Wednesday, January 8, 2014

औरत हो औरत की तरह रहो...!

औरत हो औरत की तरह रहो”, यह जुमला प्राय: सभी औरतों को कभी न कभी सुनने को जरूर मिला होगा। इसी वाक्य से खासकर मध्यमवर्गीय स्त्रियों को नवाजा जाता है। एक मध्यमवर्गीय परिवार में महिलाओं की स्थिति बहुत ही कठिन और बेबस होती है। क्या मतलब है ‘औरत की तरह’ होने का? मुझे लगता है इसका आशय है कि औरत की पहचान मूक-बधिर बने रहना है जो बिना किसी विरोध के अच्छे-बुरे हर तरह के कार्यों को मौन स्वीकृति प्रदान करती रहे। बस तभी उसके अंदर एक स्त्री होने के गुण परिलक्षित होते हैं वरना उसके स्त्रीत्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है।

ऐसी महिलाओं को किसी भी परिस्थिति में मुंह बंद करके रहने की सीख दी जाती है। औरत हो औरत की तरह रहो - यह इस समाज द्वारा बनाए गए मध्यमवर्गीय स्त्रियों के लिए सिद्धान्त का एक पाठ है। ऐसे परिवार की स्त्रियों को उसके पति, पुत्र, भाई और यहाँ तक कि परिवार की दूसरी स्त्रियाँ- माँ, बहन, बुआ, मौसी; और कभी-कभी उसके पड़ोसी और वहां के नजदीकी समाज द्वारा भी छोटी-छोटी बातों पर उसे अल्पज्ञ समझ कर बिना किसी सुनवाई के यह पाठ पढ़ाया जाता है। अपने परिवार में ही उसके विचारों की कोई मान्यता नहीं दी जाती।

इस बेबसी को कैसे व्यक्त किया जाय यह मै स्वयं बताते हुए असहज महसूस करती हूँ। क्योंकि मुझे भी एक बार मेरे पड़ोसी द्वारा इस सूक्ति से नवाजा जा चुका है। जिस सोसाइटी में अभी मै रह रही हूं, एक मीटिंग के दौरान मेरे द्वारा कुछ प्रश्न कर देने पर इस सोसाइटी के मुखिया ने मुझे भी यही नसीहत दी थी। जिस पल को मै आज-तक नही भुला पायी हूँ।

यह भी झुठलाया नहीं जा सकता कि कुछ महिलाएं इसे उपहार स्वरूप स्वीकार भी कर लेती है। मुझे उनकी इस स्वीकृति में बहुत बेबसी नजर आती है, क्योंकि वह अपने दिल और दिमाग से तो कुछ और सोचती हैं, लेकिन उनकी जुबान कुछ और बोलती है। शायद उन्हें बार-बार इस बात का डर सताता है कि कहीं उसे स्त्री से परे कुछ और न समझ लिया जाय। वह अपने ऊपर हुए अत्याचारों को भी इसलिए सहती रहती हैं कि कहीं यह समाज उन्हें स्त्री न होने का प्रमाणपत्र ना पकड़ा दे।

मैंने देखा है कि इस तरह की बेबसी गाँव की मजदूर औरत में या समाज के निचले तबके से संबंधित किसी परिवार की स्त्रियों में नहीं मिलती। वहाँ की औरतें मर्दों के कन्धे से कन्धा मिलाकर सारे काम भी करती हैं अपनी बातों को बड़ी ही निडरता से कहीं भी बिना झिझक रख भी देती हैं। अगर उनकी सुनवाई नहीं की जाती तो इसी समाज द्वारा बनाए गए सभी फार्मूले (साम, दाम, दंड, भेद) भी आजमा डालती हैं। समाज के उच्च वर्ग की स्त्रियों को भी अपनी बात रखने और कदाचित्‌ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित करने का अवसर है। लेकिन ‘औरत की तरह’ रहने की बेचारगी सिर्फ मध्यमवर्गीय महिलाओं में ही पायी जाती है; ऐसा क्यो?

(रचना त्रिपाठी)

7 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन शहीद लांस नायक सुधाकर सिंह, हेमराज और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. मध्यमवर्ग के साथ समस्या अधिक है , संस्कृति बचाये रखने की ठेकेदारी भी उसकी ही है , वही अल्पवर्ग की तरह जबान चलाने की आजादी भी नहीं !
    एक -एक शब्द से सहमत हूँ !

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  3. समय बदल रहा है! अब मध्यम वर्ग की महिलायें भी अपने अस्तित्व को पहचान रही हैं और बेचारगी कम हो रही है। लोग इसको स्वीकार भी कर रहे हैं। समय आगे और बदलेगा। पक्का। :)

    पोस्ट बहुत अच्छी लिखी। बधाई!

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  4. ‘औरत की तरह’ रहने की बेचारगी सिर्फ मध्यमवर्गीय महिलाओं में ही पायी जाती है; ऐसा क्यो?

    har varg mae haen kaaran ham ek dusrae kae liyae , ek dusrae kae saath nahin khadae hotae . Naari blog par aesi anek post dii gayii haen jin par bahut baaye bawela hua par kabhie aap kaa virodh mukhrit swar nahin saath me milaa , kaarn bahut sae haen / hongae par dusrae blogs par jo is sab par bahut pehlae sae likhaa jaa raha haen unpar bhi kabhie apni pratikriyaa dae
    sadar

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  5. " अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
    ऑचल में है दूध और ऑखों में पानी ॥"
    मैथिलीशरण गुप्त

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  6. विचारधाराओं को बदलने में वक्त लगता है -आप ऐसे लोगों के मुंह ही न लगिये!

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    1. ‘मुंह न लगने’ के बजाय ‘मुंह नोच लेने’ की सलाह दीजिए।

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