Friday, February 23, 2024

परीक्षा-काल

एक जमाना बीत गया स्कूल कॉलेज छूटे हुए परन्तु जब भी यह मौसम आता है,  अचानक अपने इम्तिहान के दिनों की याद आने लगती है। मानों अब भी किसी परीक्षा की आधी-अधूरी तैयारी में मन भटक रहा हो। 


परीक्षा की घड़ी होती ही कठिन है। चाहे तब या अब। कितनी तमन्नाएँ मन में उमड़-घुमड़ करती रहती थी पर इस चुनौती के सामने हम 'बेचारे' बने रहने के सिवा कुछ नहीं कर पाते थे। बस एक ही ख़्याल आता था किसी तरह वह वक्त टले और ज़िंदगी में थोड़ा सुकून मिले, कहीं से थोड़ी बहार आए।


रात-दिन इसकी तैयारी में कैसे एक-एक पल बीतता था। किताब-कॉपी को निहारते, उलटते-पलटते। पेन, स्केल, पेंसिल ,रबर, लंगड़ा-प्रकार, चांदा, हाइलाइटर आदि रखने वाला औजार-बक्सा और तख्ती सँभालते रह जाते थे। 


समय से खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती थी। उन दिनों देवता-पित्तर से भी सिर्फ़ यही मनाते थे कि किसी तरह इस परीक्षा के झंझट से हमें छुटकारा मिले और हम उन्हें कपूर जलाएँ। मम्मी-पापा भी उस वक्त हमारा कितना ख़्याल रखते थे। पूरे साल में इतना दुलार कभी नहीं मिलता था जितना इस परीक्षा के दिनों में हमें मिलता था- ठंडा पीलो, गरम पकौड़ी खा लो। मम्मी का बिना माँगे समय-समय  पर चाय की प्याली टेबल पर रख देना, संतरे छीलकर खाने का मनुहार करना। वे लोग उस वक्त हमारे लिए कितना कुछ तो करते थे! उन दिनों हमें सिर्फ़ पढ़ना होता था। इसके अलावा घर की और कोई ज़िम्मेदारी नहीं रहती थी। कोई कुछ भी नहीं अढ़ाता था। इसके बावजूद जिस दिन इम्तिहान का आख़िरी पेपर रहता था उस दिन लगता था कि किसी तरह आज यह झंझट मिटे, कल से तो जीवन में बहार ही बहार होगी। 


परीक्षा तो ख़त्म हो जाती थी लेकिन बहार कहाँ छुपी है उसकी तलाश कभी पूरी नहीं हो पाती। सुबह से शाम तक हमें डाँट खाते बीतता था। पुराना बकाया जोड़कर- एरियर सहित। वही मम्मी जो उस समय कहती थीं कि अब किताब-कॉपी रख के सो जाओ वरना तबियत बिगड़ जाएगी, वही बाद में सोने पर पहरा करने लगती थीं। सुबह जल्दी जगाने के लिए परेशान रहती थीं। कई बार कमरे में आकर हाँक लगा जाती थी— उठो, पापा चाय माँग रहे हैं, बना कर दे दो… कमरा कितना फैलाकर रखा है, उसे ठीक करो… आज रोटी तुम बनाओगी… ब्ला… ब्ला… ब्ला। 


जाने वो बहार कहाँ चली गई जिसकी उम्मीद में हम पूरे इम्तिहान भर दुलारे जाते थे, और इम्तहान ख़त्म होने के बाद सूद सहित फटकारे जाते थे। एक वो अनदेखी, अनजानी बहार है कि उसको हमारी रत्तीभर परवाह नहीं। आज तक उसकी बाट जोह रहे हैं। ये मुई जाने कब आएगी?

(रचना)

Tuesday, February 20, 2024

लौटा दो मेरी चिट्ठियाँ

दो दिन बाद पच्चीसवीं सालगिरह है। पता नहीं सुबह से बक्से में क्या टटोल रही है? न जाने कौन सा खजाना उसके हाथ लग गया है। उसी में उड़ी-बुड़ी जा रही है। कभी मुस्कुराती है तो कभी सिसकियों की आवाजें आने लगती हैं। कितना काम पड़ा है? ये औरत भी न, हद करती है! 


