कोरोना की महामारी में देश शाहीनबाग से उबरकर तब्लीगी मरकज़ में उलझा ही था कि अब बांद्रा स्टेशन पर जाकर फंस गया। यहाँ हजारों की संख्या में गुमराह मजदूर अपने घर जाने के जोश में भूल गए हैं कि जहाँ जाएंगे वहाँ जाकर उन्हें क्या हासिल होगा। साथ में अपने परिवार को भी कितनी बड़ी मुसीबत में डालने वाले हैं। जोश में होश गवां बैठे ये बेचारे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके खैरख्वाह उन्हें घर नहीं बल्कि सपरिवार उन्हें श्मशान भेजने की साजिश में लगे हैं।
इन्हें नहीं मालूम कि इस लॉकडाउन के सहारे उनको तो अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी हैं। इसके लिए उन्हें इन मूर्खों की जमात से बेहतर शिकार नहीं मिलेगा। अगर वे वास्तव में इनके सच्चे खैरख्वाह होते तो इस आपात स्थिति में इन मजदूरों को घर पहुंचाने की बात कर के गुमराह नहीं करते। यह समझने की जरूरत है कि वे सिर्फ उनके साथ ही नहीं बल्कि सवा सौ करोड़ जनता के साथ भी बहुत बड़ा खिलवाड़ कर रहे हैं। अगर वे कहते कि जो जहाँ फंसा है वही रहे, उसके रहने खाने की व्यवस्था अगर सरकार नहीं कर पा रही है तो वे खुद करेंगे; तब उनकी दिलदारी समझ में आती। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ।
मजबूरी वश ही सही यहाँ इकठ्ठी भीड़ के लोग मजदूर हैं या किसी शातिर हाथ के खिलौने मात्र? ऐसा नहीं है तो, उनको घर पहुँचाने का ठेका लेने के बजाय वे सरकार से उनके रहने खाने की व्यवस्था की लड़ाई क्यों नहीं लड़ रहे? जो जहां है वहीं पर उनकी व्यवस्था कराने की बात क्यों नहीं की जा रही है? हे नियति के शिकार प्रवासियों, कम से कम अपनी नहीं तो अपने परिवार की चिंता करिये और अभी जो जहां है वहीं रहे, इसी में सबकी भलाई समझिए।
(रचना त्रिपाठी)
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