इस अर्थ-प्रधान युग में मनुष्य को अपनी गृहस्थी चलाने के लिए तमाम पापड़ बेलने पड़ते हैं। व्यापारी दिन-रात काम करता है। किसान खेतों में पसीना बहाता है। मजदूर दिहाड़ी की तलाश में दर-दर भटकता है। विद्यार्थी भी रोजी-रोटी कमाने लायक बन जाय इसी लक्ष्य का पीछा करते हुए रात-रात भर जागकर पढ़ाई करता है। कुछ नराधम इसी रोटी के लिए छोटे-मोटे अपराध शुरू कर देते हैं और रुपयों की हबस का शिकार होकर अपराध की नयी-नयी राहें तलाशते रहते हैं। धनोपार्जन के लिए शुरू किया गया छोटा भ्रष्टाचार शीघ्र ही एक आदत में बदल जाता है जिसका बड़ा नुकसान वृहत्तर समाज को उठाना पड़ता है।
एक सामान्य नौकरीशुदा व्यक्ति अपना समय व श्रम और अपनी बौद्धिक व शारीरिक क्षमता अपने नियोक्ता की इच्छाओं के अधीन कर देता है ताकि महीने के अंत में उसे वेतन के रूप में कुछ रुपये मिल सके जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके। उसके पास नौकरी से बचे हुए अत्यल्प समय और क्षीण ऊर्जा पर पत्नी व बच्चों से लेकर माता-पिता तक और इष्ट-मित्रों से लेकर तमाम रिश्तेदारों तक की आस लगी होती है। इसी समय में वह अपने लिए भी सुख तलाशता है। जीविका की जद्दोजहद में एक सामान्य नागरिक का सामाजिक जीवन छीजता जा रहा है। अपराधी और भ्रष्टाचारी मिलकर इस साधारण मनुष्य के जीवन को बेहद असुरक्षित और कठिन बनाते जा रहे है।
प्रदेश की राजधानी में नौकरी करने वाले विवेक को देर रात तक काम करना पड़ता था। ऐसी ही एक काली रात आयी जब रात में घर लौटने से पहले उसे अपनी एक सहकर्मी को सुरक्षित उसके घर तक छोड़ते हुए आना था। लेकिन वह घर नहीं आ सका। रास्ते में गश्त पर निकले एक सिरफिरे और उद्दंड सिपाही ने उसे रोका और पता नहीं क्यों उसके सिर में गोली मार दी। एक निहत्था कामकाजी अकारण मारा गया और एक साथ कई जिंदगियां बर्बाद हो गयीं।
प्रश्न उठता है कि पुलिस विभाग ने उस सिपाही को कैसी ट्रेनिंग दी थी। आखिर शहर के एक समृद्ध इलाके की गश्त करने वाले उस रंगरूट से उच्चाधिकारियों ने क्या अपेक्षा की थी जिसे पूरा करने के लिए उसे एक निरीह नागरिक की हत्या करनी पड़ी? जहाँ असली अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं, रोज ब रोज हत्या, लूट, छिनैती व बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं, वहाँ पुलिस प्रशासन प्रभुवर्ग की सेवा में लगा हुआ उनकी और अपनी झोली भरने में व्यस्त है।
बड़ी भयावह स्थिति है। सुबह घर से निकलने वाला परिवार का कमाऊ सदस्य शाम तक सकुशल वापस आ जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। घर की बेटी बाहर निकलकर अपना काम करते हुए अपनी गरिमा बचाकर घर लौट आएगी इसकी कोई गारंटी नहीं। घर में, बैंक में या जेब में रखा पैसा अचानक लूट नहीं लिया जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं। देश के सभी नागरिकों के जान-माल की गारंटी देने वाला संविधान और इसी संविधान की शपथ लेकर शासन की बागडोर थामने वाले मंत्री और नौकरशाह इस गारंटी को नष्ट करने में लगे हुए है। न्यायालय भी लाचार हैं। ये अनेक गैर-जरूरी फैसले सुनाने में अपनी मेधा और समय खपा रहे हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति सुरक्षा और न्याय पाने के लिए कौन सा दरवाजा खटखटाने जाय?
मुझे तो लगता है कि सबकुछ भगवान भरोसे ही रह गया है। केवल ईश्वर ही है जो आर्त्त की प्रार्थना सुन सकता है। सभी अपनी श्रद्धा और विश्वास के अनुसार अपने-अपने भगवान, अल्लाह, वाहेगुरू, जीसस से प्रार्थना करेंगे कि वे हम अकिंचन प्राणियों के असुरक्षा बोध को कम करने के लिए तथा जीवन के प्रति सकारात्मक विश्वास बनाये रखने के लिए कोई चमत्कार करें। उन पुलिसकर्मियों को ऐसी सद्बुद्धि दें, उनके आचरण में ऐसा परिवर्तन कर दें कि उन्हें देखकर कोई शरीफ आदमी भयाक्रांत न हो, जान बचाकर भागने पर मजबूर न हो। उन्हें ऐसा कर्तव्यबोध करा दे कि कोई अपराधी उनसे दोस्ती गांठने और मेल-जोल बढ़ाकर अपराध की कमाई में हिस्सेदार बनाने की हिम्मत न करे।
ऐसी ही एक सामूहिक प्रार्थना का आयोजन हमारे मुहल्ले में किया गया है। सेक्टर-16 इंदिरानगर, लखनऊ के सांईंराम पार्क में शाम छः बजे सबलोग इकठ्ठा होकर ईश्वर से प्रार्थना करेंगे। सभी हाथों में मोमबत्तियां लेकर अपनी प्रार्थना के साथ मुंशीपुलिया पुलिस चौकी तक शांतिपूर्ण मार्च करेंगे और जलती हुई मोमबत्तियों को पुलिस चौकी के द्वार पर लगाएंगे ताकि ईश्वर की कृपा से उन पुलिसकर्मियों को कुछ सद्बुद्धि प्राप्त हो सके। ताकि उनके भीतर की मानवता का उदय हो सके। ताकि राक्षसी प्रवृतियों का अस्त हो सके। ताकि भविष्य में फिर कोई विवेक अकारण बीच सड़क पर इनकी गोलियों से न मार दिया जाय।
(रचना त्रिपाठी)
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