इस सूक्तिवाक्य को पढ़ने के बाद मैं सन्न रह गयी। मनुस्मृति में एक ओर कहा गया कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ तो दूसरी ओर नारी को स्वतंत्रता के अयोग्य ही ठहरा दिया गया। आखिर ऐसा क्यों कहा गया ?
बर्षों पहले दूरदर्शन पर एक विज्ञापन आता था जिसे मै बहुत गौर से देखती थी। उस विज्ञापन में एक गीत कुछ इस प्रकार था:-
हम और विरना खेले एक साथ,
खेले एक साथ अम्मा खायें एक साथ ।
विरना कलेवा अम्मा हँसी-हँसी देबो,
हमरा कलेवा तुम दीजो रिसियायी।
एक ही पेट से जन्में हुए भाई-बहन दोनों एक साथ खेलते-कूदते बड़े होते है लेकिन जब खाने का वक्त आता है तो माँ बेटे को बड़े प्यार से खाना खिलाती है और बेटी कि तरफ घूरते हुए खाने की थाली परोस देती है। इस गीत का भाव उसकी बेटी के चेहरे पर दिखायी तो पड़ता था, लेकिन वह खुल कर अपनी माँ से सवाल भी नही कर पाती। इसका असर मेरे उपर भी पड़ा। मैने बात-बात पर मम्मी के व्यवहार पर नज़र रखना शुरू कर दिया जिसका मुझे जगह-जगह पर लाभ भी मिला। भाइयों की तुलना में अपने साथ कोई पक्षपात होता देख मैं तत्काल पापा से शिकायत कर देती।
मैं देखती हूँ कि अशिक्षित महिलाओं के साथ साथ कुछ पढ़ी-लिखी महिलाओं को भी जहाँ पूर्ण स्वतंत्रता मिली उनमें उसका दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति उजागर हो गयी। शायद स्त्री अभी भी बहुत कमजोर है। आत्मनियन्त्रण की शक्ति का अभाव दिखता है मुझे। उसे अपने आप को मजबूत बनाने में कोई कसर नही छोड़नी चाहिये। यह मजबूती उचित शिक्षा ही दिला सकती है, नारी को शिक्षा के प्रति जागरुक होना बहुत जरूरी है। मेरा मतलब यह है कि शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ निरर्थक स्वतंत्रता प्राप्त करना या नौकरी करने से नही है। यह जरूरी नही है कि जिस घर की स्त्रियाँ नौकरी करती हों या मंच पर खड़े होकर कुछ भी कहने को स्वतंत्र है उनके घर की बहू-बेटियों पर अत्याचार नहीं होता हो… यह जरूरी नहीं है कि पढ़ी-लिखी महिलाएं कन्या भ्रूण हत्या का अपराध नहीं करती हो…
औरत ही औरत की दुश्मन होती है। जरा एक बार गहराई से सोचिये कि स्त्रियों के लिए ऐसा क्यों कहा गया ? समाज में इसके असंख्य उदाहरण क्यों देखने को मिलते हैं? सास-बहू या ननद- भाभी का रिश्ता दोनो पक्षों के स्त्री होते हुए भी क्यों एक दूसरे के प्रति बहुत अच्छा नहीं रह पाता? एक दूसरे में खोट निकालने को उद्यत क्यों रहती हैं ये नारियाँ? एक परिवार मे औसतन पुरुष और स्त्रियों की संख्या बराबर होती है; अपवाद स्वरूप कम या अधिक भी होती है, लेकिन वहाँ अगर जली तो स्त्री ही क्यों …? पुरुष क्यों नही….. ? क्योंकि स्त्री या तो बहुत कमजोर है या अवसर पाकर स्वछंद हो गयी है। उस परिवार में कन्या भ्रूण हत्या क्यों? ससुर को या उस परिवार के मालिक को पोता ही चाहिये पोती क्यों नही? उस घर की मालकिन या सास यह प्रश्न क्यों नही उठाती? इस जघन्य कृत्य में घर की सभी नारियाँ शामिल कैसे हो जाती हैं? कबतक इसे पुरुष वर्ग की साजिश करार देकर अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ती रहेंगी ये नारियाँ?
इस हत्या की अपराधी एक महिला प्रसूति रोग विशेषज्ञ या फिर मिड्वाइफ भी होती है। इसे नारी शिक्षा और उससे मिली स्वतंत्रता का उत्थान कहें या पतन…. ?
नारी का स्वतंत्र होना बहुत जरूरी है! इसलिये नही कि वह स्वछन्द होकर कुछ भी कर जाये बल्कि इसलिये कि वह एक स्वस्थ समाज का निर्माण करे। नारी तो ब्रह्मा का रूप होती है जो इस सृष्टि के रचयिता हैं। नारी ही नारी को मजबूत बना सकती है । अगर एक माँ ही अपनी बेटी को तबज्जो नही देगी तो पिता या समाज क्यों देगा? अगर एक बहू को उसकी सास ही सुरक्षा की दीवार नही बनेगी तो ससुर से उम्मीद क्यों करें?
(रचना त्रिपाठी)