वर्षों पहले
कुछ स्वप्न थे बुने
कुछ नींद में सजोये
कुछ ,जगती आँखों में पले I
कर्तव्य पथ पर डटी
अथक, अनवरत
चलती रही
निःशब्द, होठ सिले I
लड़ती दिन-रात
स्वाभाविक इच्छाओं से
हो परिवार की धुरी
अभिलषित सब टले I
तिनके तिनके
जोड़ती-बटोरती
सहेजती-समेटती
स्वयं से बतकही
स्वयं से ही गिले I
आह ! अचानक
एक एहसास
चालीस पार !
अब चाहती है
काश !
निःशब्दता को
दे आकार I
और तोड़ मौन
निर्द्वन्द
कर ले
हर सपना साकार I
(रचना त्रिपाठी)
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