Monday, July 6, 2009

कानून की मदद करना मूर्खता है…।

चलती ट्रेन में सामान चोरी चले जाने की घटना सुनी तो बहुत थी। मेरे श्रीमान्‌ जी मुझे बार-बार सावधान रहने की हिदायत भी दिया करते थे। कभी जनरल या स्लीपर क्लास में यात्रा नहीं करने देते। हमेशा अपने साथ ही ले जाते और ले आते। लेकिन इस बार भाग्य का लिखा कुछ और ही था। image

सारी हिदायतों का अक्षरशः पालन करते हुए मैने यात्रा प्रारम्भ की थी। चेन स्नैचर्स से बचने के लिए गले में दुपट्टा लपेट कर रखा। हैण्डपर्स में सारा कीमती सामान नहीं रखा। स्टेशन पहुँचने से पहले ही टिकट ऊपर निकालकर पर्स को बड़े वाले एयरबैग के भीतर डाल दिया, नगदी और जेवर को अलग-अलग स्थान पर रख दिया और चेन बन्द करके छोटा ताला जड़ दिया। बोगी में पहुँचते ही अपनी बर्थ के नीचे लगे कड़ों से एयरबैग को बाँध दिया। इस प्रकार इलाहाबाद से पापा के घर तक की यात्रा पूरी तरह सुरक्षित रही। लेकिन वापसी यात्रा में गड़बड़ हो ही गयी।

जाते समय जो उपहार आदि मैं ले गयी थी वो तो वापसी में कम हो गये लेकिन मायके से भतीजे के मुण्डन में जो कुछ मिला वह कुछ ज्यादा ही था। कुछ कपड़ों के डिब्बे एयरबैग से बाहर ही रखने पड़े थे। एक झोले में तीन-चार गिफ़्ट पैक डालकर अलग से लटका लिया था। डिब्बे झोले से बाहर झाँक रहे थे। एयरबैग भी कुछ ज्यादा ही कस गया था। फिर भी मैने अपना हैण्डबैग यत्नपूर्वक उसी एयरबैग में डालकर चेन बन्द कर लिया था। बाकी सबकुछ वैसे ही किया था जैसे इधर से जाते हुए। लेकिन जब बनारस के आगे मोबाइल की रिंग सुनकर मेरी आँखें खुलीं और इनकी गुडमॉर्निंग का जवाब देने के बाद मैंने बेटे के बिस्कुट के लिए नीचे से एयरबैग खींचा तो आवाक्‌ रह गयी। किसी सिद्धहस्त चोर ने बड़ी सफाई से एयर बैग की चेन के बगल में बैग का कपड़ा काटकर भीतर रखा हैण्डबैग निकाल लिया था।

यह देखकर मेरे होश उड़ गये। अकेले यात्रा कर लेने का आत्मविश्वास मुझे ले डूबा। मैने कोच कंडक्टर को ढूँढा तो वह बगल के कोच में खर्राटे लेते पाया गया। कोच अटेण्डेण्ट भी कहीं सो रहा था। आरपीएफ और जीआरपी के जवानों का कोई पता नहीं था। मैने शोर मचाया तो एक-एक करके सब इकठ्ठा हो गये। सबने मुझे ढाढस बँधाया। अपनी-अपनी कहानी सुनाने लगे। लेकिन चोर तो अपना काम करके जा चुका था। सबने यही कहा कि अब उसे पकड़ पाना नामुमकिन है।

मुझे भी इस बात की कोई उम्मीद नहीं थी। फिर भी मैने इलाहाबाद उतरकर जीआरपी थाने में एफ़आईआर कराया। थानेदार ने पहले ही रिजल्ट सुना दिया। कुछ उम्मीद नहीं है। इसे मैं भली भाँति जानती थी, क्योंकि इस विभाग ने रंगे हाथ पकड़े गये चोर के साथ भी जब कुछ नहीं किया तो आँख से ओझल चोर का क्या बिगाड़ लेंगे। जी हाँ, मेरे साथ यह दूसरी दुर्घटना है। पहली बार मैने उस चोरनी को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया था।

