Sunday, March 9, 2025

महिला दिवस पर आत्ममुग्ध

इस बार का महिला दिवस तो मेरे लिए बे-रौनक ही होने वाला था। बच्चों की परीक्षा का समय और श्रीमान जी की परदेसी नौकरी। मैं तो बस सोशल मीडिया और फोन के सहारे घर में ही कैद रही। लेकिन तभी एक मजेदार वाकया हुआ। फोन पर एक सहेली की कॉल आई। उसने महिला दिवस की जो आपबीती वीरगाथा सुनायी कि मेरा मन घर बैठे ही आत्ममुग्ध हो लिया। 


उसने बताया - घर में ले-दे के मैं और मेरे पति रहते हैं। बच्चे अपने-अपने रोजगार में लग गये हैं । बच्चों ने सुबह से ही फ़ोन की घंटी बजानी शुरू कर दी थी। “मम्मी, आज तो महिला दिवस है, आज खूब मस्ती करो। पापा चाहे जो कहें, तुम उनकी एक मत सुनना, दिन भर अपने मन वाली करना। फलां मॉल चली जाओ। अपने लिए खूब खरीदारी करना। और हां! ‘स्टार-बक्स’ की कॉफ़ी ज़रूर पी के आना,  और आज रात का डिनर भी बाहर करके आना।”


 महाशय ने भी उन सबके राग में राग मिलाते हुए कहा- “हाँ भई, आज मैं अपना सारा काम खुद ही कर लूँगा!” बल्कि सुबह की चाय भी उन्होंने ही बनायी थी। कह रहे थे कि महिला दिवस मनाने में इनसे कहीं कोई कमी न रह जाए। नहीं तो सब कहेंगे कि हम पुरुषों को इनकी ख़ुशियाँ हज़म नहीं होती। 


यहां आते-आते मैं अपनी फीलिंग्स के बारे में सोचने लगी जो शाम होने तक मेरे पतिदेव का फोन भी नहीं आया था और बच्चों ने चुटकियां लेनी शुरू कर दी थी। लेकिन मैने सहेली की बातों में रस लेने को ज्यादा उपयोगी समझा। सिर झटक कर मैंने कहा - आगे बताओ न!


महिला दिवस की ऊर्जा से लबरेज मेरी सहेली किस्सा आगे बढ़ाते हुए बोली— मैंने भी खूब झन्नाटेदार साड़ी पहनी, फाउंडेशन से लेकर काजल लिपस्टिक सब झकाझक मैचिंग में पहना। एनिवर्सरी गिफ्ट में मिला 'गुच्ची' का पर्स उठाया और अकेले मॉल चल दी। मिस्टर ने अपनी पॉकेट से कुछ करारे नोटों की गड्डी थमाते हुए कहा, “बिंदास खर्च करना। कंजूसी नहीं। आख़िर आज तुम्हारा स्पेशल डे है!”

  • मैने दोपहर से शाम तक मॉल में, खूब एक्सप्लोर किया। पसंद तो बहुत कुछ आया। एक से एक लुभावने आइटम सजे हैं दुकानों में। लेकिन वह सब कब पहनूँगी कहाँ पहनूँगी यही सोचते-समझते खरीदने से रुक गई।  हमारी धुँआदार विंडो शॉपिग हुई। इस फ्लोर से उस फ्लोर, इस शोरूम से उस स्टोर तक। थक के चूर हो गई तो बच्चों की बात याद आई। वादे के मुताबिक़ स्टार बक्स की कॉफ़ी ऑर्डर कर लिया। बिल देखा तब पता चला कि इसकी क़ीमत चार सौ रुपये है। अब तो मेरा कलेजा धक्क से हो गया। लगा किसी ने जेब काट ली हो।


मैं मन ही मन मुस्करा उठी। मेरी सहेली तो मेरे ही जैसी निकली। उसने आगे कहा - तब से जानो कि मैं घर तो लौट आई हूँ लेकिन वह कॉफ़ी मुझे अभी तक हज़म नहीं हो पा रही।


मैने उसे ढाढस बंधाया— जाने दो, इससे तुम्हारे मिस्टर खुश ही हुए होंगे। पैसा तो उन्होंने खुशी-खुशी दिया था ना!


