लॉकडाउन से पूर्व सुबह-सुबह किचेन में घुसने पर पूरा सिंक जूठे बर्तन से भरा मिलता था। कामवाली के इंतजार में किसी तरह एक कप चाय बनाकर धीरे-धीरे अखबार की खबरों को उसकी चुस्कियों में घोंटते उसपर अपना मंथन तबतक चलता था जबतक कामवाली काम कर के घर से चली न जाय।
महीने भर से कामवाली की छुट्टी चल रही है। अपनी आदत कुछ ऐसी पड़ गई है- सुबह सो के उठो तो अभी आधी नींद में ही झाड़ू कब हाथ में आ जाता है पता नहीं लगता। कभी-कभी भ्रम होता है कि हमने झाड़ू को उठाया या झाड़ू ने हमें। एक-दूसरे की इज्जत रखते हुए सारे कमरे में झाड़ू लग जाता है। बुहारन के नाम पर चिटकी भर धूल निकलती है। उसे ठिकाने लगा देना होता है।
महीने भर से किसी का बाहर से बहुत आना-जाना नहीं हो रहा तो एकाध-दिन झाड़ू न भी लगाओ तो कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है। ऐसा कई बार ख्याल आया भी कि आज झाड़ू रहने देती हूँ कि तभी सासू माँ की बात याद आ जाती है- कि घर में झाड़ू प्रतिदिन दिन उगने (सूर्योदय) से पूर्व लग जाना चाहिए। लक्ष्मीजी खुश रहती हैं। लब्बोलुआब ये कि सूर्योदय से पहले बहुरिया को बिस्तर छोड़ देना है!
वैसे सुबह उठने की आदत बहुत अच्छी होती है। बहुत सारा काम जल्दी निपट जाता है। किचेन में किसी भी वक्त अब सिंक में जूठा बर्तन नहीं रहता है। एक-एक कर के उसे तुरंत निकाल लिया जाता है। कुछ भी करने के बाद साबुन से हाथों की रगड़ाई में हाथ फँसा रहता है तो कभी-कभी चूल्हे की नॉब ऐंठने में देरी हो जाती है और देखते ही देखते दूध उबल कर पूरे स्लैब पर पसर जाता है। इससे काम और बढ़ जाता है। इधर सुबह, दोपहर, शाम बर्तन साफ करते-करते हथेलियां इतनी रूखी हो गईं हैं जैसे- खरहरा।
उपमा समझ में न आई हो तो बता दें कि अरहर के ठठ्ठर से बने लम्बे झाड़ू को हमारे यहाँ खरहरा कहते हैं। इससे हमारे गांव में दरवाजे पर बंधे गाय-गोरु का घोठ्ठा और खेत-खलिहान बुहारा जाता है।
घर के बाकी सदस्यों का व्यवहार तो गज़ब के सुखद परिवर्तन के दर्शन करा रहा है। पहले प्रायः सभी गृहकार्य गृहिणी के हिस्से में रहते थे लेकिन अब झाड़ू, पोंछा,बर्तन, कपड़ा धुलाई, सब्जी काटना, आटा गूंथना, बिस्तर ठीक करना, कूड़ा फेंकना आदि सभी कार्यों का बंटवारा सहर्ष हो गया है। घर में बेहतर साफ सफाई के साथ हंसी-खुशी का महौल भी बेहतर हो गया है। यह सामाजिक दूरी के समय पारिवारिक सामीप्य का अद्भुत अनुभव है।
रात में जबतक बिस्तर पकड़ न लो शरीर से हाथों का सम्पर्क कोरोना के भय से लगभग टूटा रहता है। मतलब मेरी हथेलियां भी शरीर से सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख्याल रखती हैं। हथेलियों की घिसाई के बाद इसपर सेनेटाइजर और बॉडी-लोशन का इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है। घर छोटा है तो काम आसान लगता है। कुछ भी हो, इस लॉकडाउन में देसी पकवान और धूप-अगरबत्ती के मिश्रण से घर की खुशबू बड़ी अच्छी लगती है।
(रचना त्रिपाठी)
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