Saturday, September 24, 2016

कुछ अपने मन की

बहुत हुआ अब इनकी-उनकी
रीति-रिवाज और पोथी से
अब थोड़ा आगे बढ़ते हैं
चलो आज निकलते हैं
कुछ अपने मन की करते हैं

तुम निकलो या हम निकले
छोड़ो उन मनोविकारों को
जो आए दिन ही चरते हैं
चलो आज निकलते हैं
कुछ अपने मन की करते हैं

छोड़ के हाथ के कंगन को
सारे मोह के बंधन को
जो डर से हमें जकड़ते हैं
चलो आज निकलते हैं
कुछ अपने मन की करते हैं

मंदिर मस्जिद बँटवारों को
तोड़ के इन दीवारों को
निर्माण राष्ट्र का करते हैं
चलो आज निकलते हैं
कुछ अपने मन की करते हैं

(रचना त्रिपाठी)

1 comment:

  1. लोहे के घर में चलते हैं, भारत घूम के आते हैं...

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