Thursday, October 30, 2014

क्या औरत की भी माँ होती है?

औरत होकर ये तेवर
किसने दी तुम्हें इजाजत 
चीखने -चिल्लाने की
ये तो है मर्दों का हुनर

क्यों रुँधता है गला 
सूख जाती हैं आँखे 
खुद ही तो चुना था अपना धन 
रीति-रिवाज और सामाजिक बंधन

कहाँ है बेटी तेरी माँ 
जो पोछती तेरे आंसू 
भरते तुम्हारे भी जख़्म

मत भर झूठा दंभ कि 
तुम्हारी भी “माँ" होती है
अगर यह सच है तो बता 
क्यों चुपचाप यूं 
मझधार में अकेले ही रोती है

आगे से तू भी 
बेटी की माँ बन
उसे पराया न बना
अधिकारों की बात मत कर

पहले बन एक ‘औरत’ की माँ 
जो भरती है आत्मविश्वास 
देती है संबल 
सुख-दुख में 
देती है साथ, और
अपना कहने का हक

(रचना त्रिपाठी) 

 

Wednesday, October 1, 2014

भारत में सफाई- बड़ी मुश्किल है भाई

आज कल जिस तरह सफाई अभियान का जोश सरकार से लेकर सरकारी महकमें तक दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि सच में गांधी जी का सपना साकार होने जा रहा है। शरीर, मन और मस्तिष्क तीनों के विकास के लिए देश से कूड़ा- कचरा और गंदगी का उन्मूलन होना बहुत जरूरी है। जब तक इस देश का प्रत्येक नागरिक शरीर से स्वस्थ, मन से मजबूत और दिमाग से दुरुस्त नहीं होगा तब तक इस अभियान का उद्देश्य पूरा नहीं हो पायेगा। यह जिम्मेदारी सिर्फ ‘मोदी’ की नहीं है।

हमारे यहां एक कहावत कही जाती है- “कौन अभागा जे के राम न भावें” मतलब ये कि शायद ही कोई ऐसा हो जिसे ईश्वर को पाने की चाह न हो। ठीक वैसे ही साफ-सफाई को लेकर प्रत्येक नागरिक के मन में यही चाह होती है कि हमारा घर और आस-पास का वातावरण हमेशा स्वच्छ बना रहे। लेकिन इसे बनाये रखने के लिए हमारी चाहत ही काफी नहीं है बल्कि सबका दायित्व भी है कि वे इसके लिए पूरे मनोयोग से यह संकल्प लें कि अपने घर के साथ- साथ अपने आस-पड़ोस, गली मुहल्ला, चौराहा, नदी-नाले से लेकर गंगा की सफाई तक का ध्यान रखना है। लेकिन यह कार्य भी उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को पाना।

जिस प्रकार ईश्वर को पाने की चाह में हम अपनी भक्ति के साथ अपनी पूरी शक्ति भी लगा डालते है ठीक उसी प्रकार अगर एक मजबूत, स्वच्छ और सुंदर भारत के निर्माण के लिए इस देश के प्रत्येक नागरिक को अपना श्रम, साधन और शक्ति का योगदान करना होगा। लेकिन यह भारत है। यहां मामला थोड़ा उल्टा पड़ जाता है।

सबको सिर्फ अपने की पड़ी रहती है। लोग अपना घर तो साफ-सुथरा रखना चाहते हैं। लेकिन अपने घर की गंदगी निकालकर पड़ोस में फेंक कर पड़ोसी धर्म निभाने का स्वांग भी रचते हैं। हद तो तब हो जाती है जब अपने घर से मुंह में पान की पीक दबाये बाहर निकलते ही पड़ोसी की दीवाल पर थूक मारते हैं। घर से निकलते ही जहां-तहां खड़े होकर पैंट की जिप खोलकर ‘पेशाब’ कर निकल लेते हैं। बिना इसकी परवाह किए कि मेरे सामने से गुजरने वाले हर एक व्यक्ति खासतौर पर स्त्रियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।

ये वही लोग हैं जो अपने घर में अपनी मां-बेटी और बड़े बुजुर्गों के सामने सभ्यता की चादर ताने सभ्य होने का दिखावा करते हैं; जिन्हें सिर्फ अपने घर को साफ रखने की चिंता सताती है। अगर प्रत्येक व्यक्ति यही सोच रखने लगे तो सोचिए देश की हालत क्या होगी..? जिसका अंजाम इन्हें भी भुगतना पड़ेगा; और भुगतना पड़ता भी है। लेकिन फिर भी कोई बदलाव नहीं आता। मुझे आशंका है कि मोदी के माह अभियान के बाद भी हमें यह न कहना पड़े कि- वही ढाक के तीन पात।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, September 17, 2014

