मेरे घर के सामने वाले पार्क की चार दीवारी जिसपर बर्षो से ‘काई’ जमीं पड़ी थी, एक दिन मैने उसकी रंगाई-पुताई के बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि पिछले पांच साल पहले भी इसकी पुताई हुई थी। आज दीवार फिर से चमचमा उठी है। उसके अंदर गिने-चुने पेड़-पौधे जिसकी कटाई-छ्टाई हुए बर्षों बीत गए थे। वह भी आज अपनी हजामत बनवाकर चकाचक हो गये हैं। पार्क से सटे सड़क जिसकी छ: महीने पहले ही मरम्मत हुई थी, पर कूड़े का अंबार लगा रहता था। जिसपर आते-जाते यात्री मूत्र-विसर्जन भी किया करते थे। इधर से गुजरते समय सहसा मेरी उंगलियां नाक पकड़ लिया करती थी। उफ! कितनी घुटन होती थी कल-तक यहां। आज वह भी नदारद है। सोच रही थी अचानक आज ऐसा क्या हो गया जिससे हमारे मोहल्ले की रौनक ही बदल गई।
अपने चारों तरफ नजर दौड़ाया तो पता चला कि सिर्फ यही नहीं, हमारे पीछे वाले पार्क का हुलिया भी बदल गया है। शहर की सभी टूटी-फूटी सड़के एवं पार्को की मरम्मत हो रहीं है। मुझे ये बात कुछ हजम नहीं हो रही थी। अचानक याद आया कि ‘सत्ता देवी’ का ‘स्वयंवर’ जो रचने वाला है..! कितनी चंचला है ये! हर पांच साल पर तलाक ले लेती हैं और पुनर्विवाह के लिए तैयार हो जाती हैं। उन्हीं की रश्म की तैयारियां शुरु हो गई हैं। हमें तो अभी से ढोल-नगाड़े और शहनाई की धुन भी सुनायी पड़ने लगी हैं। लगता है मेरे अपने ही कान बजने लगे हैं..! अभी तो स्वयंवर में कुछ दिन और बाकी है। बहुत उत्सुकता है मुझे, यह जानने के लिए कि सत्ता देवी किसके गले में ‘जयमाला’ डालेंगी..? आखिर कौन है वह भाग्यशाली जिसको पांच साल के लिए फिर से वरण करने जा रहीं है..?
पंडितों की भी बहार आयी है। बड़े-बड़े दिग्गजों के घर में ज्योतिषाचार्य आजकल ‘कंचन’ चर रहे हैं जो इस स्वयंवर के प्रत्याशी हैं। ये दिग्गज अपनी-अपनी कुण्डली दिखा रहे हैं सत्ता रानी के चाह में। बिना मुहूरत दिखाए और पूजा-पाठ किए कोई काम ही नहीं करते। हर विधा वे उन्हें पाना चाहते हैं। हाल कुछ ऐसा ही है- एक अनार सौ बीमार!
गांव में महिलाएं भी इस उत्सव पर साज-श्रृंगार करके समूह में गीत गाते हुए सत्ता देवी के ‘दुल्हे’ के चुनाव में अपना-अपना मत देने जाती हैं। वे इस अवसर पर एक खास किस्म का गीत भी गाती है- ‘चल सखी वोट देवे..फुलवा/पंजा निशानी।’ निर्भर करता है कि महिलाएं किस पार्टी की ‘दुल्हे’ के पक्ष में हैं, पंजा अथवा फूल या कोई अन्य पार्टी। देखना यह है कि इनके विवाह की हल्दी किसको लगती है.. और यह किसके गले ‘हार’ पहनाती हैं..?
(रचना त्रिपाठी)
रचना ! इस बारात में हम भी शामिल हैं । हम चाहते हैं कि हम जिस दूल्हे राजा को ले-कर आए हैं , उन्हीं के गले में वर-माला पडे ।
ReplyDeleteचलिए महिलाओं का एक और पर्व चिह्नित हुआ -मतदान पर्व!
ReplyDeleteरोचक लिखा है आपने!
अच्छा रूपक और उपमाएं गढ़ी हैं :-)
ReplyDeleteअच्छा है। चकाचक उपमाये हैं।
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ReplyDeleteसमस्या बस एक ही है , अच्छा कोई नहीं है । बस , सबसे कम ख़राब का वरण करना है ।
ReplyDeleteवर्तमान की अव्यवस्थाओं की अच्छी
ReplyDeleteखाल उधेड़ी है --वाह
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई
आग्रह है---- मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
और एक दिन