— “अरी भई, जल्दी करो। कहाँ खोयी हो? बहुत काम है मेरे ज़िम्मे। चलो पहले तुम्हारा गिफ्ट दिला दूँ उसके बाद बाक़ी के काम होंगे। ऐसा कौन सा ख़जाना मिल गया जो वहाँ से हिलती नहीं तुम?”


शायद कुछ चिट्ठियाँ थी। जो राघव ने उसके नाम अपनी नौकरी से पहले पढ़ाई के वक्त लिखी थी। 


— “खजाना ही समझो, सनम। वो मोतियों सी अक्षर में गुथी लटपटी बातें, मीठे-मीठे गानों की रोमांटिक पक्तियाँ… छोटे-छोटे प्यार से रखे हुए वे नाम जो तुमने मेरे लिए इन चिट्ठियों में लिखे हैं। मेरे लिए किसी भी ख़ज़ाने से बढ़ कर है। उन दिनों इन्हें पढ़कर मैंने ख़ुद को वहीदा रहमान तो कभी वैजयन्ती माला से कम नहीं समझा। सच कहूँ, तो नई-नवेली दुलहिन के सारे नख़रे तो इन चिट्ठियों ने ही ढोये हैं।


इनको पढ़कर इतने वर्षों के बाद मन में वहीं पुराने बसन्ती उमंग भरे एहसास उमड़ पड़े हैं। जो अबतक न जाने कहाँ गुम से पड़े थे?  आज जाके हाथ लगे हैं। सब पढ़ लूँगी तभी हिलूँगी यहाँ से। कितनी मीठी यादें हैं। सबको अपनी स्मृतियों में समेटना है अभी। वक्त तो लगेगा ही। 


वही चिट्ठियाँ हैं जो तुमने मेरे लिए लिखी थीं। आज बहुत सही समय पर मिली हैं। देखो न, उन लम्हों को कैसे इन चिट्ठियों ने अपने अंदर क़ैद कर लिया है। आज सब तरो-ताज़ा हो गये। वो लम्हें वो बातें … ऐसा लगता है जैसे आज भी मैं वहीं खड़ी हूँ। और तुम हमसे कोसों दूर अपने रोज़गार की तैयारी में लगे हो। इन चिट्ठियों ने उस दूरी को कितना कम कर दिया था ! इससे हरदम तुम्हारे आलिंगन का एहसास होता था।


जब डाकिया पिताजी के हाथों में लिफ़ाफ़ों का संकलन देकर साइकिल की सीट पर फ़लांग कर बैठता और तेज गति से पैडल मारते हुए दरवाज़े से दूर मेरी आँखो से ओझल हो जाया करता था, तबसे मैं खिड़की पर खड़ी दिल की धड़कनों को थामें घर के भीतर पिताजी की कदमों की आहट सुनते ही कितना बेचैन हो उठती थी! उन लिफ़ाफ़ों में अपने नाम की चिट्ठी न पाकर कष्ट होता था। अगली चिट्ठी में यह पढ़कर तब और बुरा लगता था कि तुमने इसके पहले भी कई चिट्ठियाँ मेरे नाम से भेजी है जो मुझे नहीं मिली।


कुछ मेरी चिट्ठियाँ भी जो मैंने तुम्हें लिखी थी, इसी बेठन के नीचे मिली हैं। इन्हें कितना सहेजकर रखा था तुमने। अब यही सब सोचकर रोना आ रहा है। हम दोनों अपनी गृहस्थी में इतने मशगूल हो गए कि अपना वो सलोना दौर हमें याद ही नहीं रहा। जैसे हमने उनको किसी तहख़ाने में धकेल दिया हो।


अच्छा हुआ जो उस वक्त मोबाइल नहीं था। नहीं तो आयी-गई बात कब की ख़त्म हो गई होती। याद भी नहीं आता कि एक समय हमारा भी हुआ करता था, जिसमें सिर्फ़ मैं थी और तुम थे और वो एकाद विलेन, जो हमारी चिट्ठियों को चुपके से शरारत वश खोलकर पढ़ लिया करते थे। जिसका ख़ाली लिफ़ाफ़ा भी कभी मुझे सुपुर्द नहीं किए। उसमें लिखी बातों को लेकर घरवालों के सामने हमारी कितनी किरकिरी करते थे। तुम क्या जानों वो बेचैनी… मुझे तो आजतक उन चिट्ठियों को न पढ़ पाने का मलाल है। काश अबसे वो सारी चिट्ठियाँ मुझे मिल जाती !


