हर साल की तरह इस बार भी होली की छुट्टी में पंडित केशरी नाथ दूबे के घर में चहल-पहल बढ़ गयी थी। गाँव के लोग उन्हें केसरी बाबा के नाम से जानते ते थे और घर वालों के लिए वे बड़का दादा थे। यूँ तो उनके भरे-पूरे परिवार के सदस्य नौकरी-चाकरी के चक्कर में देश के अलग-अलग शहरों व महानगरों में सपरिवार रहा करते थे लेकिन होली और दशहरा के मौके पर उन सबकी कोशिश होती थी कि गाँव आकर बाबा के साथ ही त्यौहार मनाया जाय।
इस बार की होली कॅरोना की आफत से ठीक पहले आयी थी। छुट्टी बीत ही रही थी कि खबरें आने लगीं कि इस वायरस ने चीन से आकर देश के बड़े शहरों में पैर फैलाने शुरू कर दिए हैं। अखबार-टीवी के साथ-साथ सोशल मीडिया भी दुनिया भर में कॅरोना के कहर के समाचारों से अटी पड़ी थी। परिवार के सदस्यों ने तय किया कि लॉक डाउन के दौरान सबसे सुरक्षित अपना गाँव ही है इसलिए सबलोग यहीं रुके रहें। शहरों के बाजार, स्कूल, कॉलेज, मॉल, और कार्यालय सब बन्द होने वाले थे इसलिए वहाँ जाने का कोई फायदा भी नहीं था।
इसप्रकार लॉकडाउन में शहर छोड़कर चार पीढ़ियां एक ही छत के नीचे रहने लगी। वर्ष भर वीराने में बुजुर्गों के हवाले पड़ा मकान गुलजार हो गया था। बच्चों की शहरी परवरिश गाँव में उपलब्ध संसाधनों से मेल नहीं खा रही थी। चौबीसों घंटे बिजली, सैकड़ो टीवी चैनल और वाई-फाई की सुविधा नदारद थी। मोबाइल का नेटवर्क छत पर मिलता था और अखबार दोपहर के बाद पहुँचता था। आती-जाती बिजली से बेपरवाह अधिकांश लोगों का बिस्तर रात में छत पर लगता। शहर के रेडीमेड फ़ास्ट-फूड का स्थान गाँव की रसोई में लकड़ी के चूल्हे पर सिंकी रोटियों, देसी घी से तर पराठों, अपने खेत में उगी हरी सब्जियों, और दालों ने ले लिया था। दरवाजे पर बंधी गाय और भैंस को दुहकर जब फेन सहित दूध की बाल्टी घर में आती तो बच्चे सम्मोहित होकर देखते। उपले की आग पर नदिया में लाल होने तक औंटाए दूध में दादी जब जामन डालकर दही तैयार करती तो उसका स्वाद बेजोड़ होता। सुबह-सुबह उस दही से मक्खन निकलता; फिर घी और मठ्ठा भी तैयार होता। स्पेशल डिश के रूप में दाल-पूड़ी, मालपुआ, गुझिया, पिठ्ठा, आदि पारंपरिक पकवान बनने लगे। खान-पान की इस विस्तृत और श्रमसाध्य प्रक्रिया में दादी, ताई, चाची, मम्मी, आदि सभी औरतें दिनभर लगी रहतीं। घरेलू काम करने वाली महरिन की तो कॅरोना ने छुट्टी ही करा दी थी।
अपने-अपने बच्चों की पसंद का ख्याल रखने वाली माताओं में उनके खेलने-खाने की किच-किच को लेकर टकराहट होती रहती। लेकिन पुराने गारे-मिट्टी से बनी ईंट की दीवारें काफी मजबूत थी। इससे भीतर की आवाज बाहर नहीं जाती। केसरी बाबा के छोटे बेटे जगदीश जो अब नोएडा में एक कम्पनी के सीनियर मैनेजर थे वे घर के बच्चों को इस गाँव में बीते अपने बचपन के बारे में बताते। उन यादों से जुड़ी चीजें दिखाते। यह भी बताते कि यहाँ जो समृद्धि वे देख रहे हैं वह बड़का दादा के अथक परिश्रम और बेजोड़ अनुशासन के नतीजे में आयी है। बच्चे बड़े कौतूहल और आश्चर्य से बाबा और उनके बेटों के अभाव, धैर्य, दृढ़ता, त्याग, भा