अबसे छः साल पहले इसी ट्रेन से मैं बनारस कैण्ट स्टेशन पर सुबह साढ़े चार बजे अपने पति और ढाई साल की पुत्री के साथ उतरी थी। श्रीमान जी बड़ा एयरबैग टाँगे आगे-आगे बढ़े जा रहे थे। मैं एक कन्धे पर सो रही बेटी को लादे और दूसरे कन्धें में अपना बैग लटकाए पीछे-पीछे चल रही थी। निकासद्वार के ठीक पहले मुझे कुछ खुरखुराहट की आवाज सुनायी दी जैसे कोई कागज फट रहा हो। मैने अपने बैग की ऊपरी जेब को टटोला तो चैन खुली हुई थी। अन्दर हाथ डाला तो सौ-सौ के नोट गायब थे। मैने एक झटके में पास से हल्का धक्का देकर गुजरी हुई महिला को धर दबोचा। उसकी कलाई मेरे हाथ में थी। मैने उसे जोर से दबाया। उस शातिर जेबकतरी ने अपने हाथ में रखे नोट जमीन पर गिरा दिए। मैने गेट पर खड़े टिकट कलेक्टर से सहायता मांगी लेकिन उसके कान पर जूँ नहीं रेंग रही थी। मैने जोर की आवाज लगाकर इन्हें बुलाया जो गेट पार करके ऑटो तलाश रहे थे। इनके वापस आने तक मैने उसका हाथ नहीं छोड़ा। उसके गिराये नोट मैने पैर से दबा लिए थे।

इन्होंने वापस आकर उसको पकड़ा, मैने बेटी को सम्हाला, बैग की ऊपरी जेब चेक किया। वहीं रखे नोट जमीन पर गिरे थे। करीब पचास की उम्र पार कर चुकी उस मोटी औरत के हाथ में एक प्लास्टिक का खाली झोला भर था। कोई अन्य सामान नहीं था। झोले में झाँक कर देखा गया तो पाँच-छः नोट और मिले। यानि वह पहले भी एक-दो शिकार निपटा चुकी थी।

हम लोगों ने टीटीआई और वहाँ तैनात सिपाही के हवाले करने की कोशिश की तो उन्होंने पल्ला झाड़ दिया। बोले- आप इसे जीआरपी थाने ले जाइए। हमने उसकी उम्र और मनोदशा देखकर उसपर हाथ उठाना उचित नहीं समझा। बेटी के साथ अपना सामान ढोते हुए हम इस महिला का हाथ पकड़कर थाने ले जाने लगे। उसने गिड़गिड़ाने का अभिनय किया। अपनी साड़ी उठाकर जाँघ पर हुए बड़े से घाव को दिखाने लगी। हम नहीं माने तो उसने चलते-चलते ही प्लेटफ़ॉर्म पर टट्टी कर दी। घिन्न और बदबू से हमारी हिम्मत जवाब दे गयी। लेकिन तबतक थाना आ गया था।

थाने पर उपस्थित इन्स्पेक्टर मुस्कराते रहे। वह घाघ चोरनी भी संयत भाव से बैठी रही। वहाँ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का बड़ा सा बोर्ड लगा था। जिसपर लिखी गयी हिदायतों का लब्बो-लुआब यह था कि किसी व्यक्ति को केवल कोर्ट ही दोषी पाये जाने पर दण्ड दे सकता है। अन्य कोई भी व्यक्ति किसी मुजरिम को कष्ट पहुँचाने वाला व्यवहार नहीं कर सकता है। यानि उस महिला के मानवाधिकारों की रक्षा का पूरा प्रबन्ध था वहाँ।

बस हमारे अधिकार के बारे में पूछने वाला कोई नहीं था

। जबकि जेब हमारी काटी गयी थी। हमारे लिए तो दरोगा जी ने बार-बार यही समझाने की कोशिश किया कि एफ़आईआर में बहुत लफ़ड़ा है। पूरी घटना की तहरीर दीजिए। गवाह लाइए। और सबूत के तौर पर इन चोरी गये रुपयों को सीलबन्द लिफ़ाफे में जमा कराइए। इन सबके बाद यदि दो सौ रुपये चुराने का दोष सिद्ध हो गया तो इसे कुछ दिनों की ही सजा हो पाएगी।

इतनी टेढ़ी खीर होने के बावजूद हमने निर्णय लिया कि इसके विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कराएंगे ही। इसके बाद की ना-नुकुर मिटाने के लिए इन्हें अपने सरकारी अधिकारी होने का परिचय भी देना पड़ा। आखिर रिपोर्ट लिख ली गयी। हम अपने कर्तव्य की पूर्ति का भाव लिए वापस आ गये।

लेकिन आज सोच रही हूँ कि इस बार की चोरी में यदि चोर पकड़ा गया होता तो मैं रिपोर्ट दर्ज कराने की मूर्खता करती क्या? क्या मैं अपना हैण्डबैग सारे सामान सहित सीलबन्द कराकर पुलिस के हवाले कर पाती? जिन दो सौ रुपयों को मैने कानून को अपना काम करने देने के लिए त्याग दिये थे वे मुझे तबसे अभी वापस नहीं मिले। अभी तक मुकदमें की सुनवायी होने की कोई नोटिस ही नहीं मिली। तो फिर मैं इस बार कानून की मदद कैसे करती?

