ससुराल में दो साल बीत गये। कमली की सारी कोशिशें नाकाम साबित हो रही थी। पूर्वा के मुकाबले वह कहीं नहीं टिक पा रही थी। दोनों बच्चों को स्कूल भेजने से लेकर रात में बिस्तर पर उन्हें सुलाते वक़्त लोरी की आवाज़ में भी अम्माजी पूर्वा को ही ढूँढती रहती। बच्चों की देखभाल में कहीं कोई कमी न आ जाए इसके लिए कमली भरसक कुछ भी उठा नहीं रखती। आज अधिक रक्तस्राव के कारण वह कमरदर्द से परेशान कमरे के भीतर पलंग पर लेटी पड़ी थी। उसकी आँखों के दोनों कोनों से झर-झर आँसू बह रहे थे।
अम्मा जी मोबाइल कानों पर लगाये कमली की माँ से उसकी शिकायतों की गठरी खोलकर बैठ गयी थीं - "जबसे आयी है यह तीसरी बार है... आज चार दिन हो गया, बच्चों को न तो समय से नहलाया-धुलाया और न ही घर के किसी काम में हाथ बँटा रही है... पूछिए ज़रा, अपनी लाडली से कबतक मातम मनाएगी? जाने क्या सिखा-पढ़ा कर भेजा है आपने!"
-"ऐसी स्थिति में मन को दुःख तो होगा ही न समधिन जी! भला कौन स्त्री माँ बनना नहीं चाहती? बिन बाप की बच्ची थी बेचारी... मैं भी अपनी परिस्थितियों के आगे मजबूर थी... इसमें उसका क्या दोष?" उसकी माँ ने विनती की।
"हाँ तो मैंने कब गिड़गिड़ाया था आपके सामने उसे अपनी बहू बनाने के लिए? ...और मेरे बेटे ने तो पहले ही साफ़-साफ़ कह दिया था कि उसे बीवी नहीं अपने बच्चों की माँ चाहिए। ....शील-संकोच तो मायक़े में ही छोड़कर आ गई थी। उसके कंठ ससुराल में आते ही खुल गए... और तो और सिर पर पल्लू आजतक नहीं ठहरता... दुल्हन हमेशा पर्दे में ही शोभा देती है।" उनकी आवाज़ कमली के कानों में भाले की तरह चुभ रही थी। अम्माजी ने आज फिर उसकी माँ को कोसना शुरू कर दिया था। उससे रहा नहीं गया। पलंग से धीरे से उठकर दीवाल का सहारा लिए वह बरामदे में आकर खड़ी हो गई।
"अब तो अड़ोसी-पड़ोसी भी जान गए कि बहू पेट से थी। ...हमारी पूर्वा हमें छोड़कर चली गई लेकिन ऊँची आवाज़ तो दूर गुन्नू पैदा हो गया तब तक किसी ने उसकी झिरखिरी तक नहीं देखी। ये महारानी तो किसी की परवाह किए बिना सारा दिन बच्चों के साथ चपड़-चपड़ करती रहती हैं..." अम्मा जी का गुबार बाहर आ रहा था।
- "तो फिर शिकायत किस बात की अम्माँ जी? पूर्वा दी आपके बेटे की दुल्हन बनकर आयी थी और मैं दो बच्चों की माँ, तो पहले बच्चों को संभालू या पल्लू... इतना अंतर तो होगा ना मुझमें और उनमें...?" आज पहली बार अधूरी बहू का कंठ अम्मा जी के सामने खुल गया था।
(रचना त्रिपाठी)
कंठ खुलना जरूरी है वरना दूसरे कंठ सदा खुले रहते हैं।
ReplyDeleteबढिया लघु कथा
शुक्रिया Rashmi ji!
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई रचना पर आपके विचारों का इन्तजार
हिंदी ब्लॉगिंग दिवस की शुभकामनाएँ :)
सादर
संजय भास्कर
बहुत व्यावहारिक बात है कहानी में और जड़ता पर प्रहार भी | उम्दा लघुकथा
ReplyDeleteअच्छी लघु कथा रचना. काश सबके कंठ खुल जाएँ.
ReplyDeleteबोलना जरूरी है
ReplyDeleteअच्छी कथा है
प्रणाम
अच्छी लघुकथा.
ReplyDeleteसटीक व्यथा को लिखा है आपने.
ReplyDelete#हिंदी_ब्लागिँग में नया जोश भरने के लिये आपका सादर आभार
रामराम
०२७
सटीक लेखन.....अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉग दिवस पर आपका योगदान सराहनीय है. हम आपका अभिनन्दन करते हैं. हिन्दी ब्लॉग जगत आबाद रहे. अनंत शुभकामनायें. नियमित लिखें. साधुवाद.. आज पोस्ट लिख टैग करे ब्लॉग को आबाद करने के लिए
ReplyDelete#हिन्दी_ब्लॉगिंग
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ReplyDelete.
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सही है, कब तक चुप रह झेलती वो।
...
प्रभाव छोड़ने में समर्थ !
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉगिंग में आपका योगदान सराहनीय है , आप लिख रही हैं क्योंकि आपके पास भावनाएं और मजबूत अभिव्यक्ति है , इस आत्म अभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलेगी वह सैकड़ों तालियों से अधिक होगी !
मानती हैं न ?
मंगलकामनाएं आपको !
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
बिल्कुल मानती हूँ और इसे महसूस भी करती हूँ।
Deleteआपकी टिप्पणी मेरे लिए अमूल्य है।
अन्याय का विरोध करना जरुरी है। सुंदर प्रस्तुति।
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