केसरी बाबा की दिनचर्या लगभग सौ की उम्र में भी इतनी सुव्यवस्थित थी कि उनके सोने, जागने, नित्यकर्म करने, घूमने-टहलने, खाने-पीने और दुआर पर बैठकी करने को देखकर घड़ी मिलायी जा सकती थी। इसमें कभी कोई बदलाव नहीं आया था। अभी इतनी उम्र हो गई लेकिन उनकी आंखों पर चश्मा नहीं चढ़ा। सुंदरकांड का पाठ तो लगभग रोज ही कर लेते थे। आवाज इतनी बुलन्द कि टोले भर में किसी को भी हाँक लगाकर बुला लेते थे। अपने पोते-पड़पोतों के लिए वे इस चमत्कारिक दुनिया में सबसे बड़े जादूगर थे। बच्चे नब्बे डिग्री पर झुकी उनकी देह देखकर मुँह दबाकर हँसते थे। इसपर जब वे तनकर सीधे खड़े हो जाते तो सब समझ जाते कि अब उन्हें जोरदार डाँट पड़ने वाली है।
जब केसरी बाबा की पहलवानी की तूती बोलती थी तब उनका शारीरिक सौष्ठव देखते ही बनता था। उन्होंने बहुत से दंगल जीते थे लेकिन कभी किसी अखबार में कोई ख़बर नहीं छपी। तब गांव तक अखबार आता भी न था। लेकिन अब लॉकडाउन में इनकी चार पीढ़ियों वाला संयुक्त परिवार जब एक छत के नीचे आया तो इसके सदस्यों ने फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप पर तस्वीरों की झड़ी लगा दी। एक से एक स्टेटस पोस्ट होने लगे। दूर-दूर से रिश्तेदारों के फोन आने लगे। लोग इनको बधाइयां देते नहीं थक रहे थे। भरे-पूरे परिवार को एक साथ देखकर बड़का दादा मन ही मन मुस्कुराते रहते।
गाँव के जो लोग केसरी बाबा के दुआर पर आते उन सबसे वे हाल-चाल पूछते, पैर छुवाते और सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते। बाहर से गाँव लौटकर आने वाले मजदूरों से भी बेधड़क मिलते। जबतक घरवाले बड़का दादा को मना करने की हिम्मत जुटा पाते तबतक पता चला कि वे कोरोना की चपेट में आ ही गए। सौभाग्य से क्वारंटाइन के बाद उनकी रिपोर्ट नेगेटिव आ गई। डॉक्टरों के लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। संक्रमण की वजह से उन्हें पूरे 14 दिन आइसोलेशन में रखना बेहद कष्टप्रद रहा। लेकिन केसरी बाबा कहते कि उनकी देह असली घी, दूध और दही से पोसी गयी है इसलिए यह सर्दी जुकाम वाला कॅरोना उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
केसरी बाबा का एक सेवक था-किशोरी। उनसे करीब पचास वर्ष छोटा। वह गांव के प्राथमिक पाठशाला में क्वरंटाइन किए गए श्रमिकों के लिए लाई-चना-गुड़ इत्यादि ले जाया करता था। उन प्रवासी मजदूरों से उसे सहानुभूति थी क्योंकि वह भी पहले बाहर कमाने जाया करता था। लेकिन जबसे केसरी बाबा ने उसे बीड़ी, तम्बाकू, गांजा और देसी शराब की लत से मुक्त कराने की ठान ली और उसके टीबी का इलाज कराने लगे थे तबसे वह उन्हीं के पास रहने लगा था। डॉक्टर ने उसके पूरी तरह ठीक हो जाने की उम्मीद जता दी थी तभी उसे कॅरोना ने डंस लिया। वह गाँव के स्कूल में क्वारंटाइन किए गए गरीबों के संपर्क में आ गया था। केसरी बाबा के बेटों ने उसे शहर के बड़े अस्पताल भिजवाया था जहाँ वह वेंटिलेटर पर अंतिम साँसें गिन रहा था। उसके लिए बाबा के मन में बहुत दुख था। वे कहीं न कहीं खुद को उसकी हालत का जिम्मेदार मानने लगे थे। वे रोज एक माला महामृत्युंजय मंत्र किशोरी के स्वास्थ्य के लिए जपने लगे।
