Tuesday, September 20, 2016

ईप्सा

वर्षों पहले 
कुछ स्वप्न थे बुने
कुछ नींद में सजोये 
कुछ ,जगती आँखों में पले  I

कर्तव्य पथ पर डटी 
अथक, अनवरत  
चलती  रही 
निःशब्द, होठ  सिले I

लड़ती  दिन-रात
स्वाभाविक इच्छाओं से
हो परिवार  की धुरी
अभिलषित सब टले I

तिनके तिनके
जोड़ती-बटोरती
सहेजती-समेटती
स्वयं से बतकही 
स्वयं से ही गिले I

आह ! अचानक
एक एहसास 
 चालीस पार !
 अब चाहती है 
काश !
 निःशब्दता को  
 दे  आकार I
और तोड़ मौन 
निर्द्वन्द 
कर ले
हर सपना साकार I

(रचना त्रिपाठी)

No comments:

Post a Comment

आपकी शालीन और रचनात्मक प्रतिक्रिया हमारे लिए पथप्रदर्शक का काम करेगी। अग्रिम धन्यवाद।