेकर गयीं; और आज बाबू को दिन में क्या-क्या खाने का मन हुआ...? कभी समोसे-पकौड़ियां तो कभी जलेबियां ! यह सब सुनकर अधेड़ उम्र के पापा की आखों में चमक आ जाती।

चूँकि उनका घर बीच बाजार में ही  पड़ता था इसलिए बाबू की फरमाइश सुनते ही उनके खाने के लिए गर्मागरम समोसे, पकौड़ियाँ और जलेबी तुरन्त आ जाया करती थी।
बाबू के लिए पापा की आसक्ति देखते ही बनती थी। एक दिन गोधूलि बेला में बाबू ने कहा- "पापा, जब मैं सीढ़ी से चढ़कर छत पर आ रहा था तो मैंने अपने पैर के नीचे सांप देखा।” उस दिन उनके पापा की थूक गले में ही अटक गई। बदहवास से हो गये। पहले तो बाबू का पैर उलट-पुलट कर चारो तरफ  बारीकी से देखा कि कहीं साँप ने काटा तो नहीं है...! बाबू ने बताया भी था कि सांप ने काटा नहीं है, फिर भी उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।
फिर पापा का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। कड़कती आवाज में फट पड़े- “छोटिया... बचिया... आव इहाँ”। जैसे ही फरमान जारी हुआ दोनों जिन्न की तरह वहां तत्काल प्रकट हो गई लेकिन बाप का रौद्र रूप देखकर दोनो सहम गयीं। चेहरे का भाव बता रहा था कि जरूर बाबू के प्रति कोई चूक हो गयी है। संयोग से बाबू के पैर में चप्पल नहीं थी। बाऊजी ने उन दोनों की कड़ाई से क्लास लेनी शुरू की..."कहाँ थी तुम दोनों? बाबू के पैर में चप्पल नहीं है... सीढ़ी पर साँप था... कहीं काट लेता तो? जी भर डांट लेने के बाद बोले- जल्दी जाओ नीचे से 'हरिहर मरिचा' लेकर आओ...। मैं भी उनके पास खड़ी थी। यह सुनते ही झट से बोल पड़ी- पर चप्पल तो इन दोनों के पैर में भी नहीं है और नीचे जाने का रास्ता भी वही है। साँप ने इनको काट लिया तो? लेकिन उस समय मेरी कौन सुनता? सही बात तो ये है कि उन दोनों को मैंने पहले भी कभी चप्पल पहने हुए नहीं देखा था।

बाबू के लिए उनकी चिन्ता और बाबूजी के आदेश का प्रभाव ऐसा था कि वे उल्टे पाँव तेजी से नीचे की ओर सीढ़ियों पर दौड़ पड़ीं। कुछ उतनी ही तेजी से जितनी बाबू के लिए बाजार से कागज के ठोंगे में समोसे और पकौड़ियाँ लाने के लिए दौड़ती थीं। इस दौड़ में कभी-कभी तो उन्हें ठोकर खाकर जमींन पर मुँह के बल गिरते भी देखा था मैंने। कभी-कभी कागज के दोने में लाये जाते बाबू के मन पसन्द समोसे जलेबियाँ या पकौड़ियाँ इन बच्चियों को ठोकर लगने के कारण जमीन पर गिर जाते और उनपर धूल की परत चढ़ जाती। ऐसे में उनके पापा बाबू को वह खिलाने से सख्त मना कर देते थे। फिर डांट-फटकार लगाकर दुबारा उन्हें पैसे देकर सावधानी से लाने की हिदायत देते।तब यह डाँट उन लड़कियों को बुरी नहीं लगती क्यों कि उसके बाद उनकी जिह्‍वा को भी कुछ स्वाद मिल जाता। बाबू का सामान लाने के लिये कभी-कभी दोनों बहनें आपस में ही भिड़ जाया करती। यहाँ तक कि गिरी हुई पकौड़ियाँ कूड़े तक फेंकने के लिए भी उनके बीच मार-पीट हो जाती।

