एक जमाना बीत गया स्कूल कॉलेज छूटे हुए परन्तु जब भी यह मौसम आता है, अचानक अपने इम्तिहान के दिनों की याद आने लगती है। मानों अब भी किसी परीक्षा की आधी-अधूरी तैयारी में मन भटक रहा हो।
परीक्षा की घड़ी होती ही कठिन है। चाहे तब या अब। कितनी तमन्नाएँ मन में उमड़-घुमड़ करती रहती थी पर इस चुनौती के सामने हम 'बेचारे' बने रहने के सिवा कुछ नहीं कर पाते थे। बस एक ही ख़्याल आता था किसी तरह वह वक्त टले और ज़िंदगी में थोड़ा सुकून मिले, कहीं से थोड़ी बहार आए।
रात-दिन इसकी तैयारी में कैसे एक-एक पल बीतता था। किताब-कॉपी को निहारते, उलटते-पलटते। पेन, स्केल, पेंसिल ,रबर, लंगड़ा-प्रकार, चांदा, हाइलाइटर आदि रखने वाला औजार-बक्सा और तख्ती सँभालते रह जाते थे।
समय से खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती थी। उन दिनों देवता-पित्तर से भी सिर्फ़ यही मनाते थे कि किसी तरह इस परीक्षा के झंझट से हमें छुटकारा मिले और हम उन्हें कपूर जलाएँ। मम्मी-पापा भी उस वक्त हमारा कितना ख़्याल रखते थे। पूरे साल में इतना दुलार कभी नहीं मिलता था जितना इस परीक्षा के दिनों में हमें मिलता था- ठंडा पीलो, गरम पकौड़ी खा लो। मम्मी का बिना माँगे समय-समय पर चाय की प्याली टेबल पर रख देना, संतरे छीलकर खाने का मनुहार करना। वे लोग उस वक्त हमारे लिए कितना कुछ तो करते थे! उन दिनों हमें सिर्फ़ पढ़ना होता था। इसके अलावा घर की और कोई ज़िम्मेदारी नहीं रहती थी। कोई कुछ भी नहीं अढ़ाता था। इसके बावजूद जिस दिन इम्तिहान का आख़िरी पेपर रहता था उस दिन लगता था कि किसी तरह आज यह झंझट मिटे, कल से तो जीवन में बहार ही बहार होगी।
परीक्षा तो ख़त्म हो जाती थी लेकिन बहार कहाँ छुपी है उसकी तलाश कभी पूरी नहीं हो पाती। सुबह से शाम तक हमें डाँट खाते बीतता था। पुराना बकाया जोड़कर- एरियर सहित। वही मम्मी जो उस समय कहती थीं कि अब किताब-कॉपी रख के सो जाओ वरना तबियत बिगड़ जाएगी, वही बाद में सोने पर पहरा करने लगती थीं। सुबह जल्दी जगाने के लिए परेशान रहती थीं। कई बार कमरे में आकर हाँक लगा जाती थी— उठो, पापा चाय माँग रहे हैं, बना कर दे दो… कमरा कितना फैलाकर रखा है, उसे ठीक करो… आज रोटी तुम बनाओगी… ब्ला… ब्ला… ब्ला।
जाने वो बहार कहाँ चली गई जिसकी उम्मीद में हम पूरे इम्तिहान भर दुलारे जाते थे, और इम्तहान ख़त्म होने के बाद सूद सहित फटकारे जाते थे। एक वो अनदेखी, अनजानी बहार है कि उसको हमारी रत्तीभर परवाह नहीं। आज तक उसकी बाट जोह रहे हैं। ये मुई जाने कब आएगी?
(रचना)
