किसान वास्तव में क्या होता है और उसका मर्म क्या है? यह वही समझ सकता जिसका पूरा जीवन किसानी पर निर्भर हो। "हरियाली लाये खुशहाली" का मंत्र हम सभी को सुनने में बहुत अच्छा लगता है। पर इस स्लोगन के पीछे एक किसान के माथे पर खिंची सिकुड़न, होठों पर पड़ी पपड़ी, और उसके पैरों में फटी बिवाई चीख-चीख कर बताती हैं कि उनके जीवन में कैसी हरियाली और कितनी खुशहाली है।
क्या किसी अर्थशास्त्री या मनोचिकित्सक ने कभी यह जानने अथवा इसपर शोध करने की कोशिश की है कि वास्तव में किसानों की मनोदशा क्या है? खेती में उनकी लागत और आमदनी कितनी है? है कोई झंडाबरदार पार्टी जो इनकी बेटियों से पूछे कि वे कितनी खुशहाल रहती हैं? इनके बच्चों की शिक्षा का फल किस पेड़ में लगता है? घर में पड़ी बीमार माँ की दवा किस खेत में उगायी जाती है?
मैंने जिन किसानों को देखा है उन्हें नहीं मालूम कि अच्छा स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा क्या होती है? ऐशो-आराम की जिंदगी क्या होती है? वे जिंदगी भर इसकी झूठी आस में मारे-मारे फिरते हैं। अगर किसान का दर्द जानना है तो पूछो कर्ज में लदे उस किसान से जो अपनी जवान बेटी की शादी के लिए दर-दर ठोकरें खाता फिरता है। उसकी बेटी से पूछो जो अपने अवसाद ग्रस्त पिता की नींद से सोती है और जागती है। इस परिस्थिति में उनके बच्चों को किस प्रकार के विकास की आशा होगी?
वह या यह चाहे जो सरकार हो, वे ऐसे ही हमारे किसान भाइयों के कंधे पर अपने क्षुद्र स्वार्थ का बोझ टिका कर राजनीतिक सत्ता के झूले में सवार हो चुनावी जीत के रिमझिम सावन में कजरी गाती और घपले-घोटालों की पेंगे मारती आती-जाती रहेंगी।
अभी कुछ वर्ष पहले सत्ता की मलाई पर दूर से लार टपका रहे कुछ शातिर शिकारियों ने जंतर-मंतर पर एक तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी वैचारिक आंदोलन का नारा बुलंद किया था। वे आम आदमी की आशा भरी भावनाओं और समर्थन की सवारी गांठकर बाजे-गाजे के साथ सत्ता के स्वर्ण-महल में प्रवेश कर गये और अब वहाँ बैठकर चांदी काट रहे हैं। अब समझ में नहीं आता कि आम आदमी देखने मे कैसा होता है? आज वो खुद अपने बारे में कन्फ्यूज हो गया है कि वह वास्तव में है क्या? क्या वह वाकई आम है या फिर एक मुँह चिढ़ाती टोपी लगाकर सत्ता के नशे में चूर धूर्त राजनैतिक रोटियाँ सेकने वाला खास वीआईपी बन चुका है?
इस कृषि-प्रधान देश में हरित क्रांति लाने का दावा करने वाले लोग आज किसानों को उकसाकर दंगा कराने और कत्लेआम मचाने का नंगा-नाच करने पर उतारू हैं तो उनका उद्देश्य भी किसानों का दुःख दूर करना नहीं लगता। वे तो अपनी छिन चुकी जमीन को हासिल करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर हैं। उनकी आशा का केंद्र आज किसान बना है जिसकी बलि लेने में न इनकी रूह कांपती है और न ये विचलित होते हैं। किसान तो होता ही इसीलिए है।
हमारे किसान भाइयों को इस जीते-जागते फरेब से सीखने और समय से पहले सावधान हो जाने की जरूरत है। इस हिंसक आंदोलन में किसका कितना भला होगा इसपर उन्हें एकजुट होकर चिंतन करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ये फ़रेबी आपके कंधे पर बंदूक रखकर सत्ता का शिकार करने के चक्कर में आपकी थाली से दो जून की रोटी भी छीन लें।
(रचना त्रिपाठी)
No comments:
Post a Comment
आपकी शालीन और रचनात्मक प्रतिक्रिया हमारे लिए पथप्रदर्शक का काम करेगी। अग्रिम धन्यवाद।