ऐ सुनो न, उनसे कहो न कि हमारी इस एनीवर्सरी पर वे हमें वो सारी चिट्ठियाँ तोहफ़े में वापस कर दें। उसके बदले में हम उन्हें कुछ महँगे रिटर्न गिफ्ट दे देंगे। उनसे माँगो न, प्लीज़!


उनके लिए तो वह सब मनोरंजन था लेकिन मेरे लिये तो यह अनमोल निधि है। उस वक्त तुमसे दूर रहकर भी तुम्हारे पास होने का एहसास दिलाती थी ये चिट्ठियाँ।”


(रचना)




 

 

Tuesday, January 30, 2024

सनातन प्रश्न- क्या बनेगा?

‘बचना ऐ हसीनों लो मैं आ गया’ की तरह यह एक सवाल “क्या बनेगा?” हर दो घंटे बाद हम जैसी ‘हसीनों’ के सामने सीना तानकर खड़ा हो जाता है।


यह उन हसीनों (गृहिणी) की बात है जिसकी सुबह की शुरुआत ही इस प्रश्न से होती है कि क्या बनेगा? और रात्रि-विश्राम के बाद पुनः वही प्रश्न— क्या बनेगा? दाँत निपोरे अगली सुबह का इंतज़ार करते मिल जाता है। जीवन का सवाल है और जीभ की बात है तो भला इससे बच कर कोई कहाँ जा सकता है? लेकिन है कोई ऐसा प्राणी जो एक बार यह प्रश्न हल कर के इतिहास बना सके? मेरे विचार से अभीतक तो कोई नहीं है।


एक अच्छे स्टूडेंट की तरह वह पूरी लगन और उत्साह के साथ अपनी कॉपी में मतलब रसोई में जाती है। ताजी और महकती हुई पत्तियों से सजाकर एक ही चीज को अलग-अलग कलेवर में बेहतरीन ढंग से गढ़ कर टेबल पर व्यंजनों के समीकरण प्रस्तुत करती है। उपभोगकर्ता द्वारा जिसका उपभोग भी बड़े चाव से किया जाता है। तत्पश्चात उसके चेहरे पर अगाध तृप्ति  का बोध स्पष्ट नमूदार होता है। लेकिन "बच्चा अभी इससे भी बढ़िया कर सकता है (इससे भी अच्छा बन सकता है)" इस जजमेंट के साथ उपभोक्ता अपनी मुस्कुराहट वाली स्याही के छीटें मारते हुए आगे बढ़ लेते हैं।


पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे दो-तीन घंटे बाद आते हैं और फिर वही क्लास शुरू। कुछ 'बढ़िया बनाओ-खिलाओ' की डिमांड डाइनिंग टेबल पर रख जाते हैं। मतलब वह व्यक्ति जो अभी दो घंटे पहले अपना बेस्ट देकर थोड़ी चैन की सांस लेना चाहता है, उसके सामने फिर वही प्रश्न आ जाता है- क्या बनेगा?


इधर यूट्यूब वाले अलग नाक में दम कर रखे हैं। 'सेहतमंद के साथ स्वाद भी भरपूर' का दावा करते हुए तरह-तरह के चैनल खोल रखे हैं। पैतालिस मिनट की डिश अपने चैनल पर तीन मिनट में दिखाकर ये दुनिया को न जाने क्या बताना चाहते हैं...! जैसे इनसे पहले सब भूसा ही खाते रहे हों। अभी एक क्लास ख़त्म नहीं हुई कि चलो अब एक्स्ट्रा कोचिंग में।


अब तो ये बहाना भी नहीं चलता कि फला सामान रसोई में नहीं है। उसकी रीफ़िल के लिए उन्हें कहीं निकल कर नहीं जाना पड़ता है। मन में सोचा नहीं कि तमाम डिलीवरी ब्वाय दरवाज़े की बेल बजाते मिल जाएंगे। मतलब अब किसी भी हाल में यह क्लास वो बंक नहीं कर सकती।

सारा दिन इसी उधेड़-बुन में निकल जाता है और प्रश्न वहीं सिर पर खड़ा रहता है - क्या बनेगा?


(रचना त्रिपाठी)


Thursday, September 14, 2023

सबदिन की हिंदी या एक दिन की?

