Tuesday, May 19, 2009

घर में ब्लॉगेरिया का प्रकोप …भूल गये बालम!!!

मैने सुना था कि आइंस्टीन अपने घर का पता ही भूल जाया करते थे। आज मेरे घर भी कुछ ऐसा अजीबोगरीब हादसा हुआ। यहाँ कसूरवार भौतिकी की कोई उलझन नहीं थी। …शायद ब्लॉगरी रही हो इसके पीछे। पढ़कर आप भी पूछेंगे जैसे मैं पूछ रही हूँ-

“क्या ब्लॉगरी करते-करते ऐसा भी हो जाया करता है?”

भूल गये बालम आज श्रीमान जी सुबह अच्छे भले उठे। अपना दैनिक कार्य किया और स्टेडियम खेलने भी गये। अपने समय से ऑफिस को निकल पड़े। दोपहर में ऑफिस से फोन आया।

पूछने लगे, “वहाँ कम्प्यूटर टेबल पर मेरे चश्में का शीशा है क्या?”

मैं दोपहर की मीठी नींद से उठी, मेज पर टटोल कर देखा फिर जवाब दिया, “ यहाँ तो नहीं है? क्या हुआ?”

“देखो, शायद फ्रिज के ऊपर या उसके कवर वाली जेब में हो”

“अच्छा…!! …यहाँ भी नहीं है जी। …आखिर बात क्या है”

“ओफ़्फ़ो…! ठीक से ढूँढो न, ”

“कहाँ खोजूँ…? …एक ही शीशा है कि दोनो…?” “…और चश्मा कहाँ है?”

“वो तो मेरे पास है…” “ अच्छा देखो… बैडमिण्टन किट की ऊपरी जेब में तलाशो।”

अरे, वहाँ कहाँ पहुँच जाएगा…? ….लीजिए, यहीं है। लेकिन एक ही शीशा तो है?”

“चलो ठीक है…” उन्होंने फोन काट दिया। मैं बच्चों को लेकर फिरसे सुलाने चली गयी।

? ? ? ? ऐसा तो कभी नहीं हुआ था ? ? ? ?

शाम को जब ये ऑफिस से लौटे तो कुछ देर बाद मैंने चश्में के शीशे के बारे में जानना चाहा। जब पूरी कहानी मालूम हुई तो हम हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।

हुआ यूँ कि इन्होंने धूप की वजह से ऑफिस के लिए पैदल न निकल कर स्कूटर से जाने की सोची और हमेशा की तरह आँखों को गर्म हवा से बचाने के लिये फोटोक्रोमेटिक चश्मा भी चढ़ा लिया। वो चश्मा जिसका एक शीशा बेवफाई करके सुबह-सुबह मेयो हाल में ही फ्रेम से अलग हो बैडमिन्टन-किट की जेब में दुबक गया था। मेरे श्रीमान जी को स्टेडियम से शीशाविहीन चश्मा लगाकर घर आने और फिरसे तैयार होकर ऑफिस जाने के समय दुबारा लगाते वक्त भी इस बात का पता नहीं चल पाया था।

बता रहे थे कि इन्हें ऑफिस में जब एक दो घण्टे का शुरुआती काम पूरा करने के बाद फुरसत मिली तब अचानक मेज पर रखे चश्में पर निगाह डालने पर अपनी भूल का ज्ञान हुआ… लिखने पढ़ने का काम तो ये बिना चश्में के ही करते हैं। केवल स्कूटर पर धूल, हवा और धूप से बचने के लिए ही लगाते हैं।

उसके बाद चश्में का बाँया शीशा अपने कार्यालय कक्ष में कई राउण्ड खोजते रहे। सारी फाइलें उलट-पलट कर देख डालीं। मेज कुर्सी के नीचे भी झाड़ू लगवाया। बॉस के कमरे में भी गये। वहाँ सबने मिलकर ढूँढा। सभी दराजें और रैक भी चेक कर लिए गये। इसी बहाने कम्प्यू्टर टेबल के पिछवाड़े जमी धूल भी साफ हो गयी। तीन चार चपरासी लगाये गये। ...लेकिन सब बेकार। अन्ततः नया शीशा लगवाने का निर्णय हुआ।

अब एक के चक्कर में दोनो शीशे नये लेने पड़ेंगे...। अचानक इन्हें सूझा कि एक बार घर पर भी पता कर लेना चाहिए। फोन पर डायरेक्शन देकर मुझसे खोज करायी गयी तो शीशा ऐसी जगह मिला जहाँ सबसे कम सम्भावना थी।

“तो क्या दो-दो बार स्कूटर चलाने पर भी काना चश्मा आपका ध्यानाकर्षण नहीं कर सका?”

“वही तो..., मैं भी हैरत में हूँ। मुझे पता क्यों नहीं चल सका?”

हँसते-हँसते मेरी हालत खस्ती हुई जा रही थी। तभी इन्होंने आखिरी बात बतायी-

“जानती हो, इसी बात का पता लगाने के लिए मैं ऑफिस से वापस आते वक्त भी यही चश्मा लगा कर आया हूँ। …शहर में स्कूटर की स्पीड इतनी तेज होती ही नहीं कि आँख पर हवा का दबाव महसूस हो। बिना नम्बर का सादा चश्मा ऐसी बेवकूफ़ी भी करा गया…”

“तो क्या बिलकुल अन्तर नहीं था दोनो आँखों में…?”