इस अनुभव के कारण यही सोच रही हूँ कि चलो अच्छा हुआ, वह चोर पकड़ा नहीं गया। नहीं तो एक कर्तव्यपरायण नागरिक होने के नाते मुझे फिर चोरी गया सामान सबूत के तौर पर पुलिस के हवाले करना पड़ता। और तब भी शायद इतना ही कष्ट होता।

आज मेरा मन इस उधेड़ बुन में लगा हुआ है। आखिर वह कौन था जिसने मुझे यह लिखने पर मजबूर कर दिया। आज मुझे ठीक-ठीक पता चल गया । शायद यह भी एक मानसिक हलचल है जो रेलवे से शुरू होती है और ब्लॉगजगत पर छाना चाहती है।

(रचना त्रिपाठी)

9 comments:

  1. बहुत दुख की नात है चोरी होना तो दुखद है ही लेकिन ये पोलिस का चक्कर उस से भी अधिक दुखद है तभी तो लोग चुप रहने मे ही भला समझते हैं और अपराधियों को प्रोत्साहन मिलता है

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  2. यात्री अपने सामान की सुरक्षा स्वयम करें -रेलवे इसी नारे के साथ आराम फरमाएगा .

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  3. बहुत दुखद. सभी को इन हालातों से कभी ना कभी गुजरना ही पडता है. और पुलिस के चक्कर की वजह से अक्सर लोग चुप ही रहते हैं. और यही कारण है कि अपराधियों का होसला बढता ही जाता है.

    रामराम.

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  4. इसी प्रकार की कुछ घटनायें, और हमारा विश्वास सभ्यता और संस्कृति से उठने लगता है।
    समस्या तब और होती है जब कुछ समाज सेवी इसे चोर की गरीबी, पुलिस वाले की कम तनख्वाह और कोर्ट कचहरियों में न्यायधीशों की कमी से जोड़ने लगते हैं।
    यह आउट एण्ड आउट भ्रष्ट चरित्र का मामला है - बस!

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  5. कानून सब से बेचारा है, कम से कम हमारे देश में। कोई उसे गिनता कहाँ है। खास तौर से सरकार गिनती ही नहीं। उसे गिनती नहीं आती। कानूनों की संख्या हर साल बढ़ती है। जनसंख्या रोज बढ़ती है। लेकिन अदालतें और पुलिस नहीं बढ़ती। कानून तो इस देश में लाठी वाले की भैंस हो कर रह गया है।

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  6. मानसिक हलचल ऐसी-रेल्वे से शुरु हुई..रेल के साथ चली और ब्लॉग पर छा गई और कानून आँख पर पट्टी बाँधे अपने अंधे होने का और व्यवस्था अपने पंगु होने का सबूत दे रही है.

    मन खिन्न होता है इस वाकिये जान कर मगर कितनी देर को..कितने अभ्यस्त हो गये हैं हम इस तरह जीने को.

    अच्छी रही यह हलचल भी-सोचने को मजबूर करती.

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  7. हम तो इसे एक सामान्य घटना मानते हैं ! बिडम्बना !

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  8. आपका मानसिक संत्रास सहज ही संवेदित है -कानून के पहरेदार,लम्बरदार और पैरोकार कहाँ हैं ?
    और आपकी पोस्ट के माध्यम से मैं आगाह करना चाहता हूँ उन तमाम ब्लॉगर मित्रों को जो कभी रेल द्बारा बनारस आयें या इधर से गुजरें -यहाँ एक संगठित गिरोह है और पिछले दस साल से मैं स्वयं देख रहा हूँ वह अबाध गति से देशी विदेशी लोगों को लूट रहा है -कभी कभी तो बहुत ह्रदय विदारक दृश्य होता है जब पूरी तरह लुट चुके विदेशी दहाड़ मार मार के रोते हैं -कई बार यह गिरोह जाहर देकर आसामियों को लूटता है -लोग जान गवां बैठते हैं -यह आये दिन हो रहा है -कानून ? यह किस चिडिया का नाम है ?

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  9. jo hua so hua .bhool jaiye. aage se savadhani aur badha dijiyega.is beech ek achhi baat yah hua ki aapko post ke liye ek badhiya aur samayik vishya mil gaya.kuchh bura bhale ke liye bhi hota hai.positive side dekhiye.

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