Wednesday, February 9, 2022

ये चुनाव और वह दर्द

जब-जब चुनाव आता है बड़की दीदिया बिफर पड़ती है। उसका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर होता है। जाने वो कौन सी टीस थी जो उसके भीतर से उमड़ पड़ती है! जब-जब पार्टी वाले गाँव में अपने प्रचार के लिए आते हैं लगता है जैसे उसे किसी बिच्छी ने डंक मार दिया हो। वो भुनभुनाना शुरू कर देती हैं- वे दोगले हमें कहीं मिल जाए तो मैं भी उनका वैसे ही कान उमेठ दूँ जैसे उस दिन मेरे चाचा-ताऊ ने घर के दरवाज़े पर मेरा उमेठा था। बहुत पूछने पर बताने लगी- मेरे लड़कपन के वो चंद खूबसूरत पल कुछ ही मिनटों बाद किस प्रकार कभी न भूल सकने वाले दर्द में तब्दील हो गये जिसे मैं अपने जीवन में आजतक ढो रही हूँ। और वे हैं कि हर पाँच साल बाद एक नए चुनाव चिन्ह के साथ खड़े हो जाते हैं।

 

आज की तारीख़ में माइक देखते ही मुझे उनकी मोटी-मोटी घूरती आँखेकड़कती आवाजें याद आने लगती हैं। मेरे कान वैसे ही गरम होने लगते हैं जैसे उस दिन मेरे हाथों में इन्हीं नेताओं ने अपनी माइक पकड़ा दी थी और कहा था कि- बिटियातुम इस माइक में अपने गाँव वालों से मेरे लिए वोट माँगकर भारी मतों से विजयी बनाने की अपील करो। 

 

मैं ठहरी नादानमुझे नहीं मालूम था कि वे लोग हमारे विरोधी पार्टी के हैं। पहली बार मेरे हाथ माइक लगा था। उत्साह वश मैंने गाँव के बीच खड़े होकरगला फाड़-फाड़ के अपने गाँव के लोगों से विरोधी पार्टी को वोट देने की अपील कर दिया। फिर क्या था! मेरी आवाज़ मेरे घर के आँगन तक पहुँच गई। उस भरी सभा से बड़े प्यार से मुझे घर बुलवाया गया। इतने प्यार से बुलावा आया था कि डर तो मैं तभी गई थी कि हो न होआज घर में मुझे विशेष पूजा मिलनी है। लेकिन अपनी ग़लतियों का एहसास इस बार भी नहीं हो रहा था। क्योंकि बचपन में गाँव में घूमते-खेलते वक्त जब भी इतने प्यार से मेरी माता का बुलावा आता थामन एक अनहोनी से भर उठता था क्योंकि, ऐसा तभी होता था जब मैं अनजाने में कोई भूल कर बैठती थी। उस वक्त हमारे लिए यही बहुत बड़ी बात थी कि अनजान लोगों के सामने हम कूटे नहीं जाते थे । 

 

हिसाब अभी बाक़ी था। घर पर पहुँचते ही दरवाज़े पर चाचा खड़े मिले। अपना हाथ मेरे गाल के सामने ऐसे बढ़ाए कि मानो अब बहुत जल्द मुझे दिन में तारे नज़र आने वाले हैं। लेकिन एक चपेट लगाने की धमकी देते हुए उन्होंने दूसरे हाथ से मेरा कान पकड़कर उमेठ दिया। और भविष्य में कभी भी उनका प्रचार न करने की हिदायत देते हुए मुझे घर के बाक़ी बड़ों के सामने सौंप दिया।

 

तब क्या था! जिसने भी सुनाबारी-बारी से लगभग सबने मेरा कान उमेठा और आगे ऐसी गलती न करूँइसकी क़सम खिलाई। दुःख तब और बढ़ गया जब मैंने देखा कि मुझसे छोटे मेरे भाई-बहन मेरी इस दशा पर कनखियों से ताक-ताक कर अपना मुँह दबाकर मुझ पर हँस रहे थे।

 

अब फिर वही चुनाव आ गया। प्रत्येक पार्टी का चुनाव प्रचार चरम पर है। माइक भी वही है और नेताजी भी वही दिख रहे हैंपर उनका चुनाव चिन्ह बदल गया है। अब वो हमारे ख़ेमे में आ चुके हैं। जी तो करता है कि मैं नेताजी का और इनके आकाओं का वैसे ही कान उमेठ दूँ जैसे बचपन में घरवालों ने मेरा उमेठा था।

 

ऐसे कैसे भुला दूँ कि किस प्रकार इन लोगों ने मेरे भोले से मन को कितना आघात पहुँचाया था। कैसे भूल जाऊं कि मुझे इसलिए सजा दी गयी थी कि इन्होनें मेरे भोलेपन और विश्वास का लाभ उठाया था और अब हमारे साथ आ जुड़े हैं, हमारी पार्टी के हो गये हैं। हमें तो उस दर्द से अपनी पार्टी के प्रति कर्तव्य-निष्ठ होने का पाठ सिखा दिया गया था। पर पार्टी है कि हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। शायद ये पार्टियाँ भावनाओं से बहुत ऊपर होती हैं , और किसी के दर्द से भी।”


(रचना त्रिपाठी)

 

1 comment:

  1. राजनीतिक दलों को किसी के कष्ट से क्या मतलब?

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