मुझे सबसे ज्यादा मजा तब आया जब इन्होंने बताया कि ध्यान देने पर एक आँख मे हवा लगती महसूस हो रही थी।

क्या आप इसे ब्लॉगेरिया नहीं कहेंगे?

दरअसल गलती मेरी ही थी। आज ऑफिस निकलते समय मैनें इन्हें ‘सी-ऑफ़’ नहीं किया था। शायद ‘किचेन गार्डेन’ में पानी लगा रही थी।

(रचना त्रिपाठी)

28 comments:

  1. यह ब्लागेरिया तो कतई नहीं है मेरे एक मित्र जो नेत्र चिकित्सक भी हैं (हे ईश्वर ) बिलकुल यही कारनामा कर चुके हैं -घर से क्लीनिक तक एक आँख पर शीशा दूसरी नंगीं आँख लिए गए और अपने मरीज के बताने पर मामला समझ सके !
    तो ब्लागिंग को नाहक ही न कोसें -यह तो बहुत पवित्र प्रेम है !

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  2. वाकई मज़ेदार किस्सा है ये तो.....खूब रही...

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  3. ऐसा भी होता है। जानकर अच्छा लगा।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  4. हो जाता है कभी कभी ऐसा .. किसी का कोई दोष नहीं होता इसमें।

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  5. सी आफ़ करके अच्छी तरह से भेजो करो भाई!

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  6. कभी कभी हम जब ख्यालों में उलझे होते हैं, ऐसा हो जाता है. बीमारी की diagnosis सही नहीं है. मजा आया. आभार.

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  7. रचना जी
    कहना तो नहीं चाहिए पर कह रहा हूँ आप ब्लागेरिया से पीड़ित तब मानी जाती कि जब आप घर की रोटी बनाना / छोड़कर भूलकर ब्लागिंग करे और आपके घर के लोग रोटी को तरस जाए . हा हा हा

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  8. ऎसा भुल्लकड़ पति होने के कई फ़ायदे भी तो हैं,
    सकारात्मक नज़रिया तो यही कहता है,
    ईश्वर ऎसा भुल्लकड़ पति सबको दे ।

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  9. महेन्द्र जी देखिये न,अभी-अभी मुझे याद आया कि मेरे दोनों बच्चे नौ बज गया है अभी तक सो रहे हैं। अच्छा किया आपने याद दिला दिया। अब मैं तो चली। आपको बहुत-बहुत धन्यबाद।

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  10. bada majedar kissa hai
    aisa bhi ho jata hai
    ha ha ha ha

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  11. चलो अच्छा है...आपके घर भी एक आइन्स्टीन है :-)

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  12. आज ऑफिस निकलते समय मैनें इन्हें ‘सी-ऑफ़’ नहीं किया था।
    शायद ‘किचेन गार्डेन’ में पानी लगा रही थी।
    दोनों ही ज़रूरी काम थे समय-प्रबंधन-कौशल
    की "रचना" ज़रूरी है रचना जी
    आनंदित कर गई पोस्ट
    सादर

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  13. क्या इस कथा का शीर्षक सी-ऑफ़ नहीं रखा जा सकता ?
    या फ़िर सी-ऑफ़ किचेन गार्डेन
    मुझे लगता है दूसरा वाला शायद ज्यादा ठीक है। कम से कम फ़िर तो ऎसी गलतियों की ओर आपका ध्यान शायद चला ही जाएगा।

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  14. हा हा ! ज्यादा ब्लॉग्गिंग से ये तो होना ही था :)

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  15. कोई आश्चर्य नहीं कि कोई सर्वे एजेंसी इस बात की सर्वे करे कि ब्लॉगरों का दाम्पत्य जीवन कितना प्रभावति हो रहा है !

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  16. अमर जी से सहमत हूँ :-)

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  17. जरा ध्यान रखिये जी पर ऐसा हो जाता है.:)

    रामराम,

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  18. गलती आप की है, ऑफिस जाते वक्त आप भाई साहब को जरूर सी-ऑफ किया करें। मैं तो जिस दिन शोभा मुझे सी-ऑफ नहीं करती दो-तीन चीजें एक साथ भूल जाता हूँ।

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  19. अभी तो इस रोग की इनीशियल स्टेज है। फाइनल में तो पति पत्नी से मिलने पर कहता है - "नमस्ते बहनजी, आपको कहीं देखा है"!

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  20. ज्ञानजी अपनी बात की पुष्टि के लिये प्रमाण पेश करें।

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  21. अजीबोगरीब वाकया है
    वीनस केसरी

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  22. कई लोग चश्‍मा लगा होता है और फिर भी चश्‍मा ढूंढते हैं। उन्‍हें क्‍या कहेंगे। :)

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  23. हो जाता है ऐसा कभी कभी..हम तो एक बार इसी बीमारी के चलते रात में दो बजे नहा कर दफ्तर जाने को तैयार हो गये थे.

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  24. खैर जो भी हुआ ,आप सब कुछ संभाल ही लेंगी,

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  25. मेरी एक छोटी सी भूल का अच्छा तमाशा बना दिया। ब्लॉगरी तेरी जय हो...।

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  26. Hmmm ab jamega rang...jab mil baithe hai do bloger....

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  27. मिश्र जी के ब्लौग से सीधा आ रहा हूं।

    दिलचस्प लेखनी मैम!

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