लॉक डाउन में इस बात से मध्यमवर्ग भली-भाँति परिचित हो गया होगा कि जिंदगी, जिसको हमने बहुत कठिन बना रखा था वह कितनी आसान है। कम से कम सुविधाओं में जितना अच्छा हो सकता है वो सब हो रहा है। पहले की अपेक्षा कहीं से किसी के वजन में कोई घटोत्तरी नहीं आयी है। बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा ही गुजर रहा है।
लॉकडाउन से पूर्व महीने में घर-गृहस्थी पर जितने खर्चे हो रहे थे अब उसके आधे हो गए हैं। बच्चों ने कोरोना के भय से पिज्जा-बर्गर और दूसरे ऊल-जुलूल खाद्य पदार्थों से काफी दूरी बना ली है। अब सबको समझ में आ गया होगा कि अपनी रसोई में बने देसी पकवान में जितना खर्च नहीं होता है उससे कहीं ज्यादा खर्च भूसा जैसे-पिज्जा-बर्गर, पेस्ट्री, केक, कोल्ड ड्रिंक इत्यादि खाने-खिलाने पर होता है। मेरे बच्चों ने राय दी कि इस दौरान घर के खर्चे में जितना अंतर आया है उस बचत को सरकार के आपदा राहत कोष में जमा कर दिया जाय।
अब न तो मंदिर न जाने का कोई मलाल है और न ही मॉल नहीं खुलने से खान-पान, रहन-सहन में कोई कमी आयी है। भरा-पूरा घर-परिवार अपने-आप ही एक बहुत बड़ा मंदिर है। यह भी बोध हो गया कि सबका स्वास्थ्य, खान-पान, रहन-सहन और प्रेम-सौहार्द बना रहे तो यही सबसे बड़ी पूजा है।
रसोई में चूल्हे की आंच से किस्म-किस्म के व्यंजन के स्वाद आपसी संबंधो में जो गर्माहट लाते हैं वही सबसे बड़ा तीर्थलाभ है। अफसोस कि आधुनिक पीढ़ी ने इस सहज सुलभ आनंद को पीछे धकेल कर भौतिक उपासना में अपना रात-दिन नष्ट कर दिया था।
घर में जितने सदस्य नहीं होते हैं उससे ज्यादा कपड़े और जूतों की आलमारियां होती हैं। उनके भार से अलमारी फट कर कब बाहर आएगी कुछ कहा नहीं जा सकता। कोरोना के लॉक डाउन ने ऐसा मारा कि बाहर निकलने वालों का अब चोला ही बदल दिया। सब कुछ धरा का धरा रह गया है।
मनुष्य द्वारा अपनी सीमाओं का ऐसा अतिक्रमण हुआ कि शायद प्रकृति ने कुपित होकर हस्तक्षेप कर दिया। शायद इसी के कारण नौबत यह आ गई है कि बहुत से धंधे बन्द हो जाने वाले हैं। जैसे मास्क ने लिपस्टिक पर बहुत बड़ा कुठाराघात किया है। जिससे स्त्रियों का साज-श्रृंगार अब किसी पार्टी की रौनक का मोहताज हो गया है। अब तो केवल रोज सुबह स्नान-ध्यान के बाद "सजना है मुझे सजना के लिए" का गीत ही गा सकती हैं। वो भी इस बात का ख्याल रखते हुए कि जैसे सौदागर फ़िल्म में इस गीत का हश्र हुआ वैसा यहाँ न हो जाय। देख लें कि उस मुए गुड़ जैसी कोई चीज चूल्हे पर जल तो नहीं रही। क्या पता कहीं श्रृंगार रस असावधानी वश अचानक वीभत्स रस में न परिवर्तित हो जाय।
इसलिए अब यह संदेश सुनने का समय आ गया है कि अबसे प्रकृति की ओर लौट जाने में ही सबकी भलाई है।
(रचना त्रिपाठी)
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