मर्दानी से खुशफहमी न पालें

मर्दानी फिल्म में रानी मुखर्जी ने औरत होते हुए भी जब बड़े-बड़े मुस्टंडो को मार-मार के बेहाल कर दिया, उनके हाथ-पैर तोड़कर जमीन पर लिटा दिया तो हॉल में तालियाँ बजाने वालों की कमी नहीं थी। खुश तो हम भी हुए; लेकिन बस थोड़ी देर के लिए। बाहर निकले तो जमीनी सच्‍चाई के बारे में सोचने लगे जो बिल्कुल अलग है।

जब मैं कक्षा ग्यारह में पढ़ती थी, अपने-आप को पी.टी. ऊषा से कम नहीं समझती थी। कहने का मतलब मैं धाविका थी। स्कूल की एथलेटिक्स चैम्पियन; जिससे मुझे यह गलतफहमी हमेशा बनी रहती थी कि मैं अपने भाइयों से बहुत ज्यादा ताकतवर हूँ। बात–बात पर अपने भाइयों को चैलेंज दिया करती थी- मुझसे तेज दौड़कर दिखाओ..चलो मुझसे पंजा लड़ाओ। तब वे शायद मुझे खुश करने के लिए कह दिया करते थे - “तुम मुझसे ज्यादा तेज दौड़ती हो और ताकतवर भी हो, हमें हरा दोगी।” यह कहकर वे मुझसे रेस करने से पहले ही हार मान जाया करते थे। मैं इस मुगालते में लम्बे समय तक अकड़ी रहती थी। मुझसे मात्र डेढ़ साल का छोटा था मेरा भाई जिससे मेरे अक्सर दो-दो हाथ हो जाया करते थे।

एक दिन की बात है। उससे मेरी खूब जमकर लड़ाई हुई। मैं लगातार उसे अपने दोनो हाथों से मुक्‍के जड़ी जा रही थी। घर में पापा की सख़्त हिदायत थी कि कोई भी छोटा (भाई/ बहन) अपने से बड़े के ऊपर हाथ नहीं उठाएगा। पापा के इस निर्देश की मुझे याद दिलाते हुए वह कह रहा था पापा ने ऐसा कहा है इसलिए मैं तुम्हारे ऊपर हाथ नहीं उठा रहा हूँ; वरना...। मैं फिर भी नहीं रुकी तो उसने आखिरी चेतावनी दी, “दीदी, मै जब तुम्हें मारुंगा तो नानी याद आ जाएंगी।” मैं बहुत आश्वस्त थी कि वह मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाएगा और अगर उठाता भी है तो मैं उसपर भारी पड़ूंगी। लेकिन मैं गलत थी। जब मेरी मार भाई के बर्दाश्त से बाहर हो गई तो उसने मेरा दाहिना हाथ कलाई से पकड़ लिया, ऐंठकर मेरी पीठ के पीछे कर दिया और धम्म से दे मारा एक ‘जोरदार मुक्का’ मेरे पीठ पर।लड़ाईबस, फिर क्या था... एक ही मुक्‍के में मेरे अंदर की सांस अंदर और बाहर की सांस बाहर ही अटक गई। मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया और मुझे ‘दिन में ही तारे नजर आने’ का वास्तविक अर्थ पता चल गया। मेरी हालत देखकर वह अपराधबोध से भर उठा। घबराकर वह मेरी पीठ सहलाने लगा और सफाई देते हुए बोला- “कितनी बार तुमसे कहा था कि मुझसे मत लड़ा करो.. देखो मुझे भी तुमने बहुत मारा है.. मैं तुम्हें मारता नहीं.. मुझे बहुत चोट लग रही थी.. और तुम हो कि मान ही नहीं रही थी... तो मैं क्या करता...”

