Wednesday, June 25, 2014

रक्षक ही बने भक्षक

काश हमारे पास भी इतनी हिम्मत होती कि हम उस पुलिस वाले के नाजायज तरीके से बाइक उठा ले जाने पर पुलिस चौकी के सामने धरना ही दे सकते! लेकिन हमें केजरीवाल बनने के लिए अभी कई जनम लेने पड़ेंगे। ऐसे धरने का हश्र देखकर तो कोई समर्थक भी नहीं मिलेगा।

हमारे घर आए हुए एक संबंधी ने अपनी बाइक ऍपार्टमेन्ट बिल्डिंग के नीचे खड़ी की थी जिसे एक पुलिस वाला रात में करीब दस से ग्यारह बजे के बीच उठा ले गया। सुबह बाइक गायब देखकर सोसायटी के सिक्योरिटी गार्ड से हमने पूछा - “बाइक कहां गई..?”

उसने बताया- “पुलिस वाले आए थे, ले गये।”

“तुमने रोका नहीं?” मैंने व्यग्र होकर पूछा।

“हमने रोका,  मगर वे बोले… पूछेंगे तब बताना कि पुलिस चौकी पर आकर ले जाएं।”

“लेकिन वे बाइक को ले कैसे गये? चाभी तो हमारे पास है!” मेरे संबंधी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

“उनके पास एक चाभी थी उसी से स्टार्ट हो गयी तो लेकर चले गये” - गार्ड ने बताया।

“क्या बाइक गलत तरीके से पार्क की गई थी?” मैंने गार्ड से पूछा।

“नहीं तो, सड़क के इसी किनारे खड़ी थी जहां रोज बहुत सी गाडि़याँ खड़ी होती हैं। यहाँ और भी गाडियां पहले से खड़ी थीं जिसमें कुछ फोर-व्हीलर्स भी थीं।”

वह तो हम भी रोज देखते हैं। जिन गाड़ियों ब्लैक फिल्म भी लगी रहती हैं वह उन्हें नहीं दिखाई देता; “लेकिन सिर्फ हमारी बाइक ही क्यों ले गये, वह भी बिना कसूर बताए?”

गॉर्ड ने बताया कि उस सिपाही ने और भी गाड़ियों में अपनी चाभी लगाने की कोशिश की लेकिन लगी नहीं। उसी बाइक में चाभी लग गयी तो लेकर चले गये।

इसका मतलब तो यह हुआ कि सिपाही के रूप में वह कोई बाइक चोर था जो टोक दिये जाने पर सिपाही की भूमिका निभाने लगा। फिलहाल इस बार तो गॉर्ड ने देख लिया था। अगर उस गाड़ी को ले जाते किसी ने नहीं देखा होता तो हम यही समझते कि गाड़ी चोरी हो गयी। उसके बाद हम पुलिस स्टेशन के चक्कर काटते रहते। एफ़.आई.आर. दर्ज कराने में भी पसीने छूट जाते।

ऐसे में क्या उस पुलिस वाले के ऊपर एफ.आई.आर. नहीं दर्ज होनी चाहिए?

मै तो पुलिस की इस हरकत पर आग-बबूला थी। मगर जिनकी बाइक थी उन्होंने कहा- “हम चाह कर भी इस समय कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि वे हमारे खिलाफ कोई भी चार्ज लगा देंगे, फिर हमें महंगा पड़ जाएगा इनसे बहस करना”

वे अपनी गाड़ी लेने पुलिस चौकी पर गये तो उस सिपाही ने उनसे गाड़ी का कागज मांगा जो उनके पास मौजूद था। जब कागज में कोई कमी नहीं मिली तो उसने देर रात तक वहां गाड़ी नहीं खड़ी करने की हिदायत देते हुए वापस ले जाने की अनुमति दे दी। लेकिन जब इन्होंने बाइक स्टार्ट किया तो पता चला कि उसी शाम फुल करायी गयी टंकी का सारा पेट्रोल गायब था। वे सिपाही से तेल निकाल लेने की बात पूछ बैठे। इसपर पुलिस वाला भड़क गया।

“आप हम पर तेल चुराने का इल्जाम लगा रहें हैं! एक तो आप लोग रात-भर गाड़ी लावारिस छोड़ देते हैं। अब सुबह आ रहे हैं.. मैं रातभर बाइक की रखवाली के चक्कर में सोया नहीं।” उसने तैश में जेब से रूपये निकाले, “आज रात छ: सौ कमाया था; ये लीजिए दो सौ रुपए अपने पेट्रोल का दाम। लेकिन बाइक यहीं छोड़ जाइए। अब चालान करूंगा। आप इसे कोर्ट से छुड़ा लीजिएगा। जब कोर्ट के चक्कर काटेंगे तब सारी अकड़ हवा हो जाएगी।”