एक वह भी जमाना था जब हम बच्चे न तो ‘क्यूट’ हुआ करते थे और न ही ‘स्मार्ट’। मम्मियों को यह सब मालूम ही नहीं था। वे तो अपनी भाषा में ही बच्चों को नवाजती थीं। उन्हें यह भी नहीं पता था कि उनकी हिंदी का कोई एक 'दिवस' होता है और यह दिवस बड़े प्रचार-प्रसार से मनाया जाना होता है। 


उन्हें अपने बच्चे या तो बकलोल लगते थे या बहुत बदमाश। चंचल होते थे या गबद्दू। बुड़बक होते थे या चलबिद्धर। चुप्पा होते थे या बकबकहा। दब्बू होते थे या झगरहा। चतुर होते थे या भोंदू। सोझबक होते थे या लंठ। सालों साल ऐसे ही परिचय कराया जाता था। लेकिन जबसे बच्चे क्यूट, स्मार्ट, लवी-डवी, शार्प, मैनर्ड और एटिकेट्स वाले हो गये हैं शायद तभी से यह हिंदी-दिवस सिकुड़कर एक दिन का हो गया। 


हम तो क्यूट-स्वीट की गिटपिट से बेखबर रहते हुए ही बड़े हो गए। आजकल का चलन ऐसा हो गया है कि हम लगभग भूल ही गये हैं अपनी उस दुलारी हिंदी को जिसके साथ रगड़े जाने का हमारा दिन-रात का नाता था।


बच्चे अपनी माताओं को जब आजिज़ कर देते थे तो वे अपनी अनोखी हिंदी के अद्भुत भावप्रवण शब्दों का तबतक बौछार करती थीं जबतक बच्चे को पूरी प्रतीति न हो जाय। यह उत्सव प्रायः रोज ही होता था। माताएं तबतक चैन नहीं पाती थीं जबतक भाषा संपदा का पूरा उत्सव मनाकर  समाप्त न कर लें। उनके कुछ शब्द तो आज भी हमारे कानों में एक मधुर संगीत की तरह बजते रहते हैं। उनमें से एक था- लतखोरवा। जब चाहें तब ऐसे मनाये जाते थे हिंदी के दिवस।


आज जब एक दिन का उत्सव होता है तो हमें बड़ा अटपटा सा लगता है। ऐसा लगता है कि काल-कवलित होने से बाल-बाल बचायी जा रही हो हिंदी।


(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, September 5, 2023

ढक्कन-ए-सिन्होरा

विवाह के समय में बहुत कुछ नया-नया मिलता है। इसमें सिन्होरा का बड़ा महत्व है। इसकी ख़रीदारी करते हैं दुल्हन के भावी जेठ जी। लेकिन खरीदते समय उसके ढक्कन को चेक करना वर्जित होता है। एक बार जो हाथ लगा उसी को मोल करना होता है। अब यह ढक्कन सिन्होरा पर कैसे फिट बैठता है यह किस्मत का खेल है। किस्मत दूल्हा-दुल्हन की, उनके बीच प्रेम-संबंध की। 


लकड़ी से बने गोल-मटोल सिन्होरे के दो पार्ट होते हैं। पहला मुख्य पार्ट जिसमें पीला सिंदूर रखा जाता है, और दूसरा उसका ढक्कन, जो उसके ऊपर ठीक से बंद होता ही हो यह जरूरी नहीं। 


हमारी तरफ़ सिन्होरे के ढक्कन का फिट होना या ना होना, या कम फिट होना पति-पत्नी के बीच प्रेम का पैरामीटर है। यदि सिन्होरे का ढक्कन ख़ूब टाइट बंद होता है और बहुत ज़बरदस्ती करने पर खुलता है, तो माना जाता है कि उस दंपति में बहुत गहरा प्रेम है। जिसका ढक्कन ढीला होता है और इधर-उधर छिटक जाने की संभावना के कारण बहुत सँभाल कर रखना पड़ता है तो ऐसा कहा जाता है कि ऐसे दंपति में प्रेम के साथ आपसी सद्भाव भी बना रहे इसके लिए बड़ा सँभाल के चलना पड़ता है। जिस स्त्री के सिन्होरे का ढक्कन बंद ही न होता हो तो उसका भगवान ही मालिक है।  


अब ऐसे में यदि किसी के सिन्होरे का ढक्कन विवाह के पश्चात ऐसा बंद हुआ कि अब खुलता ही नहीं है तो ऐसे प्रेम को क्या कहिएगा?

