लखनऊ से दिल्ली की यात्रा के दौरान स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस में मेरे ठीक पीछे वाली सीट पर बैठा युवक अपनी मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था। ए.सी. चेयरकार में अपेक्षाकृत शांति थी और उसकी आवाज थोड़ी ऊँची जो बरबस ध्यान खींच लेने भर को काफी थी। उसकी बात से यह अनुमान लगा कि दूसरी ओर भी कोई पुरुष ही था । बात-चीत के दौरान उसने एक ऐसा वाक्य प्रयोग किया कि मेरी सोच वहीं जाकर अटक गयी। एक अपरिचित द्वारा मोबाइल पर किसी और से की जा रही बात पर कोई हस्तक्षेप तो किया नहीं जा सकता था; लेकिन मेरे मन में बार-बार यह वाक्य कौंधता रहा। उसने कहा था- “मेहरारुन के कमाइल बड़ा घातक बा।” इस वाक्य को सुनकर मेरे कान खड़े हो गये और दिमाग ने अपना काम करना शुरु कर दिया।
इस बात का अर्थ मुझे खूब अच्छी तरह से पता था। इसका मतलब होता है कि स्त्रियों का नौकरी करना बहुत नुकसानदेह है। मै लगातार इस बात पर मंथन करने लगी कि स्त्रियों का नौकरी करना आखिर घातक कैसे हुआ? पुरुष जब नौकरी करता है, कमाकर घर में पैसे लाता है तो कोई बात नहीं; लेकिन यदि औरत ने कमाना शुरू कर दिया तो कुछ गड़बड़ हो गयी। उस युवक की इस सोचपर मुझे तरस आती है और खींझ भी। आखिर इस बात की व्याख्या कैसे की जाय?
मुझे लगता है कि यह बात उस सोच का परिणाम हो सकती है जिसके अनुसार घर का कमाऊ व्यक्ति ही असली शक्ति का केन्द्र होता है। परिवार के लगभग सारे निर्णय या तो उसके द्वारा लिये जाते हैं या उसकी सहमति के बाद ही लागू हो पाते हैं। सामान्यतः घर का मुखिया भी वही होता है जिसके हाथ में अर्थोपार्जन का श्रोत है। एक पुरुष-प्रधान समाज में इस आर्थिक शक्ति पर पहला हक पुरुष का होता है, इसीलिए घर से बाहर निकलकर नौकरी या व्यापार करने का अवसर पहले लड़के को मिलता रहा है। घर की स्त्री बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने, रसोई संभालने और साफ-सफाई के काम में लगती रही है और घर के मालिक की इच्छाओं की पूर्ति कर लेने में ही अपने जीवन का श्रेय-प्रेय मान लेती रही है। उसकी तो जैसे कोई इच्छा ही न हो।
आजादी के साठ से अधिक साल बीत जाने के बाद अब इस स्थिति में परिवर्तन आ गया है। स्त्री ने समाज में अपनी भूमिका लगभग सभी क्षेत्रों में बढ़ायी है। अब वह नौकरी करके अर्थोपार्जन भी करने लगी है। जाहिर है कि नारी सशक्तिकरण के इस दौर की आँच ऐसे कूढ़मगज पुरुषों को लगने लगी है जो पुरानी सामन्ती व्यवस्था से आगे नहीं बढ़ पाये हैं। उन्हें स्त्री का नौकरी करना इसलिए घातक लगता है कि अब उन्हें उसके ऊपर रौब गाँठने और चेरी बनाकर रखने का अख्तियार नहीं रहा।
(रचना त्रिपाठी)
युवक की सोच तरस खाने लायक ही है।
ReplyDeleteसमय बदल रहा है। सोच भी बदल रही है। आने वाले समय और बेहतर होगी सोच।
अच्छा लेख !
वैसे
बुनियादी तौर पर हमारा समाज स्त्रियों के अर्थोपार्जन के ख़िलाफ़ नहीं रहा है. ऐसा होता तो वेदों में तमाम स्त्री ऋषि नहीं होतीं और न बाद के दौर में गार्गी, मैत्रेयी विदुषियों का ही उल्लेख मिलता. लेकिन पीछे का क़रीब दो हज़ार साल का विदेशी आक्रमणों का दौर पहले हमें मजबूर और बाद में कूढमगज बनाता गया. ये वही लोग हैं, जो अभी तक 2000 हज़ार साल पीछे ही अटके हुए हैं. उससे आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं हैं. क्योंकि इनमें आत्मविश्वास नहीं है.
ReplyDeleteकमाऊ स्त्रियां पुरुष की बराबरी का दावा करती हैं -इगो क्लैस होते रहते हैं -
ReplyDeleteऔर जब पुरुष निठल्ला हो और उसकी स्त्री कमाऊ तब तो वह पुरुष बेचारा तो भीगी बिल्ली हो रहता है -हींन भावना से ग्रस्त भी
हाँ पुरुष और स्त्री दोनों का स्तर बराबर हो तो फिर हींन भावना नहीं आती किसी में भी।
श्रोत=स्रोत
अब समाज तेजी से बदल रहा है, लेकिन फिर भी यह मानसिकता कहीं दिखायी दे ही जाती है। धीरे-धीरे इसमें भी बदलाव आ जाएगा।
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