मेरे बड़े भईया कुछ दूरी पर बैठे इस महाभारत का आनंद ले रहे थे। हमारी लड़ाई कब खेल-खेल से मार-पीट में बदल जाय इसका कोई ठिकाना नहीं था। ऐसे में मम्मी की भूमिका सिर्फ इतनी होती कि जब हममें वाद- विवाद होता तो वे हमको कहती- “जब तुम दोनों लड़ते-लड़ते हाथ-पैर तोड़-फोड़ लेना तब मुझे बुला लेना। आकर मैं दोनो की मलहम-पट्टी कर दूंगी। जरूरत पड़ी तो डॉक्टर के यहां भी ले जाउँगी। क्योंकि यहां तो मामला बराबरी का है। दोनो में से कोई मेरी सुनने वाला नहीं है।”

इस चोट के बाद मन ही मन मैने कसम खायी कि आज के बाद मैं अपने भाइयों के ऊपर हाथ नहीं छोड़ूंगी। गाल चाहे जितना बजा लूँ।

आज भी सोचती हूँ कि मैने उससे कम रोटियां नहीं खायी थी; और ना ही मम्मी ने मुझसे छुपाकर उसे ज्यादा दूध-दही खिलाया-पिलाया था। लेकिन मैं उससे बड़ी होते हुए भी जीत नहीं पायी। उसका एक मुक्‍का मेरे सौ मुक्‍कों पर भारी पड़ा; क्योंकि मैं उसके जैसी ताकतवर नहीं थी। यहाँ मेरी माँ ने कोई नाइंसाफी नहीं की थी। मुझे बनाने वाले ने ही मुझसे पक्षपात किया था। मैं जब भी उसके पास जाउँगी तो उससे इस बात की शिकायत जरूर करुँगी। यह बात भी सत्य है कि अगर ईश्वर ने लड़कों जैसी शारीरिक ताकत लड़कियों को भी दी होती तो इस देश का मंजर कुछ और होता। फिल्मों में एक ताकतवर स्त्री का अभिनय करना हकीकत से बिल्कुल अलग है। अगर सच में वैसा होता तो हर एक माँ अपनी बेटी को खूब खिला-पिला कर ‘‘मर्दानी” जरूर बनाती।

उस दिन को हम आजतक नहीं भुला पाए। इतने सालों बाद भी हम भाई-बहन जब मिलते हैं तो वह मुझे अपने उस एक मुक्‍के की याद जरूर दिलाता है। मैं उसे यह कहकर टाल दिया करती हूँ कि वह ऊधार है मेरे ऊपर, घबड़ाओ नहीं मौका मिलते ही चुका दुंगी। अब तो इसपर खूब ठहाके लगते हैं।मर्दानी

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, September 10, 2014

नरभक्षी को फाँसी देने में विलंब ठीक नहीं

                                                                    नरभक्षी                                                                                           नरभक्षी डेली न्यूज

निठारी नरभक्षी कांड में अपराधी सुरेंद्र कोली को आखिरकार फांसी की सजा देने का समय आ गया मगर सालों बाद; जब इस समय तक अधिकांश लोगों के दिलों-दिमाग में इस जघन्यतम अपराध की परछाईं मात्र ही शेष बची होगी। इसे इस देश की लचर कानून व्यस्था की लेटलतीफी कही जाय या उस नरपिशाच की क्रूर हिंसा के शिकार बने बच्चों के परिवार वालों के प्रति विलंबित न्याय जो वंचित न्याय के समान है। उनकी आंखे तो अभी तक अपने मासूमों की बोटी-बोटी काटकर खा जाने वाले राक्षस को सजा दिलाने के इंतजार में पथरा ही गयी होंगी।

बीते सालों में हमारे समाज में जितने भी अपराध हुए उनकी सुनवाई भी कुछ इसी रफ्तार से होती रही है। यही कारण है कि समाज में आपराधिक प्रवृतियां बढ़ रही हैं। अपराध तो हर एक दिन, हर घंटे, हर मिनट पर हो रहा है। लेकिन दोषियों के पकड़े जाने के बाद उनपर कानूनी कार्यवाही की लेटलतीफी का नतीजा है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए समाज को सही संदेश नहीं मिल रहा है। आज भी इस तरह की घटनाओं से अनजान बहुत से निर्दोष और भोले-भाले बच्चे सामाजिक अपराध के शिकार हो रहे हैं।