- बेचारे… खुश तो क्या होंगे। इन्होंने दिन का बचा भोजन ही रात में भी खाया था। अब बचा मेरा डिनर! तो मैंने कॉफी के कड़वे स्वाद के साथ घर लौटकर फ्रिज खोला। देखा कि एक छोटी सी कटोरी में दो-तीन दिन पहले की थोड़ी सी सब्जी पड़ी थी और केसरोल की पेंदी में एक रोटी रखी थी। सब्जी को रोटी में रखकर रोल किया और फौरन उदरस्थ कर लिया। ...इसमें मुझे जो सुकून मिला कि पूछो मत!


- उसके बाद मिस्टर के सामने उस कॉफ़ी वाले को कोस-कोस के धज्जियाँ उड़ा डाली। महिला दिवस की खीझ उतारने का बहाना तो उसी ने दिया। जब हम महिलाओं को घर के बासी खाने में इतनी ख़ुशी मिल सकती है तो बढ़नी मारो उस ‘बरिस्ता’ और ‘स्टारबक्स' को।


अब आप मेरी प्रसन्नता का अनुमान खुद ही लगा सकते

 हैं।


(रचना त्रिपाठी)

Friday, February 23, 2024

परीक्षा-काल

एक जमाना बीत गया स्कूल कॉलेज छूटे हुए परन्तु जब भी यह मौसम आता है,  अचानक अपने इम्तिहान के दिनों की याद आने लगती है। मानों अब भी किसी परीक्षा की आधी-अधूरी तैयारी में मन भटक रहा हो। 


परीक्षा की घड़ी होती ही कठिन है। चाहे तब या अब। कितनी तमन्नाएँ मन में उमड़-घुमड़ करती रहती थी पर इस चुनौती के सामने हम 'बेचारे' बने रहने के सिवा कुछ नहीं कर पाते थे। बस एक ही ख़्याल आता था किसी तरह वह वक्त टले और ज़िंदगी में थोड़ा सुकून मिले, कहीं से थोड़ी बहार आए।


रात-दिन इसकी तैयारी में कैसे एक-एक पल बीतता था। किताब-कॉपी को निहारते, उलटते-पलटते। पेन, स्केल, पेंसिल ,रबर, लंगड़ा-प्रकार, चांदा, हाइलाइटर आदि रखने वाला औजार-बक्सा और तख्ती सँभालते रह जाते थे। 


समय से खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती थी। उन दिनों देवता-पित्तर से भी सिर्फ़ यही मनाते थे कि किसी तरह इस परीक्षा के झंझट से हमें छुटकारा मिले और हम उन्हें कपूर जलाएँ। मम्मी-पापा भी उस वक्त हमारा कितना ख़्याल रखते थे। पूरे साल में इतना दुलार कभी नहीं मिलता था जितना इस परीक्षा के दिनों में हमें मिलता था- ठंडा पीलो, गरम पकौड़ी खा लो। मम्मी का बिना माँगे समय-समय  पर चाय की प्याली टेबल पर रख देना, संतरे छीलकर खाने का मनुहार करना। वे लोग उस वक्त हमारे लिए कितना कुछ तो करते थे! उन दिनों हमें सिर्फ़ पढ़ना होता था। इसके अलावा घर की और कोई ज़िम्मेदारी नहीं रहती थी। कोई कुछ भी नहीं अढ़ाता था। इसके बावजूद जिस दिन इम्तिहान का आख़िरी पेपर रहता था उस दिन लगता था कि किसी तरह आज यह झंझट मिटे, कल से तो जीवन में बहार ही बहार होगी। 


