दैनिक जागरण 'साहित्यिक पुनर्नवा' में 'राइट च्वॉइस'
उत्सव की चमक-दमक के साथ इतनी छुट्टियां कैसे बीत गईं पता ही नहीं चला। पर उसके बाद का दो दिन जैसे बीता मत पूछिए! घर को नये सिरे से व्यवस्थित करने का काम छोटा नहीं है। दो दिन थकाऊ और पकाऊ काम करते हुए एक उम्मीद के साथ बीते कि दो दिन बाद सब ठीक हो जाएगा। बस आज की सुबह का इंतज़ार था। आज सुबह से नज़र बार-बार हमारे फ्लोर पर ही सामने वाले फ़्लैट के दरवाजे पर जाकर टिक जा रही थी।
किसी बड़े शो-रूम में भी मैं उतनी लगन से चप्पलों का मुआयना नहीं करती जितना कि उस पीले सोल वाली प्लास्टिक की चप्पल की खोज उस दरवाजे पर करती हूँ। खासतौर पर जब एक दो-दिन की छुट्टियां बीतने के बाद उसे देखने जाती हूँ तो वहाँ चप्पलें न हों तो दिल बैठ जाता है और मन हलकान हो जाता है।
उसकी चप्पल उसके होने की निशानी होती है। लेकिन आज वह चप्पल मुझे नहीं दिख रही थी जिससे मन उद्विग्न हो रहा था। सच वहाँ उसकी चप्पल देखकर मन को तुरन्त राहत मिल जाती है, कसम से। लेकिन आज बहुत देर तक बेचैनी बनी रही। जब बहुत देर तक मुझे उस चप्पल के दर्शन नहीं हुए तो मन निराशा के समुद्र में गोते लगाने लगा। हर दो मिनट बाद अपने दरवाजे से झांककर देखने के बजाय अब मैं बाहर ही खड़ी हो गयी। कुछ देर बाद वहाँ कुछ हरकत हुई। सामने वाले भाई साहब ने अपने घर का फाटक खोला। मेरी नजर उनके फाटक पर ही अटकी हुई थी। झट से उनसे पूछ बैठी "सविता आयी है क्या? उन्होंने कहा "हाँ, आयी है।" बस, फिर क्या था। मन की सारी बेचैनी शांत हो गयी, भीतर सुलग रहा गुस्सा काफ़ूर हो गया, अटकी हुई साँस फिर चलने लगी। बल्कि, अब जाके मेरी साँस में साँस आयी।
आप सोच रहे होंगे कि आखिर उस चप्पल में ऐसी क्या खास बात हैं जो रोज सुबह सामने वाले फ़्लैट की देहरी पर नजरें टिका लेती हूँ, दरवाजे की जांच-पड़ताल कर डालती हूँ? दर असल मेरी कामवाली पहले सामने के फ्लैट में आती है और वहाँ का काम निपटा कर मेरे घर आती है। हुआ ये कि इस दिवाली में उसने अपना चप्पल बदल लिया था और उसके बाद वह दो दिन भैया दूज की छुट्टी पर अपने गाँव चली गयी थी। लौटकर आयी तो नयी चप्पल में जो वहाँ पड़ी तो थी लेकिन मैं समझ न सकी कि यह उसी की है।
आज उसके बिना गुजरने वाला तीसरा दिन था, आज उसे आना था सो रात के कुछ बर्तन मैंने सिंक में ही छोड़ रखे थे। सुबह बच्चों का नाश्ता बनाने के बाद किचेन के काम के साथ ही कुछ और काम फैले पड़े थे जो मैं उसके नाम पर अक्सर छोड़ दिया करती थी। आज तो बस अब रोना ही आ रहा था।
अंततः मेरे धैर्य की परीक्षा समाप्त हुई। तभी से मैं कैटरीना कैफ और शाहरुख़ खान के गाने "साँस में तेरी साँस मिली तो मुझे साँस आयी" के बारे में सोच रही हूँ। मुझे तो उसकी वो चप्पल देखकर साँस में साँस आ जाती है। इसीलिए कहा गया है कि अपनी-अपनी च्वाइस है। जिसको जिसमें सुख मिले उसी में मन रम जाता है। यही है राईट चॉइस।
(रचना त्रिपाठी)
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