इस अद्भुत रहस्य की खोज में नासा या इसरो के वैज्ञानिकों का कोई हाथ नहीं है। यह हमारे पुरखे-पुरनियों का अलौकिक विज्ञान है। जिन्होंने हमें पति को कैसे हैंडल करना है ये नहीं बताया लेकिन अपने सिन्होरे को कैसे सँभालकर रखना है यह जरूर बताया। पति तो ख़ुद-ब-ख़ुद सही हो जाएगा।


मुझे अपने सिन्होरे को हर बार ठोक-पीट कर बंद करना पड़ता है। लेकिन थोड़े प्रयास से यह भली-भाँति बंद जरूर हो जाता है। इसके बावजूद इसे एक मज़बूत कपड़े में बांधकर मुनिया में बंद कर के रखती हूँ। (अब 'मुनिया' क्या होती है यह मत पूछिएगा नहीं तो एक नई पोस्ट लिखनी होगी।)


फिलहाल आज हल-छठ है तो मैंने अपने सिन्होरे की फिर से ओवरहालिंग कर लिया है। अब बताइए आपने कैसे रखा है अपना ढक्कन-ए-सिन्होरा?

(रचना त्रिपाठी)

Tuesday, August 29, 2023

दिल चाँद सा है मेरा

दिल चाँद सा है मेरा, सनम 

उतरो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


रखो ना हकतलफ़ी इतनी 

अभी ठहरो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


छप जाएँगे वे इश्किया 

अभी लिखो ज़रा आहिस्ता, आहिस्ता…


दिल चाँद सा है मेरा…

(रचना त्रिपाठी)


#softlanding  #chandrayaan3mission

Thursday, June 15, 2023

आपके पास कथरी बची है क्या?

ऐसा कहा जाता है कि इंसान जबतक अभाव में रहता है तबतक किसी के प्रभाव में रहता है। मतलब मजबूरी में ही अधीनता सही जाती है। समझौता किया जाता है। जो पसंद न हो उसे भी निभाया जाता है। लेकिन सब चीजों के साथ ऐसा नहीं है। कुछ चीजों का प्रभाव ऐसा होता है कि ज़िंदगी भर ख़त्म नहीं होता। भले ही कोई मजबूरी न रह गयी हो। ऐसी ही एक अमूल्य चीज है हमारी ये 'कथरी'। 


यह पुराने पड़ चुके कपड़ों को मोटी सुई व धागे से गूलकर बनाया हुआ सिर्फ़ एक कामचलाऊ बिछावन भर नहीं है। यह एक लंबे समय, बड़े कालखंड व पीढ़ी-अंतराल बीत जाने के बावजूद न जाने कितने रिश्तों की मुलायमियत को ख़ुद में समेटे हुए बहुत सी सुनहरी यादों का समुच्चय है। कितनी ही बतकही, हँसी-ठिठोली, बच्चों की मालिश की रगड़ से लेकर उनकी चें-पें तक, अकेलेपन की गुनगुनाहट और नींद के खर्राटों तक कितनी ही ध्वनियों की तरंगे इसमें समायी हुई हैं। तभी तो शांत पड़ी हुई भी यह बोलती सी लगती है।



नियमित तबादलों के चक्कर में हम कहीं भी रहे, यह हर मौसम में अपनी मौजूदगी और महत्व को महसूस कराती रहती है। दूर रहकर भी सबके क़रीब रहने का एक सुखद एहसास है ये कथरी। यह पुरानी धोतियों, सूती साड़ियों और कुछ दूसरे रिटायर हो चुके कपड़ों के मेल से बनी हुई 'बेस्ट ऑफ द वेस्ट' घरेलू उत्पाद है। इसमें एक धागे को छोड़कर कुछ भी नया नहीं लगा है। लेकिन जब-जब मैं इसके साथ होती हूँ तब-तब सब कुछ नया-नया सा लगता है। जैसे यह कल की ही बात हो। 


नयी नवेली दुल्हन थी जब रात के अंधेरे में घूँघट काढ़े एक हाथ में टॉर्च और दूसरे हाथ में कथरी दबाए, छुम-छुम पायल की आवाज़ करते घर की सीढ़ियों से चढ़ती और छत पर जाकर एक कोने में अपनी कथरी बिछाकर लेट ज़ाया करती थी। गाँव में बिजली बाद में आयी। नियमित आपूर्ति तो और बाद में आयी। लेकिन यह कथरी पहले भी थी और बाद में भी बदस्तूर सेवारत है।