परीक्षा तो ख़त्म हो जाती थी लेकिन बहार कहाँ छुपी है उसकी तलाश कभी पूरी नहीं हो पाती। सुबह से शाम तक हमें डाँट खाते बीतता था। पुराना बकाया जोड़कर- एरियर सहित। वही मम्मी जो उस समय कहती थीं कि अब किताब-कॉपी रख के सो जाओ वरना तबियत बिगड़ जाएगी, वही बाद में सोने पर पहरा करने लगती थीं। सुबह जल्दी जगाने के लिए परेशान रहती थीं। कई बार कमरे में आकर हाँक लगा जाती थी— उठो, पापा चाय माँग रहे हैं, बना कर दे दो… कमरा कितना फैलाकर रखा है, उसे ठीक करो… आज रोटी तुम बनाओगी… ब्ला… ब्ला… ब्ला। 


जाने वो बहार कहाँ चली गई जिसकी उम्मीद में हम पूरे इम्तिहान भर दुलारे जाते थे, और इम्तहान ख़त्म होने के बाद सूद सहित फटकारे जाते थे। एक वो अनदेखी, अनजानी बहार है कि उसको हमारी रत्तीभर परवाह नहीं। आज तक उसकी बाट जोह रहे हैं। ये मुई जाने कब आएगी?

(रचना)

Tuesday, February 20, 2024

लौटा दो मेरी चिट्ठियाँ

दो दिन बाद पच्चीसवीं सालगिरह है। पता नहीं सुबह से बक्से में क्या टटोल रही है? न जाने कौन सा खजाना उसके हाथ लग गया है। उसी में उड़ी-बुड़ी जा रही है। कभी मुस्कुराती है तो कभी सिसकियों की आवाजें आने लगती हैं। कितना काम पड़ा है? ये औरत भी न, हद करती है! 


— “अरी भई, जल्दी करो। कहाँ खोयी हो? बहुत काम है मेरे ज़िम्मे। चलो पहले तुम्हारा गिफ्ट दिला दूँ उसके बाद बाक़ी के काम होंगे। ऐसा कौन सा ख़जाना मिल गया जो वहाँ से हिलती नहीं तुम?”


शायद कुछ चिट्ठियाँ थी। जो राघव ने उसके नाम अपनी नौकरी से पहले पढ़ाई के वक्त लिखी थी। 


— “खजाना ही समझो, सनम। वो मोतियों सी अक्षर में गुथी लटपटी बातें, मीठे-मीठे गानों की रोमांटिक पक्तियाँ… छोटे-छोटे प्यार से रखे हुए वे नाम जो तुमने मेरे लिए इन चिट्ठियों में लिखे हैं। मेरे लिए किसी भी ख़ज़ाने से बढ़ कर है। उन दिनों इन्हें पढ़कर मैंने ख़ुद को वहीदा रहमान तो कभी वैजयन्ती माला से कम नहीं समझा। सच कहूँ, तो नई-नवेली दुलहिन के सारे नख़रे तो इन चिट्ठियों ने ही ढोये हैं।


इनको पढ़कर इतने वर्षों के बाद मन में वहीं पुराने बसन्ती उमंग भरे एहसास उमड़ पड़े हैं। जो अबतक न जाने कहाँ गुम से पड़े थे?  आज जाके हाथ लगे हैं। सब पढ़ लूँगी तभी हिलूँगी यहाँ से। कितनी मीठी यादें हैं। सबको अपनी स्मृतियों में समेटना है अभी। वक्त तो लगेगा ही। 


वही चिट्ठियाँ हैं जो तुमने मेरे लिए लिखी थीं। आज बहुत सही समय पर मिली हैं। देखो न, उन लम्हों को कैसे इन चिट्ठियों ने अपने अंदर क़ैद कर लिया है। आज सब तरो-ताज़ा हो गये। वो लम्हें वो बातें … ऐसा लगता है जैसे आज भी मैं वहीं खड़ी हूँ। और तुम हमसे कोसों दूर अपने रोज़गार की तैयारी में लगे हो। इन चिट्ठियों ने उस दूरी को कितना कम कर दिया था ! इससे हरदम तुम्हारे आलिंगन का एहसास होता था।