इसके बाद बाइक छुड़ाने के लिए इन्होंने कितनी मिन्नते की और कैसे सफल हुए इसकी कल्पना ही की जा सकती है। यह सब एक आम आदमी को दहशत में डालने के लिए काफी है।

अभी करीब दो महीने पहले की बात है। हमारी बिल्डिंग के गेट के सामने एक नयी चमचाती हुई बड़ी और महंगी गाड़ी खड़ी हुई तो घंटो लावारिस हालत में पड़ी रही। बिल्डिंग के लोगों को पार्किंग बेसमेन्ट से गाड़ियाँ निकालने में परेशानी होती रही। तंग आकर बिल्डिंग के ही एक सदस्य ने गेट पर से वह गाड़ी हटवाने की कोशिश की तो अचानक शराब के नशे में धुत्त चार-पांच लड़के प्रकट हो गये और उन्हें बुरी तरह मार-पीट कर उनकी जेब से रुपए और उनकी चेन भी छीन ले गये। बिल्डिंग का गार्ड जब बीच-बचाव को दौड़ा तो उसे भी मार खानी पड़ी। वह क्रूरता का यह खेल बेचारगी में देखता रहा। जबतक दूसरे लोग आवाज सुनकर नीचे आये तबतक वे सभी भाग निकले, लेकिन उनकी गाड़ी को कुछ लोगों ने घेर कर पंचर कर दिया। इसके बाद सौ मीटर दूर स्थित पुलिस चौकी से पुलिस वाले भी मौके पर पहुँच गये।

हम लोगों ने उम्मीद तो यही किया था कि शायद अब वे गुंडे-लुटेरे पकड़ लिए जाएंगे क्योंकि उनकी गाड़ी पुलिस के हाथ में थी। लेकिन अगले दिन पुलिसवालों ने उन अपराधियों से इस पीड़ित व्यक्ति का समझौता करा दिया। निर्मम पिटायी की भरपाई कुछ हजार रूपयों से करा दी गयी। पुलिस ने लेन-देन करके उसकी गाड़ी भी सुरक्षित उसके घर तक पहुंचवा दिया। उन अपराधियों की गाड़ी हमारी आंखों के सामने ही पुलिसवालों ने यह कहकर जाने दिया कि पीड़ित द्वारा एफ.आइ.आर. वापस ले लिया गया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह गाड़ी किसी बड़े नेता की थी और वे गुंडे उनके चमचे थे।

इस पुलिस चौकी की नाक के नीचे अंग्रेजी शराब की दुकानें चलती हैं जिसके आसपास सड़कों पर बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ घंटो खड़ी रहती हैं। काले शीशे चढ़े हुए। दूसरे पीने वाले अपनी बाइक की सीट पर ही चियर्स करते रहते हैं। पुलिस को और चाहिए ही क्या? कुछ महीनों पहले नुक्कड़ पर एक ‘बार’ भी खुल गया है। यहाँ पुलिस हमेशा गश्त पर रहती है लेकिन सबकुछ बदस्तूर जारी है। वे खाली हाथ राउंड पर आते हैं और अपनी ‘जेबें’ हरी-भरी करते चले जाते हैं। यह बात तब स्पष्ट हो गई जब हमारे संबंधी अपनी बाइक लेने पुलिस चौकी पहुँचे।

अब कहाँ गुहार लगाये बेचारा आम आदमी?

(रचना त्रिपाठी)

3 comments:

  1. चयन और भर्ती के लिये अन्य सेवाओं के मुकाबले ज्यादा रिश्वत पुलिस भर्ती में दी जाती है। उसके बाद मनमुताबिक क्षेत्र में पोस्टिंग के लिये भी। इतनी इन्वेस्टमेंट करने के बाद यही तरीके तो बचते हैं पुलिस के पास रिवेन्यू के।

    प्रणाम

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  2. आम आदमी की मरन है।

    भारतीय नौकरशाही में सामंती संस्कार हैं। जो अधिकार उसको सेवा के लिये मिले हैं उनको वह मजबूतों की स्तुति और कमजोर को पीडित करने के लिये इस्तेमाल करती है।

    अच्छी पोस्ट है।

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  3. यह तो हद है -आपने यह पोस्ट लिखकर अपना कर्तव्य निभा दिया है -
    मुझे लगता है इसकी नोटिस कोई कंसर्न वाला तो लेगा !

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