परिवार को चलाने के लिए माँ-बाप घर के अंदर एक आचार संहिता और कुछ नियम-कानून बनाते हैं। वे यह उम्मीद भी करते हैं कि परिवार में रहने वाले सभी छोटे-बड़े इस नियम कानून के भीतर रहकर ही संबधों का निर्वाह करें।
लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता है कि यही माता-पिता अपने बेटे से कुछ अलग और दामाद से कुछ अलग तरीके का व्यवहार पसंद करते हैं। माता-पिता जब अपनी बेटी के विवाह के लिये वर ढूँढते हैं तो वे अपने दामाद में कुछ खास गुणों की अपेक्षा जरूर करते हैं। लड़का नौकरी-शुदा हो ताकि मेरी बेटी को कभी किसी वस्तु के लिये किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। …लड़का ऐसा होना चाहिए जो मेरी बेटी की हर तकलीफ को अपनी तक़लीफ समझे। मेरी बेटी की खुशियों में ही उसे खुशी मिले। माता-पिता के लिए ऐसा दामाद आदर्श होता है। अगर उनको मनचाहा दामाद मिल जाता है तो वह उसकी प्रशंसा कुछ इस प्रकार करते है:-
मेरा दामाद कितना अच्छा है जो मेरी बेटी के हर काम में हाथ बँटाता है। जब वह खाना बनाती है तो किचेन में उसकी मदद करता है। …कपड़े धुलती है तो वह कपड़ों को बाहर फैला देता है। …मेरी बेटी से पूछे बिना कोई काम नही करता। जरूर मैने पिछले जनम में कोई पुण्य किए होंगे तभी मुझे इतना सुयोग्य दामाद मिला है। हम तो धन्य हो गये उसे पाकर।
लेकिन जब वही माँ-बाप अपने बेटे के लिए बहू ढूँढते हैं तो उससे उनकी उम्मीदें कुछ इस प्रकार होती है:
लड़की पढ़ी-लिखी, सुशील और गुणवन्ती होनी चाहिए जो घर को अच्छी तरह सम्हाल सके, सास-श्वसुर की सेवा करे, उनकी आज्ञा का पालन करे वगैरह-वगैरह…। लेकिन अगर इनका बेटा बिल्कुल इनके पसन्दीदा दामाद की तरह अपनी पत्नी पर कुछ अधिक ध्यान देने लगता है तो इनका नज़रिया अपने बेटे के लिए ही बदल जाता है। अगर वह अपनी पत्नी के साथ किचेन में हाथ बँटा रहा है तो ‘जोरू का गुलाम’ कहलाने लगता है। अगर उसे अपनी पत्नी की परेशानी से तकलीफ होने लगे और वह उसे दूर करने के लिए कुछ उपाय करे तो उसे कुछ इस तरह कहा जाता है- “घरघुसना कहीं का, जब देखो तब अपनी बीबी का मुँह देखता रहता है। ...इतनी तपस्या से पाल-पोस कर बड़ा किया लेकिन बहू के आते ही हाथ से निकल गया।” अपने आप को कोसते हैं- ‘न जाने पिछले जन्म में कौन सा कर्म किया था जो हमें यह दिन देखने को मिल रहा है।’
इसी प्रकार अधिकांशत: ऐसा देखा जाता है कि माँ-बाप का नजरिया बेटी के लिए कुछ और बहू के लिए कुछ और ही होता है। यह मेरे विचार से सरासर गलत है। आपका क्या ख़याल है?
(रचना त्रिपाठी)
मेरा ख्याल भी आप से कुछ अलग नही है, आपने तो वो सब कुछ लिख डाला जो कुछ हम आये दिन समाज मे देख और महसूस कर रहे हैं.
ReplyDeleteआपका लेख वाकई सही है...एक ही इंसान के कई रूप होते हैं ...वो बस अपना फायदा देखता है ...चित भी मेरी और पट भी मेरी
ReplyDeleteआप सही कह रही हैं और यही चित पट वाली आदत ही समाज मे फ़ैली अनेक बुराईयों की जड है. पता नही कैसे कर पाते हैं ऐसा व्यवहार..बेटी के साथ कुछ और बहू के साथ कुछ और.
ReplyDeleteरामराम.
संयुक्त परिवारों में बहु सबकी प्यारी होती है ,सभी उसको स्नेह देना चाहते हैं .
ReplyDeleteअब अकेले पति महोदय ही हर पल साथ डेट रहेगें तो लोगों को अपने स्नेह बाँटने का मौका कहाँ मिलेगा
इस नजरिये से भी देखिये !
आपने यह भी सुना ही होगा -
ससुराल पियार जबसे रिपु रूप कुटुंब भये तबसे
(कलि प्रसंग में तुलसी ! )
bahut sahi likha apne.
ReplyDeleteWishing "Happy Icecream Day"...See my new Post on "Icecrem Day" at "Pakhi ki duniya"
संयुक्त परिवारों की बात छोड दें तो जो आपने कही है यही वास्तविकता है. आभार.