जब डाकिया पिताजी के हाथों में लिफ़ाफ़ों का संकलन देकर साइकिल की सीट पर फ़लांग कर बैठता और तेज गति से पैडल मारते हुए दरवाज़े से दूर मेरी आँखो से ओझल हो जाया करता था, तबसे मैं खिड़की पर खड़ी दिल की धड़कनों को थामें घर के भीतर पिताजी की कदमों की आहट सुनते ही कितना बेचैन हो उठती थी! उन लिफ़ाफ़ों में अपने नाम की चिट्ठी न पाकर कष्ट होता था। अगली चिट्ठी में यह पढ़कर तब और बुरा लगता था कि तुमने इसके पहले भी कई चिट्ठियाँ मेरे नाम से भेजी है जो मुझे नहीं मिली।


कुछ मेरी चिट्ठियाँ भी जो मैंने तुम्हें लिखी थी, इसी बेठन के नीचे मिली हैं। इन्हें कितना सहेजकर रखा था तुमने। अब यही सब सोचकर रोना आ रहा है। हम दोनों अपनी गृहस्थी में इतने मशगूल हो गए कि अपना वो सलोना दौर हमें याद ही नहीं रहा। जैसे हमने उनको किसी तहख़ाने में धकेल दिया हो।


अच्छा हुआ जो उस वक्त मोबाइल नहीं था। नहीं तो आयी-गई बात कब की ख़त्म हो गई होती। याद भी नहीं आता कि एक समय हमारा भी हुआ करता था, जिसमें सिर्फ़ मैं थी और तुम थे और वो एकाद विलेन, जो हमारी चिट्ठियों को चुपके से शरारत वश खोलकर पढ़ लिया करते थे। जिसका ख़ाली लिफ़ाफ़ा भी कभी मुझे सुपुर्द नहीं किए। उसमें लिखी बातों को लेकर घरवालों के सामने हमारी कितनी किरकिरी करते थे। तुम क्या जानों वो बेचैनी… मुझे तो आजतक उन चिट्ठियों को न पढ़ पाने का मलाल है। काश अबसे वो सारी चिट्ठियाँ मुझे मिल जाती !


ऐ सुनो न, उनसे कहो न कि हमारी इस एनीवर्सरी पर वे हमें वो सारी चिट्ठियाँ तोहफ़े में वापस कर दें। उसके बदले में हम उन्हें कुछ महँगे रिटर्न गिफ्ट दे देंगे। उनसे माँगो न, प्लीज़!


उनके लिए तो वह सब मनोरंजन था लेकिन मेरे लिये तो यह अनमोल निधि है। उस वक्त तुमसे दूर रहकर भी तुम्हारे पास होने का एहसास दिलाती थी ये चिट्ठियाँ।”


(रचना)




 

 

Tuesday, January 30, 2024

सनातन प्रश्न- क्या बनेगा?

‘बचना ऐ हसीनों लो मैं आ गया’ की तरह यह एक सवाल “क्या बनेगा?” हर दो घंटे बाद हम जैसी ‘हसीनों’ के सामने सीना तानकर खड़ा हो जाता है।


यह उन हसीनों (गृहिणी) की बात है जिसकी सुबह की शुरुआत ही इस प्रश्न से होती है कि क्या बनेगा? और रात्रि-विश्राम के बाद पुनः वही प्रश्न— क्या बनेगा? दाँत निपोरे अगली सुबह का इंतज़ार करते मिल जाता है। जीवन का सवाल है और जीभ की बात है तो भला इससे बच कर कोई कहाँ जा सकता है? लेकिन है कोई ऐसा प्राणी जो एक बार यह प्रश्न हल कर के इतिहास बना सके? मेरे विचार से अभीतक तो कोई नहीं है।


एक अच्छे स्टूडेंट की तरह वह पूरी लगन और उत्साह के साथ अपनी कॉपी में मतलब रसोई में जाती है। ताजी और महकती हुई पत्तियों से सजाकर एक ही चीज को अलग-अलग कलेवर में बेहतरीन ढंग से गढ़ कर टेबल पर व्यंजनों के समीकरण प्रस्तुत करती है। उपभोगकर्ता द्वारा जिसका उपभोग भी बड़े चाव से किया जाता है। तत्पश्चात उसके चेहरे पर अगाध तृप्ति  का बोध स्पष्ट नमूदार होता है। लेकिन "बच्चा अभी इससे भी बढ़िया कर सकता है (इससे भी अच्छा बन सकता है)" इस जजमेंट के साथ उपभोक्ता अपनी मुस्कुराहट वाली स्याही के छीटें मारते हुए आगे बढ़ लेते हैं।


पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे दो-तीन घंटे बाद आते हैं और फिर वही क्लास शुरू। कुछ 'बढ़िया बनाओ-खिलाओ' की डिमांड डाइनिंग टेबल पर रख जाते हैं। मतलब वह व्यक्ति जो अभी दो घंटे पहले अपना बेस्ट देकर थोड़ी चैन की सांस लेना चाहता है, उसके सामने फिर वही प्रश्न आ जाता है- क्या बनेगा?


इधर यूट्यूब वाले अलग नाक में दम कर रखे हैं। 'सेहतमंद के साथ स्वाद भी भरपूर' का दावा करते हुए तरह-तरह के चैनल खोल रखे हैं। पैतालिस मिनट की डिश अपने चैनल पर तीन मिनट में दिखाकर ये दुनिया को न जाने क्या बताना चाहते हैं...! जैसे इनसे पहले सब भूसा ही खाते रहे हों। अभी एक क्लास ख़त्म नहीं हुई कि चलो अब एक्स्ट्रा कोचिंग में।


अब तो ये बहाना भी नहीं चलता कि फला सामान रसोई में नहीं है। उसकी रीफ़िल के लिए उन्हें कहीं निकल कर नहीं जाना पड़ता है। मन में सोचा नहीं कि तमाम डिलीवरी ब्वाय दरवाज़े की बेल बजाते मिल जाएंगे। मतलब अब किसी भी हाल में यह क्लास वो बंक नहीं कर सकती।

सारा दिन इसी उधेड़-बुन में निकल जाता है और प्रश्न वहीं सिर पर खड़ा रहता है - क्या बनेगा?


(रचना त्रिपाठी)


Thursday, September 14, 2023

सबदिन की हिंदी या एक दिन की?

एक वह भी जमाना था जब हम बच्चे न तो ‘क्यूट’ हुआ करते थे और न ही ‘स्मार्ट’। मम्मियों को यह सब मालूम ही नहीं था। वे तो अपनी भाषा में ही बच्चों को नवाजती थीं। उन्हें यह भी नहीं पता था कि उनकी हिंदी का कोई एक 'दिवस' होता है और यह दिवस बड़े प्रचार-प्रसार से मनाया जाना होता है। 


उन्हें अपने बच्चे या तो बकलोल लगते थे या बहुत बदमाश। चंचल होते थे या गबद्दू। बुड़बक होते थे या चलबिद्धर। चुप्पा होते थे या बकबकहा। दब्बू होते थे या झगरहा। चतुर होते थे या भोंदू। सोझबक होते थे या लंठ। सालों साल ऐसे ही परिचय कराया जाता था। लेकिन जबसे बच्चे क्यूट, स्मार्ट, लवी-डवी, शार्प, मैनर्ड और एटिकेट्स वाले हो गये हैं शायद तभी से यह हिंदी-दिवस सिकुड़कर एक दिन का हो गया। 


हम तो क्यूट-स्वीट की गिटपिट से बेखबर रहते हुए ही बड़े हो गए। आजकल का चलन ऐसा हो गया है कि हम लगभग भूल ही गये हैं अपनी उस दुलारी हिंदी को जिसके साथ रगड़े जाने का हमारा दिन-रात का नाता था।


बच्चे अपनी माताओं को जब आजिज़ कर देते थे तो वे अपनी अनोखी हिंदी के अद्भुत भावप्रवण शब्दों का तबतक बौछार करती थीं जबतक बच्चे को पूरी प्रतीति न हो जाय। यह उत्सव प्रायः रोज ही होता था। माताएं तबतक चैन नहीं पाती थीं जबतक भाषा संपदा का पूरा उत्सव मनाकर  समाप्त न कर लें। उनके कुछ शब्द तो आज भी हमारे कानों में एक मधुर संगीत की तरह बजते रहते हैं। उनमें से एक था- लतखोरवा। जब चाहें तब ऐसे मनाये जाते थे हिंदी के दिवस।


