Wednesday, August 13, 2014

राखी की परंपरा और आधुनिक परिवेश

तीन दिन हो गया रक्षाबंधन का त्यौहार बीते हुए…लेकिन मै आज भी उस पर्व की महत्ता पर अटकी हुई हूँ...रोज यही सोचती हूँ कि इस पर्व को मनाने की आखिर क्या वजह रही होगी… सुरक्षा तो सबके लिए जरूरी है, वह स्त्री हो या पुरुष…लेकिन यह विशेषतौर पर स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ही क्यों मनाया जाता है… यह भाई-बहनों के बीच एक विश्वास की डोर है… प्यार का बंधन है… मगर इस त्यौहार को रक्षाबंधन के नाम से मनाते है… इस पर्व के उपलक्ष्य में हर एक स्त्री अपने भाई को वह चाहे उससे उम्र मे दस साल छोटा हो या बड़ा… रक्षासूत्र बांधती है और उससे यह संकल्प लेती है कि वह उसकी रक्षा करे… ऐसा क्यों है…? एक बेटी या लड़की के मन में जन्म से ही असुरक्षा का बोध कराना और फिर उस घर का लड़का/ भाई की कलाई में एक लड़की/ बहन के द्वारा राखी बंधवाना, यह प्रथा क्यों बनायी गई…?

सोशल मीडिया पर ऐसी बहस चल रही है कि क्या आज के दौर में यह पर्व एक स्त्री के मन में असुरक्षा का भाव उत्पन्न नहीं करता…! जहां एक तरफ स्त्रियां अपने को पुरुष से किसी भी मामले में कम न होने का दावा करती हैं… दूसरी तरफ इस पर्व के माध्यम से राखी बांधकर भाई; पिता; चाचा या भतीजा के आगे अपनी सुरक्षा का वादा मांगती हैं…कहीं न कहीं उनके अंदर यह बात बचपन से ही बैठायी जा रही है कि वह इन सभी से कमजोर है…। सवाल है कि अगर कमजोर हैं भी तो किस मामले में- शारीरिक, आर्थिक या मानसिक या बौद्धिक…?

मुझे तो रक्षाबंधन का पर्व स्त्री सुरक्षा के प्रश्न का एक मनोवैज्ञानिक समाधान लगता है… वो इसलिए कि भाई-बहन दोनों लम्बें समय तक अपना जीवन एक दूसरे के संपर्क में रहकर बिताते हैं… उनके जीवन काल में ऐसे मौके भी कई बार आते हैं, जहां उन्हें एकांत समय भी व्यतीत करने को मिलता हैं… ऐसे में दो विपरित लिंगों के प्रति उनके अंदर भी आकर्षण होना स्वाभाविक है… मगर ऐसा नही होता… यह इसी संस्कृति की देन है…जिसके बहाने एक परिवार में रहने वालों बच्चों को यह संस्कार दिया जाता है कि भाई-बहन का रिश्ता बहुत पवित्र होता है… हर भाई का यह कर्तव्य बनता है कि वह अपनी बहन को प्यार देने के साथ-साथ उसकी सुरक्षा का भी ख्याल रखे… उसके साथ किसी तरह की अभद्रता न करे…

याद है मुझे जब मै छोटी थी तो राखी वाले दिन अपने भाइयों को राखी तो बांधती ही थी…साथ में अपने आस-पड़ोस में रहने वाले अपने से छोटे-बड़े लड़को को भी बांधती थी…तो कहीं न कहीं रक्षाबंधन का त्यौहार एक मनोवैज्ञानिक अनुकूलन की प्रक्रिया है, जिससे एक घर ही नहीं बल्कि पूरे समाज को लाभ मिलता है। यह कहना कि इससे लड़की के मन में जन्म से ही कमजोर होने और लड़कों की तुलना में हीनता का भाव पैदा होता है कोरी सैद्धान्तिक बात है। बल्कि हमारी सामाजिक वस्तुस्थिति को नकारने का प्रयास है।

यह तो एक आदर्श स्थिति होगी जब प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक सुरक्षा उसकी लैंगिकता से निरपेक्ष होगी; जहाँ लड़की और लड़के को कहीं भी आने-जाने, कोई भी काम कर लेने और किसी भी प्रकार की जीवन चर्या चुन लेने का समान अवसर और अधिकार हो तथा उसमें लिंग के आधार पर कोई विभेद न हो। लेकिन दुर्भाग्यवश वास्तविक समाज अभी ऐसा नहीं हो पाया है। इस समाज में केवल आदर्श पुरुष नहीं रहते कि लड़कियाँ उनकी ओर से निश्चिन्त होकर अपनी स्वतंत्रता का पूरा लाभ उठा सकें। समाज में ऐसे तत्वों की कमी नहीं जो एक लड़की को कमजोर करने और उसकी कमजोरी का फायदा उठाने की ताक में रहते हैं। हमारे समाज के लिए तो यह जुमला मुफीद है- सावधानी हटी- दुर्घटना घटी।

जब तक हम एक आदर्श समाज की स्थापना नहीं कर लेते तबतक ऐसे तत्वों के प्रति सावधान रहने, उन्हें ऐसा मौका हाथ न लगने देने के लिए यदि कुछ व्यावहारिक उपाय करना पड़े तो करना ही चाहिए। इसे स्त्री स्वातंत्र्य और आधुनिकता के नाम पर खारिज कर देना उचित नहीं होगा।

(रचना त्रिपाठी)

3 comments:

  1. सार्थक विवेचन
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर ---

    आग्रह है
    हम बेमतलब क्यों डर रहें हैं ----

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