माना न्याय का अपना सिद्धान्त है कि- सौ अपराधी सजा पाने से भले ही छूट जाँय मगर एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। यह बिल्कुल सही है। लेकिन जब सजा के पात्र अपराधियों को कोर्ट से तारीख पर तारीख मिलने लगे तो कहीं न कहीं वे अपने को उतना कसूरवार नहीं मानते जितना कि वे वास्तव में होते हैं। यह तंत्र ऐसे काम करता है कि अपने को निर्दोष साबित कर लेने की या कम से कम अंतिम फैसला दशकों तक टाले रखने की उनकी आशा बनी रहती है और वे इसके लिए कोई कसर नहीं छोड़ते। कभी-कभी तो उन्हें महंगे वकीलों की दलीलों से सफलता भी मिल जाती है। अपनी सफलता पर वे खुलेआम इसी समाज में अपनी बेहयाई का गुणगान भी करते रहते है।

आर्थिक अपराधों के मामले में तो इसके ऐसे उदाहरण हैं कि अपराधी ने भारी अपराध करने के बाद लगभग पूरी जिन्दगी सत्ता के शीर्ष पदों का मजा लिया और दोषसिद्ध हो जाने के बाद जेल चले जाने के बावजूद राजनैतिक अखाड़े में विधिवत्‌ दाँव लगाता रहा और अपने उम्मीदवारों को जीत भी दिलाता रहा। जाहिर है कि जनता की स्मृति का लोप बहुत आसानी से हो जाता है।

इतने सालों बाद अगर इस अपराधी को जघन्य अपराध में फांसी की सजा मिली है तो कहीं न कहीं वो ऐसे लोगों के सामने जो इस प्रकरण से पूरी तरह से परिचित न हो, दया का पात्र भी बन सकता है। खासतौर पर ऐसे युवाओं के सामने जिनकी उम्र उस घटना के समय सिर्फ आठ से दस वर्ष रही होगी। आज की तारीख में वे सोलह से अठारह की उम्र में होंगे। इन्हें उन दिनों की खबरें याद नहीं होंगी जो कठोर से कठोर व्यक्ति का खून जमा देने वाली थी। उन्हें पता नहीं होगा कि कितने मासूमों के शरीर से काटे गये अंगों के टुकड़े उस आदमखोर के किचेन की खिड़की के पीछे बहने वाले नाले से बरामद किये गये थे।

आज तो सुरक्षाकर्मियों से घिरा हुआ फाँसी की सजा से भयाक्रान्त दिखता सुरेन्द्र कोली ही अखबारों के मुखपृष्ठ पर दिख रहा है। दीन-हीन और कातर। मुझे डर है कि उसकी रक्षा के लिए चन्द वकीलों के साथ-साथ मानवाधिकारवादी धंधेबाज दस्ता भी न कूद पड़े। काश सुप्रीम कोर्ट द्वारा बढ़ायी गयी फाँसी की मियाद एक सप्ताह से आगे न बढ़े।

(रचना त्रिपाठी)

Thursday, September 4, 2014

प्रेम-प्रपंच

प्रेम-प्रपंच

पुष्पा मैत्रेयी जी के एक आलेख में एक वाक्य पढ़कर पहले तो मैं चकित हुई लेकिन ध्यान से दुबारा सोचने पर बहुत ही अर्थपूर्ण लगा यह संदेश- “अब जब मोहब्बत का जलवा है तो कभी किसी समझदार आधुनिक युवती को किसी कंगाल बूढ़े से प्रेम क्यों नहीं होता यदि कहीं ऐसा हुआ हो तो मुझे बताइये। मै उस मोहब्बत को सलाम भेजूंगी ”

यह प्रसंग उन स्त्रियों के लिए आया है जो किसी पुरुष के प्यार में पड़कर उससे शादी करने का निर्णय ले लेती हैं यह जानते हुए भी कि वह पुरुष पहले से शादी-शुदा है। हाल ही में कुछ ‘देर-आयद-दुरुस्त आयद’ टाइप “प्रेम-विवाह’ अखबारों की सुर्खियाँ बने और न्यूज चैनेलों ने भी खूब चटखारे लेकर खबरें दिखायीं। इस प्रेम में पोलिटिकल पॉवर और धन-सम्पत्ति की भूमिका को उभरते देखा गया तो यह भी कहा गया कि प्यार उम्र नहीं देखता। कुछ सुबह के भूले शाम को घर लौटते बताये गये तो कुछ ढलती उम्र वाले राजनेता अपने उत्कृष्ट व्यक्तित्व व विचारों से सेलिब्रिटी महिलाओं को क्लीन बोल्ड करते बखाने गये।