इधर कॅरोना से कुश्ती में सफलता के बाद केसरी बाबा की विजय पताका चारो ओर फहर रही थी तभी शहर से किशोरी के मौत की सूचना आयी। मीडिया वाले ओ.वी. वैन से उनके दरवाजे पर धमक पड़े। टीवी पर न्यूज एंकर लाइव ऑनलाइन थी। स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज फ़्लैश हो रही थी - सौ साल के बुजुर्ग ने कॅरोना को दी मात। जवान नौकर ने दम तोड़ा।
केसरी बाबा कुर्सी पर बैठे सोचमग्न थे। मुंह पर मास्क लगाए गांव पहुंचे संवाददाता ने अपने माइक को एक लम्बे से डंडे में बांध रखा था। उसने एंकर के निर्देश पर दूर से ही केसरी बाबा के मुंह के पास माइक लगाकर उनसे लाइव इन्टरव्यू शुरू किया-
"दादा, अब आपकी तबीयत कैसी है...?
"तबियत अच्छी है लेकिन मन खराब हो गया है। किसोरिया साथ छोड़ गया।"
"सौ पार कर गए कि नहीं, दादा...?"
"ठीक ठीक नहीं मालूम...अभी कुछ बरस बाकी होगा।"
"इस उम्र में खाने का अब जीभ पर पहले जैसा स्वाद आता है क्या...?"
"जीभ का स्वाद? यही तो बीमारी है आजकल की। यदि हम कभी जीभ की सुने होते तो इस उमर में हमारे मुँह के पास तुम ई लग्गी लगाए खड़े न रहते...”
"दादा, अपने खान-पान के बारे में कुछ और बताइए..."
"हमने तो चना, गुड़, किसमिस, बादाम, घर का दूध और दही-घी-मलाई खाया है। गर्मागर्म चावल, दाल, रोटी और अपने खेत की हरी साग-सब्जियों को छोड़कर कुछ जाना ही नहीं। आजकल के ये बच्चे पता नहीं क्या-क्या अकट-बकट खाते-पीते हैं- कोल्ड-ड्रिंक, मैगी, बरगर, पिज्
"आपका पालन-पोषण कैसे हुआ?"
"हमारी माई पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन हमारे ऊपर बहुत कड़ा अनुशासन रखती थी। अभाव में रहते हुए भी शुद्ध और ताजा भोजन ही देती थी। खूब व्यायाम और कठिन परिश्रम करने का और जीवन में अनुशासन का सारा पाठ उसने ही पढ़ाया था। रात में समय से सोना, भोर में उठ जाना और सूर्योदय के समय नहा-धोकर तैयार हो जाना हमारी आदत बन गयी। हमारी मजाल नहीं थी कि माई हमें कुछ खाने को परोस दे और हम ना-नुकुर करें। आजकल तो देख रहा हूँ कि बच्चे खाने में एक से एक नखरे कर रहे हैं। इनके माता-पिता भी कम नहीं हैं। अनाब-शनाब चीजों पर पैसा फेंक रहे हैं।
सबकुछ टीवी पर लाइव चल रहा था।
"एक हमारा समय था। हमारे जमाने में बिस्कुट, ब्रेड और पावरोटी बेकरी से लाकर खाने को तब मिलता था जब हम बीमार हो जाते थे।"
यह बात सुनकर उन्हें घेरे खड़े बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े।
(रचना त्रिपाठी)
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