कॉलेज़ में परीक्षा हो जाने के बाद की छुट्टियाँ थी। मैं अपनी बुआ के घर आयी हुई थी। सावन का महीना था और पहला सोमवार भी। रिमझिम बारिश हो रही थी। सुबह-सुबह लड़कियों का एक झुंड अपने हाथों में धतूरे का फूल, फल, भांग, बेलपत्र और लोटे का जल लिए घर में घुसा और मुझे ढूंढने लगा। सुबह के सात बज रहे थे और मैं सो रही थी। उन दिनों पढ़ाई से छुट्टी लेकर सिर्फ खाना-पीना, सोना और खूब मौज-मस्ती का रूटीन था। इतने दिनों में अड़ोस-पड़ोस की लड़कियों के साथ मैं भी थोड़ा घुल-मिल गई थी। उस झुण्ड की आवाज मेरे कानों में आ रही थी लेकिन मैं उससे बचने के लिए अपने कानों को तकिये से दबाकर सोने की मुद्रा बनाये पड़ी हुई थी। लेकिन मुझे सोने नहीं दिया गया।
बुआ ने झकझोरकर मुझे जबरदस्ती जगा दिया और बोली - ''जल्दी नहा-धो के तैयार हो लो, शिव मंदिर जाना है... सारी लड़कियां तुम्हारा इंतजार कर रही हैं।"
आंगन में चहल-पहल और उन सखियों के हंसी-विनोद की बातें मेरे कमरे तक भी आ रही थी- ''देखा जाय इसबार शिव जी किस-किस पर प्रसन्न होते हैं''
अवधड़ दानी शिव की महिमा तो मैंने ख़ूब सुन रखी थी लेकिन मुझे अभी उनकी मंगल कृपा पाने की कोई जल्दी नहीं थी। लेकिन उसदिन मैं जबरदस्ती शिवालय भेज दी गई थी। बड़े अनमने होकर पहली बार ही मैंने उन्हें जल चढ़ाया था। पर इतनी जल्दी उनकी कृपा हमपे बरस जाएगी ये नहीं सोचा था। वर्षों से अपने वर के इंतजार में बैठी अनेक लड़कियों को इग्नोर मार के महादेवजी मुझपर इतने प्रसन्न हो गये कि अभी साल भी नहीं बीता कि मेरी शादी पक्की हो गई।
मुझे इतनी 'खुशियां' एक साथ मिल जाएंगी मैंने कभी सोचा न था। कहाँ दो-चार कपड़ो में कॉलेज का आना-जाना था.. और अब बिन मांगे बहुत कुछ मिल रहा था। अटैची भर-भर के रंग-बिरंगी साड़ियां, गहने, सुंदर-सुंदर चप्पलें, ब्यूटी किट और साथ में चार पहिये वाली गाड़ी भी। मैंने तो सोचा था पढ़-लिख कर कोई अच्छी सी जॉब मिल जाय तो एक-एक कर अपने सारे शौक पूरी करूंगी। लेकिन यहाँ तो 'बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न चून' वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। सुना था कि भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है। इसे साक्षात् देखने और महसूस करने का मौका मेरे हाथ लग गया था।
एक सेट कौन पूछता है, पूरे डबल-ट्रिपल सेट सामान बक्से में कस-कस कर मिले। इस मामले में मायका और ससुराल दोनों मेरे ऊपर मेहरबान थे। अब इतनी सारी 'खुशियां' एक साथ बरस गयीं कि कैसे सम्हालू, कहाँ उठाऊँ, कहाँ धरूँ और कहाँ सरियाऊँ इसी उधेड़बुन में आज तक लगी हूँ। घर में जूते-चप्पल, कपड़े लत्ते, अब मेरे अकेले के ही नहीं हैं। पति व बच्चों के उससे चार-गुने हो गए हैं। आलमारियां छोटी पड़ रही हैं। इनसब चीजों को सम्हालने से अभी तक फुर्सत नहीं मिल पायी कि दुबारा शिवजी को जल चढ़ाने जाऊँ।
जल्दी-जल्दी अब सबकुछ समेट लेना चाहती हूँ ताकि अगली बार जल चढ़ाने से पहले थोड़ा 'स्पेस' रहे। कहीं शिवजी हमपे दुबारा प्रसन्न हो गए तो आगे क्या होगा!
(रचना त्रिपाठी)
बहुत लाजवाब लिखा आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
सावन आया
ReplyDeleteयादें साथ लाया
बहुत अच्छी प्रस्तुति
वाह सच हमने तो खूब शिव मुट्ठी चढ़ाई और शिवजी प्रसन्न हुए ।एक जमाने मे खूब सारी सादिया गहने की शादी की खुशी हिती
ReplyDeleteहोती थी।