लेकिन पुष्पा जी इस सारी बखान और खबरनवीसी के पीछे जाकर किसी और ही सच्चाई की ओर इशारा करती दिखायी दे रही हैं। उनके मतानुसार यदि कोई पुरुष एक ही साथ कंगाल और बूढ़ा दोनो हो तो कोई समझदार आधुनिक युवती उससे प्यार नहीं करेगी। मतलब यह कि किसी समझदार युवती का प्यार पाने के लिए या तो आपको बांका जवान होना पड़ेगा अथवा मोटे माल का मालिक होना पड़ेगा। अगर किसीके पास यह दोनो काबिलियत हो तो समझिए उसके दोनो हाथ में लड्डू हैं जिसके लिए तमाम आधुनिक युवतियाँ मचलती चली आयेंगी। यदि पुष्पा जी की बात सही है तो मुझे प्रेम के बारे में बड़ी चिन्ता ने घेर लिया है। मैं उस बॉलीवुड अभिनेता की बात नहीं कर रही जिसका अधिकांश रोमांटिक फिल्मों में नाम ही प्रेम रखा गया है।

मै ‘प्रेम’ के बारे में अपने कुछ ऐसे भाव व्यक्त करना चाहूंगी जो पुष्पा जी के महावाक्य से पहले तक मेरे मन में पलते रहे हैं। प्रेम किसी निरे ठूंठे व्यक्ति अथवा वस्तु से नहीं हो सकता। प्रेम एक आकर्षण है, जो किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति केवल उसकी समग्रता में ही नहीं बल्कि उसके कुछ अंश के प्रति भी हो सकता है। यह कह देना कि किसी को किसी कंगाल बूढे व्यक्ति से प्रेम नहीं होता, मुझे मान्य नहीं है। मै इस ख़याल से असहमत हूँ। अगर यहां कंगाल होने का मतलब सिर्फ रूपये-पैसे और धन-दौलत की कमी से है तो भी यह सोचना गलत है।

अगर किसी बूढ़े व्यक्ति के पास धन-दौलत न हो मगर उसके अंदर मन को भली लगने वाली बात करने की कुशलता हो, उत्कृष्ट ज्ञान हो और प्रभावशाली बुद्धिमत्ता हो, वह साहित्य संगीत या दूसरी कलाओं का हस्ताक्षर हो तो भी वह प्रेम और आकर्षण का केन्द्र बिन्दु हो सकता है। ऐसे व्यक्तियों पर स्त्रियां निःसंदेह आकर्षित होती हैं बिना उसकी उम्र या पैसा देखे। यह आकर्षण भी प्रेम का एक रूप है। प्रेम जब किसी अभीष्ठ को पाने के लिए किया जाय तो वह प्रेम की श्रेणी में नहीं बल्कि स्वार्थ की श्रेणी में गिना जाना चाहिए। कहा गया है कि प्रेम अंधा होता है। लेकिन मुझे लगता है कि असली प्रेम गूंगा और बहरा भी होता है। प्रेम एक ऐसी भावना है जिसका सिर्फ एहसास किया जा सकता है। इसीलिए पुष्पा जी ने अपने सधे हुए शब्दों में ‘समझदार और आधुनिक’ होने की शर्त भी जोड़ दी है। ये दोनो गुण ऐसे हैं जो निःस्वार्थ विशुद्ध प्रेम की राह पर जाने से रोकते हैं।

प्रेम में यदि किसी चाहत के लिए शब्द फूटने लगे तो वह प्रेम नहीं कुछ और पाने की कामना है। प्रेम में पाने या खोने जैसी कोई चीज नहीं होती। जिसे वास्तव में प्रेम हो जाय उसका जीवन बहुत सुखद और सरल हो जाता है। उसे अपने से ही नहीं बल्कि अपने आस-पास में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति से - बूढ़ा, बच्चा, जवान - सबकी भावनाओं की कद्र होने लगती है। वह किसी और का घर उजाड़ने में नहीं बल्कि बसाने में विश्वास करने लगता है। विवाह एक रस्म है और प्रेम एक भाव। प्रेम को किसी भी रस्म में बांध देना उसपर पहरा बिठा देने जैसा है। निःस्वार्थ सच्‍चे प्रेम को सलाम भेजने में पुष्पा जी के साथ मैं भी खड़ी हूँ।

(रचना त्रिपाठी)