पंडित जी को किसी ने बता दिया कि रोहू का मूड़ा, अंडे की जर्दी और बकरे की कलेजी से शरीर में ताकत आती है और दिमाग बढ़ता है।फिर तो यह बाबू के लिए रोज का उठौना हो गया।

बाबू के बाबा अपने गाँव-जवार के नामी ज्योतिषी और कर्मकांडी पंडित थे।उनके घर की रसोई में बिसइना लाना वर्जित था। लेकिन बाबू के लिए इंतजाम हो गया। बाजार से एक आदमी कलेजी के चार-पाँच टुकड़े रोज घर दे जाया करता था। उसे घर की रसोई से दूर आँगन में भुना जाता था। यह काम छोटिया किया करती थी। कलेजी को खूब साफ धुलकर; नमक लगाकर छोटी स्टोव की आंच पर भुनती। यह बहुत कौशल का काम था। उसकी नन्हीं सी उँगलियाँ यह काम करते-करते बहुत अभ्यस्त हो गई थीं। फिर भी उसमें से एक-आध कलेजी कभी जल भी जाया करती थी।

बचिया वहीं खंभे से चिपककर खड़ी-खड़ी बाबू को भुनी हुई कलेजी खाते देख निहाल होती रहती। उसे अपलक निहारने के अलावा क्या करती भला! अच्छी भुनी हुई कलेजियां बाबू खा जाते और जली हुई छोड़ देते। यह बची हुई कलेजी इन दोनो बहनों के लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं होती। किसी-किसी दिन बचिया कलेजी को खुद ही पकाने के लिये छोटी से लड़ जाया करती।

एक दिन आँगन में बहुत पानी बरस रहा था। ओसारे में खाट पर बाबूजी बैठे हुए थे। पानी रुकने का नाम नहीं ले रहा था, बाबू को कलेजी खिलाने में अबेर हो रही थी इसलिए वे छोटिया से बोले- "यहीं स्टोव जला कर कलेजी भून दे।" छोटिया खाट के पास ही कलेजी भूनने के काम पर लग गई। वह बहुत सावधानी बरत रही थी फिर भी एक टुकड़ा कलेजी भभकते स्टोव की आंच पर लगकर काली हो गयी थी। बाबू ने उसे नहीं खाया। दूर से यह देखकर खुश हुई बचिया दौड़कर आयी लेकिन उससे पहले ही छोटी ने पूरा टुकड़ा अपने मुँह में डाल लिया। बचिया को उसकी यह अनदेखी देखी न गई और चिल्लाकर बाऊजी से बोल पड़ी-" बाऊजी, छोटिया जानिके करेजिआ जरा देहलस हे कि बाबू छोड़ि दीहें आ ऊ खाए के पा जाई!"
बाबूजी के गुस्से का पारा चढ़ गया। अपनी आँखे लाल किये चूल्हे के पास जलावन के लिए रखी आम की लकड़ी के ढेर से एक च‍इला उठाकर पिल पड़े। डर से थरथर काँपती छोटिया चिग्घाड़ मारकर बाबूजी के पैरों से लिपट गयी-   "बाबूजी... अबकी माफ क दीं... अब कब्बो नाही जराइब!"

Monday, August 17, 2015

प्रेम बनाम विवाह

स्त्री हो या पुरुष- दोनों के जीवन में प्रेम का होना बहुत जरुरी है! प्रेम- यह वो संजीवनी है जिसे पाने की चाह शायद हर प्राणी में होती है।

पर प्रेम में पागल होकर प्रेमी के साथ विवाह कर लेना बहुत समझदारी नहीं होती। क्योंकि प्रेम और विवाह दोनों की प्रकृति अलग-अलग है। इसलिए प्रेम को विवाह के खाके में फिट करना थोड़ा कठिन हो जाता है। तो जरुरी नहीं है कि जिससे प्रेम करें उससे विवाह भी करें। क्यों कि प्रेमविवाह में विवाह के बाद पवित्र प्रेम की जैसी आशा होती है वह कहीं न कहीं विवाह के पश्चात क्षीण होने लगती है।

