पिछले दिनों शहर में डॉक्टर्स और वकीलों के बीच भिड़न्त हो गई। कारण ये कि दो महीने से एक वकील साहब अस्पताल में भर्ती थे, दुर्भाग्यवश ना जाने किस कारण से ये भगवान को प्यारे हो गये। वकीलों में डॉक्टरों के खिलाफ़ रोष पैदा हो गया और ये उस डॉक्टर के विरुद्ध धारा ३०२ में एफ़.आई.आर. कर डाले। यानि हत्या का मुकदमा।
जगह- जगह नारेबाजी शुरू हो गई। …डॉक्टर भी भड़क गये। वकीलों के खिलाफ़ शहर के सारे डॉक्टर इकठ्ठे हो गये और धरना प्रदर्शन शुरु कर दिया। करीब तीन-चार सौ चिकित्सा कर्मी जिसमें कुछ पैरा-मेडिकल स्टॉफ़ भी मौजूद थे, सड़क पर निकल आए। डॉक्टर साहब लोग अपने तो पीछे खड़े रहे और सामने अपने स्टॉफ़ को लगाये रहे। दोनों पक्षों की तरफ़ से धुँआधार नारेबाजी के पटाखे छूटने लगे। धीरे धीरे इन पटाखों से आग लगनी शुरु हो गई। नतीजा ये हुआ दोनों पार्टियों के बीच हाथा-पाई और जूता-चप्पल का लेन-देन शुरु हो गया।
कुछ बौराए वकीलों के हत्थे चढ़ी एक नर्स। उनका झुंड उस महिला के उपर ऐसे टूट पड़ा मानों किसी मरी हुई बिल्ली पर चील-कौए झपट रहे हों। मानवता तार-तार हो गई। उस गरीब की कमजोर काया पर लात-घूसों की झड़ी लग गयी। शुक्र है कि उसकी प्राणरक्षा की गुहार कुछ सरकारी कर्मचारियों के कान तक पहुंच गयी और उसे बचा लिया गया।
ये इंसान थे या जानवर? ये भूल चुके थे कि इनका जीवन एक माँ का कर्ज है। मै पूछती हूँ, जिस वकील ने इस नर्स के पेट में लात मारी क्या उस समय उसे, उसकी माँ याद नही आयी? जिस वकील ने उसके सीने पर लात मारी क्या उसे अपनी बहन याद नही आयी? जिसने उसके बाल पकड़ कर घसीटा उसे अपनी बेटी याद नही आयी? ये वही कानून के पेशेवर है जो खुद कानून की इज्जत नही करते, जिनके आँख का पानी मर चुका है।
ऐसे दरिन्दों से कानून की रक्षा की उम्मीद क्या की जाय?
(रचना त्रिपाठी)
अपना अहम सबसे महत्वपूर्ण है दूसरे को क्षति हो तो हो इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता बस अंहकार को संतुष्टि मिल जानी चाहिये
ReplyDeleteएक वकील होने के नाते यह स्वीकार करता हूँ कि वकीलों में कोई सामुहिक चेतना नहीं होती। वे संगठित इसलिए दिखाई देते हैं कि वे एक ही स्थान पर काम करते हैं और अधिवक्ता संघ का सदस्य होना उन के लिए जरूरी है। जब वे कोई सामुहिक गतिविधि करते हैं तो एक भीड़ की तरह काम करते हैं। उन की सामुहिक गतिविधियाँ व्यक्तिगत स्वार्थों पर केन्द्रित रहती हैं। उन में यह चेतना भी नहीं होती कि वे अपने समुदाय की हानि कर रहे हैं या लाभ। वे सामुहिक हितों के लिए कुछ नहीं करते। वे सामुहिक हितों के लिए सोचने लगें तो सामाजिक हो सकते हैं। वकील वास्तव में असंगठित समुदाय है। उसे सामुदायिक हितों के लिए संगठित होने की आवश्यकता है। यदि ऐसा हो सके तो वह सामाजिक बदलाव की बहुत बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आ सकता है।
ReplyDeleteअब क्या कहें?दोनों ही पक्ष इतने जिम्मेवार है की लोग उनके पास अपनी समस्या लेकर आते है..!अब ये ही इस तरह लड़ने लगे तो फिर..आम जनता से क्या अपेक्षा रखें?ठीक है विवाद हो सकता है..पर इससे आम जन क्या प्रेरनना लेगा?थोडा धैर्य रखना होगा..
ReplyDeleteआज के समय में दोनों वगो ने रक्षक और भक्षक का काम करने का ठेका ले रखा है.
ReplyDeleteइत्ते स्मार्ट लग रहे हैं टाई सूट में! लगता है जैसे किसी फिल्म में एक्शन हीरो हों।
ReplyDeleteआप एक छोटी-मोटी नर्स को जरा सी असुविधा के लिये परेशान न हों!
हम तो शौर्य पर बलिहारी हैं।
वैसे हमारे डाक्टर मित्र भी ऐसा शौर्य दिखाने में सक्षम हैं!
पाण्डेय सर सही कह रहें हैं .
ReplyDeleteदिनेश जी सही हैं -दरअसल मानव अभी भी कबीलाई मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है और जब खतरा कुनबे पर मडराता है तो वे हिसक मन जाते हैं -मानवता तार तार हो उठती है ! आपका आक्रोश जायज है पर यह ग्रुप मानसिकता ही ऐसी है ! पूरा समाज ही ऐसे ग्रुपों में बटा है -डाक्टर और वकील दोनों ही जबर्दस्त ग्रुप है ! तो भिड पडेंगें ही !
ReplyDeleteमैं तो आज तक ये नहीं समझ पाया की वकील नाम के प्राणी किस लिए जीते है....
ReplyDeleteअभी तक तो आपराधियों को सजा से बचने के लिए लड़ते है अब खुद ही अपराधी बनने के रस्ते पर चल पड़े है...
उफ़ ! हद है !
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