Saturday, August 23, 2014

उभय-लिंगी चोला

आज के इस दौर में लड़कियों और स्त्रियों के प्रति बढ़ती असुरक्षा और हमारे कथित खैरख्वाहों की बयानबाजी को देखते हुए मेरे मन को एक तरकीब सूझ गयी है। लड़कियों की छेड़छाड़ से लेकर उनका यौन उत्पीड़न और सामूहिक बलात्कार का कारण उनके पहनावे को बताया जा रहा है। सूरज उगने से पहले और डूबने के बाद इस औरत जात को घर से बाहर निकलने की बीमारी भी एक बड़ी समस्या है जो समाज के ठेकेदारों से सम्हाले नहीं सम्हल रही है। मैं जो सोच रही हूँ उसे आप इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान भी कह सकते हैं -

सरकार को चहिए कि स्त्री और पुरुष दोनो को घर से बाहर निकलने पर एक ही जैसा वस्त्र यानी ‘उभय-लिंगी चोला’ पहनना अनिवार्य कर दे; ठीक वैसे ही जैसे स्कूली बच्चों के लिए यूनिफार्म में होना जरूरी होता है। इस चोले की बनावट ऐसी होनी चाहिए जिससे वह पूरे ‘बदन’ को अच्छी तरह से ऊपर से नीचे तक ढक लें…इस प्रकार कि घर से बाहर निकलने वाला वह मनुष्य स्त्री है या पुरुष, लड़की है या लड़का इसकी पहचान करना मुश्किल हो जाय… और बाहर निकलने वाला प्रत्येक व्यक्ति “पादरी” लगने लगे। इस चोले को पहनने के बाद किसी के मन में असमानता की भावना या हीनता ग्रन्थि नहीं पनपने पाएगी… अमीर- गरीब सभी एक समान दिखेंगे...घर से बाहर जाने वाले वाले सभी लोग यूनीफार्म में एक ही जैसे नजर आने लगे तो सड़क पर आवारा घूमते जानवरों, सॉरी शोहदों के द्वारा स्त्रियों की पहचान करना मुश्किल हो जायेगा। जिससे लड़कियों के साथ बलात्कार और एसिड अटैक जैसी घटनाओं की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाएगी।

दूसरी तरफ हमारे खैरख्वाह भी लड़कियों और माताओं-बहनों के वस्त्र पर बेवजह टिप्पणी करने की तकलीफ से बचे रहेंगे… स्त्री-पुरुष के अंदर एक दूसरे को देख आकर्षण बल में भी कमी आएगी; स्त्री का बदन ढका रहेगा तो उसे देखकर उसी की तरह ढके बदन वाले पुरुष को कोई उत्तेजना नहीं पैदा होगी और स्त्री देह पर यौन हमले की घटनाओं में भारी गिरावट आ जाएगी…। इस तरह सामाजिक वातावरण भी स्वस्थ बना रहेगा। काम वसना से प्रेरित पुरुष अगर किसी स्त्री से दुराचार करने का दुस्साहस करेगा भी तो उसकी सफलता का प्रतिशत बहुत ही कम रहेगा क्योंकि ऐसा करने में उसे बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा... पकड़े जाने के डर से  उसके पास छोड़कर भाग निकलना ही एक मात्र विकल्प बचेगा और पादरी के परिधान में सरपट भागना भी आसान नहीं होगा। फिर कोई मूर्ख ही ऐसा रिस्क लेगा अपनी फजीहत कराने के लिए।

(रचना त्रिपाठी)

Wednesday, August 13, 2014

राखी की परंपरा और आधुनिक परिवेश

तीन दिन हो गया रक्षाबंधन का त्यौहार बीते हुए…लेकिन मै आज भी उस पर्व की महत्ता पर अटकी हुई हूँ...रोज यही सोचती हूँ कि इस पर्व को मनाने की आखिर क्या वजह रही होगी… सुरक्षा तो सबके लिए जरूरी है, वह स्त्री हो या पुरुष…लेकिन यह विशेषतौर पर स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ही क्यों मनाया जाता है… यह भाई-बहनों के बीच एक विश्वास की डोर है… प्यार का बंधन है… मगर इस त्यौहार को रक्षाबंधन के नाम से मनाते है… इस पर्व के उपलक्ष्य में हर एक स्त्री अपने भाई को वह चाहे उससे उम्र मे दस साल छोटा हो या बड़ा… रक्षासूत्र बांधती है और उससे यह संकल्प लेती है कि वह उसकी रक्षा करे… ऐसा क्यों है…? एक बेटी या लड़की के मन में जन्म से ही असुरक्षा का बोध कराना और फिर उस घर का लड़का/ भाई की कलाई में एक लड़की/ बहन के द्वारा राखी बंधवाना, यह प्रथा क्यों बनायी गई…?