देश की अदालत ने लिव-इन को क़ानूनी मान्यता भले ही दे दी हो, लेकिन हमारी सामाजिक बनावट ऐसी नहीं है जहाँ प्रेम करने वालों को शादी किये बिना विशुद्ध प्रेम की मंजूरी मिलती हो। इसलिए प्रेमीयुगल इस संजीवनी को पाने की चाह में प्रेम की परिणति विवाह के रूप में करने को मजबूर हो जाते हैं; और विवाह हो जाने के बाद वैसा प्रेम बना नहीं रह पाता।

दूसरी तरफ हमारे समाज में ऐसे युगलों की भी बहुत बड़ी संख्या है जिनके जीवन में प्रेम का आविर्भाव ही शादी के बाद होता है। अरेंज्ड मैरिज की इस व्यवस्था को समाज में व्यापक मान्यता प्राप्त है। इसमें साथ-साथ पूरा जीवन बिताने के लिए ऐसे दो व्यक्तियों का गठबंधन करा दिया जाता है जो उससे पहले एक दूसरे को जानते तक नहीं होते। फिर भी अधिकांशतः इनके भीतर ठीक-ठाक आकर्षण, प्रेम और समर्पण का भाव पैदा हो जाता है। गृहस्थ जीवन की चुनौतियों का मुकाबला भी कंधे से कंधा मिलाकर करते हैं। संबंध ऐसा हो जाता है कि इसके विच्छेद की बात प्रायः कल्पना में भी नहीं आती। ऐसी आश्वस्ति डेटिंग करने वाले प्रेमी जोड़ों में शायद ही पायी जाती हो। वहाँ तो कौन जाने किस मामूली बात पर रास्ते अलग हो जाँय कह नहीं सकते।

प्रेम उस मृगनयनी के समान है जिसे पाकर कोई भी फूला न समाये लेकिन शादीशुदा व्यक्ति के लिए है यह अत्यंत दुर्लभ है। यह मत भूलिए कि विवाह उस लक्ष्मण रेखा से कम नहीं जिससे बाहर जाने की तो छोड़िये ऐसा सोचना भी भीतर से हिलाहकर रख देता है।

विवाह के पश्चात् स्त्री पुरुष के बीच प्रेम का अस्तित्व वैसा नहीं रह जाता जैसा कि विवाह से पहले रहता है। प्रेम का स्वभाव उन्मुक्त होता है और विवाह एक गोल लकीर के भीतर गड़े खूंटे से बँधी वह परम्परा है जिसके इर्द गिर्द ही उस जोड़े की सारी दुनिया सिमट कर रह जाती है। फिर विवाह के साथ प्रेम का निर्वाह उसके मौलिक रूप में सम्भव नहीं रह जाता। प्रेम का विवाह के बाद रूपांतरण सौ प्रतिशत अवश्यम्भावी है।


विवाह और प्रेम को एक में गड्डमड्ड कर प्रेमविवाह कर लेने वालों की स्थिति वेंटिलेटर पर पड़े उस मरीज की भाँति हो जाती है जिसकी नाक में हर वक्त ऑक्सीजन सिलिंडर से लगी हुई एक लंबी पाइप से बंधा हुआ मास्क लगा रहता है। यह प्रेम-विवाह में प्रेम-रस का वह पाइप होता है जिसपर यह संबंध जिन्दा रहता है। जिसके बिना चाहकर भी दूर जाने की सोचना खतरे को दावत देने जैसा है। सिलिंडर से लगी वह पाइप सांस लेने में सहायक तो जरूर बन जाती है पर वह स्वाभाविक जिंदगी नहीं दे पाती। अगर जिंदगी बची भी रह जाय तो शायद उसे उन्मुक्त होकर जीने की इजाजत न दे।

(रचना त्रिपाठी)