उन दिनों छत पर चारपाई चढ़ाने की जरूरत तो नहीं ही थी, मच्छरदानी की ज़रूरत भी नहीं थी। अभी नयी-नयी दुल्हन बनकर आयी थी तो सिर से पाँव तक साड़ी में लिपटी रहती थी। जब छत पर सोना होता था तो और विशेष सावधानी बरतनी होती थी कि कहीं सोते वक्त मुँह खुल गया तो ससुराल में अगले दिन बात फैल बनती कि दुलहिन तो मुँह-बा के सोती हैं। इसलिए सोते वक्त भी चेहरे को ख़ूब अच्छे से ढँक लेती थी कि कोई देखने न पाए। उस हालात में मच्छर क्या, मच्छर के दादाजी भी मेरा मुँह नहीं देख पाते।


मेरा एक बड़ा परिवार था ससुराल का। जहाँ एक जोड़ी जेठ और ननदों व देवरों का एक जत्था था। उसमें भी एक जोड़ा ससुर का और एक जोड़ी सास का तो किसी भी वक्त ऊपर नीचे आना-जाना लगे रहता था। ग्रामीण परिवेश के घर में कर्ता-धर्ता वही लोग थे। भोर में तीन बजे से ही उठकर नल पर खटर-पटर और झाड़ू-बहारू शुरू हो जाता था। ऐसे में यह कथरी ही एकांत में आश्रय देती थी।


जून 1999 की गर्मी में जब मैं पहली बार ससुराल के गाँव में गयी तो वहाँ बिजली पहुँची ही नहीं थी। हाथ का पंखा और फर्श पर बिछी कथरी का साथ स्थायी हो गया। मेरी सासू-माँ ने अपने हाथ से बनाई हुई नयी कथरी मुझे थमाते हुए समझाया था कि यहाँ जबतक बिजली पंखा नहीं आ जाता तबतक सबसे अच्छी नींद इसी कथरी पर आएगी। हल्की, मुलायम, आरामदेह और पोर्टेबल। जहाँ चाहो बिछा लो और जैसे चाहो इस्तेमाल करो। तबसे अबतक बहुत कुछ बदल गया है। बिजली, पंखा, कूलर और एसी भी आया लेकिन यह कथरी आज भी मेरे साथ है। 


सरकारी नौकरी में तबादलों की श्रृंखला शुरू हुई तो चूल्हा-चौका एवं अन्य सामानों के साथ गाँव से अलग गृहस्थी सम्हालने के लिए जब हम विदा हुए तो इस कथरी से मेरा मोह नहीं छूटा। सासू-माँ ने अपने बेटे के साथ-साथ मुझे यह जो दूसरा अमूल्य उपहार दिया था वह बदस्तूर मेरा साथ लगातार देता आ रहा है। बहुत कम देखभाल की जरूरत के बावजूद समय-समय पर इसका इस्तेमाल भी मैंने खूब किया है।


मैं आज इसके पुनरूद्धार में लगी हूँ। जमाने की रफ़्तार के हिसाब से सबने अपना हुलिया बदल लिया है तो हमारी कथरी क्यों न बदले! सोच रही हूँ इसे एक नया कलेवर दे ही दूँ। वैसे उम्र का असर तो प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु पर होता ही है। इसपर भी हुआ है। इसकी हालत ऐसी नहीं होती है कि इसको सार्वजनिक स्थल पर मतलब दर्जी के यहाँ ले ज़ाया जाए। 


कथरी की महत्ता और इसका सम्मान भी इसी में है कि इसे ज़मीन पर फैलाकर अपने हाथों से सिला जाय। इसके ऊपर एक साफ़-सुथरी पुरानी सूती धोती चढ़ाई जाए तो बात बने। इसको चाहे जितना नया खोल पहना दूँ, रंग बिरंगा रूप दे दूँ लेकिन मुझे लग रहा है कि इससे वह एहसास, वैसी मुलायमियत की फीलिंग दुबारा नहीं आ सकती जो पुरानी बनावट में आती थी।


(रचना त्रिपाठी)