Tuesday, July 15, 2014

उत्पीड़न का विरोध जरूरी है

एक साधारण परिवार में पैदा हुई, पली-बढ़ी, मात्र स्नातक की डिग्री प्राप्त तारा के अंदर अपने परिवार के विरुद्ध इतना बड़ा फैसला लेने की हिम्मत कहां से आयी...? पूरे गांव में चर्चा का विषय ही यही था–“तारा आज कितने बजे सो कर उठी; कहां गई; क्या खाया, क्या किया? ” उसकी माँ के ऊपर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। शादी को एक साल हो गए है। वह ससुराल में कुल आठ-दस दिन रहने के बाद अपने भाई को बुलाकर उसके साथ मायके वापस लौट आयी थी। उसके घरवालों से लेकर सगे संबंधियों को भी उसका इस तरह बिना शुभ मुहूर्त के ससुराल से लौट आना बहुत ही बेतुका और चिंताजनक लगने लगा था। गाँव वाले तरह-तरह की बाते करने लगे थे।

उसकी माँ तो उस दिन से लेकर आजतक उसे बिना नागा, कोसा करती - “चोटही! जाने कौन-कौन से दिन दिखाएगी मुझे! किस राजवाड़े के घर जाती, जहां तुझे सात बजे तक सोने को मिलता, ससुराल और नईहर में यही तो अंतर है !”

वह अपनी माँ को टन्न से जवाब देती- “तो तू ही चली जा मेरी जगह, लगी रहना नौकरानी की तरह सुबह चार बजे से लेकर रात को बारह बजे तक।

“जीवन भर यहीं पड़ेगी रहेगी, हमारी छाती पर मूंग दलने के लिए हरामजादी !!! जो जानती कि मुझे यह दिन दिखाएगी, तो पैदा होते ही गला घोंट देती।”

“तो अब से घोंट दे…! नहीं जाउँगी.. नहीं जाउँगी.. नहीं जाउँगी! और कान खोलकर सुन लें जबतक “छोटकी” रहेगी तबतक तो किसी कीमत पर नहीं जाउँगी!”

छोटकी - उसके पति की छोटी बहन जो उसे सुबह जगाने से लेकर उठना, बैठना, चलना, घूंघट करना आदि तमाम बातों के लिए पल-पल टोकती और सिखाती रहती थी।

तारा को अपनी छोटी ननद के द्वारा अपने ऊपर किये जा रहे अनुशासन बिल्कुल पसंद नहीं थे। उसकी ननद सुबह चार बजे ही दरवाजा खटखटाकर उसे जगा देती और खुद तनकर सो जाती। तारा का कहना था कि-“ मेरी आदत नहीं है कि देर रात तक जगूं भी और सुबह जल्दी उठ जाऊँ। ...मुझपर इस तरह की हु्कूमत नहीं चलेगी उसकी। छोटी है छोटी की तरह रहे।”

उसके श्वसुर इस बीच कई बार आए और उसे बहुत समझाने की कोशिश की- “लौट चलो!” यहां तक कि उसे तलाक की धमकी भी मिली । लेकिन उसने किसी की एक न सुनी और अपनी जिद्द पर अड़ी रही। आज अपनी शर्तों पर ससुराल जाने के लिए तैयार हो गई। उसने अपने श्वसुर से कह दिया- “आप अपनी छोटी बेटी को यह समझाएं कि वह हमें सुबह जगने का आदेश न दिया करें..या पहले उनकी शादी करके उन्हें ससुराल भेज दें, उसके बाद मुझे बुलाए।” अंततः उन्होंने उसकी शर्त मंजूर कर ली और बोले- “ बेटी की शादी इतनी जल्दी तो नहीं कर पाउँगा; लेकिन तुम्हें जैसे अच्छा लगे वैसे रहना। मै छुटकी को समझाउँगा कि वह तुमपर शासन न चलाया करे।”

उस लड़की का आत्मविश्वास देखकर मै बहुत खुश हूं और आश्चर्यचकित भी। परिवर्तन के इस दौर को देखकर गाँव वालों को भी खुश होना चाहिए; लेकिन वे तो उल्टा उसे ‘कोसे’ जा रहे हैं- “बड़ी नकचढ़ी है ! आखिर अपनी वाली ही करके मानी।”

(रचना त्रिपाठी)                             

6 comments:

  1. कहानी के कई अन्तर्निहित भाव हैं जो एक पीड़ा एक अधिकार (जीवन जीने का मानवाधिकार ) अभिव्यक्ति देते हैं

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  2. बहुत प्यारी पोस्ट है।

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  3. हौसले को सराहना मिले तो बात बने

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  4. एक बढ़िया अभिव्यक्ति यहाँ भी पधारे
    http://kanpurashish.blogspot.in/2011/01/blog-post_28.html

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  5. हर घर में बेटियों को यह दायित्व दिया जाता है कि वह नववधू को घर के कार्य अथवा कार्यविधियों से परिचित कराये !! इसमें कुछ गलत नहीं लगता . परिवार की बुजुर्ग और वृद्ध स्त्रियाँ सुबह उठकर कामकाज में लगी रहे तो देर तक सोना न बहु का अच्छा लगता है , न बेटी का !! बेटी का दोष इतना अवश्य है कि उसे उठाकर खुद सो जाए !! सब मिलकर कार्य करे तो सबको एक समान नींद लेने का अवसर प्राप्त हो !!

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  6. बिल्कुल वाणी गीत जी मै आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ।

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