आज जब एक दिन का उत्सव होता है तो हमें बड़ा अटपटा सा लगता है। ऐसा लगता है कि काल-कवलित होने से बाल-बाल बचायी जा रही हो हिंदी।


(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, September 5, 2023

ढक्कन-ए-सिन्होरा

विवाह के समय में बहुत कुछ नया-नया मिलता है। इसमें सिन्होरा का बड़ा महत्व है। इसकी ख़रीदारी करते हैं दुल्हन के भावी जेठ जी। लेकिन खरीदते समय उसके ढक्कन को चेक करना वर्जित होता है। एक बार जो हाथ लगा उसी को मोल करना होता है। अब यह ढक्कन सिन्होरा पर कैसे फिट बैठता है यह किस्मत का खेल है। किस्मत दूल्हा-दुल्हन की, उनके बीच प्रेम-संबंध की। 


लकड़ी से बने गोल-मटोल सिन्होरे के दो पार्ट होते हैं। पहला मुख्य पार्ट जिसमें पीला सिंदूर रखा जाता है, और दूसरा उसका ढक्कन, जो उसके ऊपर ठीक से बंद होता ही हो यह जरूरी नहीं। 


हमारी तरफ़ सिन्होरे के ढक्कन का फिट होना या ना होना, या कम फिट होना पति-पत्नी के बीच प्रेम का पैरामीटर है। यदि सिन्होरे का ढक्कन ख़ूब टाइट बंद होता है और बहुत ज़बरदस्ती करने पर खुलता है, तो माना जाता है कि उस दंपति में बहुत गहरा प्रेम है। जिसका ढक्कन ढीला होता है और इधर-उधर छिटक जाने की संभावना के कारण बहुत सँभाल कर रखना पड़ता है तो ऐसा कहा जाता है कि ऐसे दंपति में प्रेम के साथ आपसी सद्भाव भी बना रहे इसके लिए बड़ा सँभाल के चलना पड़ता है। जिस स्त्री के सिन्होरे का ढक्कन बंद ही न होता हो तो उसका भगवान ही मालिक है।  


अब ऐसे में यदि किसी के सिन्होरे का ढक्कन विवाह के पश्चात ऐसा बंद हुआ कि अब खुलता ही नहीं है तो ऐसे प्रेम को क्या कहिएगा?

इस अद्भुत रहस्य की खोज में नासा या इसरो के वैज्ञानिकों का कोई हाथ नहीं है। यह हमारे पुरखे-पुरनियों का अलौकिक विज्ञान है। जिन्होंने हमें पति को कैसे हैंडल करना है ये नहीं बताया लेकिन अपने सिन्होरे को कैसे सँभालकर रखना है यह जरूर बताया। पति तो ख़ुद-ब-ख़ुद सही हो जाएगा।


मुझे अपने सिन्होरे को हर बार ठोक-पीट कर बंद करना पड़ता है। लेकिन थोड़े प्रयास से यह भली-भाँति बंद जरूर हो जाता है। इसके बावजूद इसे एक मज़बूत कपड़े में बांधकर मुनिया में बंद कर के रखती हूँ। (अब 'मुनिया' क्या होती है यह मत पूछिएगा नहीं तो एक नई पोस्ट लिखनी होगी।)


फिलहाल आज हल-छठ है तो मैंने अपने सिन्होरे की फिर से ओवरहालिंग कर लिया है। अब बताइए आपने कैसे रखा है अपना ढक्कन-ए-सिन्होरा?

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, August 29, 2023

दिल चाँद सा है मेरा

दिल चाँद सा है मेरा, सनम 

उतरो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


रखो ना हकतलफ़ी इतनी 

अभी ठहरो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


छप जाएँगे वे इश्किया 

अभी लिखो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


दिल चाँद सा है मेरा…

(रचना त्रिपाठी)


#softlanding  #chandrayaan3mission