सोशल मीडिया पर ऐसी बहस चल रही है कि क्या आज के दौर में यह पर्व एक स्त्री के मन में असुरक्षा का भाव उत्पन्न नहीं करता…! जहां एक तरफ स्त्रियां अपने को पुरुष से किसी भी मामले में कम न होने का दावा करती हैं… दूसरी तरफ इस पर्व के माध्यम से राखी बांधकर भाई; पिता; चाचा या भतीजा के आगे अपनी सुरक्षा का वादा मांगती हैं…कहीं न कहीं उनके अंदर यह बात बचपन से ही बैठायी जा रही है कि वह इन सभी से कमजोर है…। सवाल है कि अगर कमजोर हैं भी तो किस मामले में- शारीरिक, आर्थिक या मानसिक या बौद्धिक…?

मुझे तो रक्षाबंधन का पर्व स्त्री सुरक्षा के प्रश्न का एक मनोवैज्ञानिक समाधान लगता है… वो इसलिए कि भाई-बहन दोनों लम्बें समय तक अपना जीवन एक दूसरे के संपर्क में रहकर बिताते हैं… उनके जीवन काल में ऐसे मौके भी कई बार आते हैं, जहां उन्हें एकांत समय भी व्यतीत करने को मिलता हैं… ऐसे में दो विपरित लिंगों के प्रति उनके अंदर भी आकर्षण होना स्वाभाविक है… मगर ऐसा नही होता… यह इसी संस्कृति की देन है…जिसके बहाने एक परिवार में रहने वालों बच्चों को यह संस्कार दिया जाता है कि भाई-बहन का रिश्ता बहुत पवित्र होता है… हर भाई का यह कर्तव्य बनता है कि वह अपनी बहन को प्यार देने के साथ-साथ उसकी सुरक्षा का भी ख्याल रखे… उसके साथ किसी तरह की अभद्रता न करे…

याद है मुझे जब मै छोटी थी तो राखी वाले दिन अपने भाइयों को राखी तो बांधती ही थी…साथ में अपने आस-पड़ोस में रहने वाले अपने से छोटे-बड़े लड़को को भी बांधती थी…तो कहीं न कहीं रक्षाबंधन का त्यौहार एक मनोवैज्ञानिक अनुकूलन की प्रक्रिया है, जिससे एक घर ही नहीं बल्कि पूरे समाज को लाभ मिलता है। यह कहना कि इससे लड़की के मन में जन्म से ही कमजोर होने और लड़कों की तुलना में हीनता का भाव पैदा होता है कोरी सैद्धान्तिक बात है। बल्कि हमारी सामाजिक वस्तुस्थिति को नकारने का प्रयास है।

यह तो एक आदर्श स्थिति होगी जब प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक सुरक्षा उसकी लैंगिकता से निरपेक्ष होगी; जहाँ लड़की और लड़के को कहीं भी आने-जाने, कोई भी काम कर लेने और किसी भी प्रकार की जीवन चर्या चुन लेने का समान अवसर और अधिकार हो तथा उसमें लिंग के आधार पर कोई विभेद न हो। लेकिन दुर्भाग्यवश वास्तविक समाज अभी ऐसा नहीं हो पाया है। इस समाज में केवल आदर्श पुरुष नहीं रहते कि लड़कियाँ उनकी ओर से निश्चिन्त होकर अपनी स्वतंत्रता का पूरा लाभ उठा सकें। समाज में ऐसे तत्वों की कमी नहीं जो एक लड़की को कमजोर करने और उसकी कमजोरी का फायदा उठाने की ताक में रहते हैं। हमारे समाज के लिए तो यह जुमला मुफीद है- सावधानी हटी- दुर्घटना घटी।

जब तक हम एक आदर्श समाज की स्थापना नहीं कर लेते तबतक ऐसे तत्वों के प्रति सावधान रहने, उन्हें ऐसा मौका हाथ न लगने देने के लिए यदि कुछ व्यावहारिक उपाय करना पड़े तो करना ही चाहिए। इसे स्त्री स्वातंत्र्य और आधुनिकता के नाम पर खारिज कर देना उचित नहीं होगा।

(रचना त्रिपाठी)