ReplyDeleteवह अपनी पत्नी के साथ किचेन में हाथ बँटा रहा है या बीबी के कपडे धो रहा होता है तो ‘जोरू का गुलाम’ कहलाने लगता है। अगर उसे अपनी पत्नी की परेशानी से तकलीफ होने लगे और वह उसे दूर करने के लिए कुछ उपाय करे तो उसे कुछ इस तरह कहा जाता है- “घरघुसना (घरघुस्सू) कहीं का, जब देखो तब अपनी बीबी का मुँह देखता रहता है। ...इतनी तपस्या से पाल-पोस कर बड़ा किया लेकिन बहू के आते ही हाथ से निकल गया.......
ReplyDeleteबहुत ही सटीक पोस्ट रचना जी . अपने इसके माध्यम से समाज में बहुत कुछ हो रहे के बारे काफी कुछ बता दिया है जो असलियत और हकीकत है . आपकी पोस्ट पढ़कर अच्चा फील हुआ. आभार. लिखती रहिये . शुभकामनाओ के साथ.
यह दोमुहापन समाज का कदम कदम पर दीखता है। कभी तो लगता है कि इस भारतीय समाज में न रीढ़ है, न नैतिकता। लिजलिजा गोजर है यह!
ReplyDeleteसुन्दर! घरघुसने बढ़ने चाहिये! :)
ReplyDeleteअनूपजी जो आशा कर रहे हैं वो आशा बड़ी तेजी से पूरी हो रही है।
ReplyDeleteदुर्भाग्य से स्त्री ही इसमें एक डोमिनेंट रोल निभाती है ..यदि हर बहू सोचे जिन पीडाओं से वो गुजरी सास बनकर अपनी बहू को नहीं गुजरने देगी....तो आधी समस्या वैसे ही हल हो जाए ... वैसे अब वक़्त बदल रहा है ......कामकाजी माँ बाप के चलते ये आवश्यक है की दोनों एक दुसरे के काम को समझने लगे है ....कम से कम नयी पीढी तो.....ओर शायद अगले दस पंद्रह सालो में ओर बेहतर हो जाए
ReplyDelete“घरघुसना कहीं का" को हमारी अम्मा ’मौगड़ा" बुलाती थी. कनाडा जब आईं और हमें खाना बनाते देखीं तब सुना था..ह्हा हा!!
ReplyDeleteवैसे आपका कहना बिल्कुल सही है ..यही वो दो नजरें हैं जो न सिर्फ बेटा-दामाद वरन बेटी और बहु में भी कुछ ऐसी ही विभाजित विचारधारा रखती हैं. बढ़िया विषय.
बहू-बेटी में तो लोग फर्क करते ही हैं -देखिये यह किस सदी तक चलता है.
ReplyDeletekilkul shi likha hai aapne .parntu ab dheere dheere jaha pti patni dono kam par 10 -10 ghnte bahar jate hai mansikta bdal rhi hai .
ReplyDeleteaur ab to khi khi ak ak bchha hone se tulna ka kam bhi nhi ho pata .khair acha likhti hai aap .
dhnywad
kikul ko bilkul pade.plz
ReplyDeleteयही दस्तुर है जमाने का जिसे नजरिया कह कर टाल दिया जाता है...लेकिन वस्तुत: जिस आदर्श की तलाश हम करते हैं वो खुद की बेहतरी से ही पनपती है...और जैसे ही इससे खुद का भला होना रुक जाता है..तो कहते हैं कि जमाना बदल गया है।
ReplyDeleteबहत सही आपने लिखा है. आज की सोच के मुताबिक.
ReplyDeleteजीतेन्द्र सिंह
yahan har koi apna fayda bas dekhta hai...nice post.
ReplyDelete"युवा" ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
हमारी दोहरी मानसिकता को उद्घाटित कर आपने सत्य ही लिखा है. इसकी सार्थकता तब है जब कम से कम आप इससे मुक्त रहें.
ReplyDeletedivyanarmada.blogspot.com मर्मस्पर्शी कथा हेतु बधाई. पर आपका स्वागत है.
रचना जी बिलकुल सही लिखा है | इस दोहरी मानसिकता से हमारा समाज ऊपर नहीं उठ पाया है |
ReplyDeleteaapne bahut hi sacchi baat likhi hai ji .. man ko bha gayi ... samaaz me yahi sab kuch to hote rahta hai ...badhai
ReplyDeletevijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
Dil ko chhu gayee aapkee baat.
ReplyDelete{ Treasurer-T & S }
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteWaah Waah Waah !!! Kya baat kahi aapne...Ekdam sou taka sahi .....Poora ka poora sach...
ReplyDeleteHam kitne aaram se dohre mandand banate hain aur ekbaar bhi ruk kar thahar kar apne vyavhaar ko nahi dekh soch pate....
Yahi to karan hai ki bahuyen betyan nahi ban patin...aur maja yah ki jyadatar theekra bhi unhi ke sar is baat ke liye foda jata hai...
अरे गजब रचना जी....कितनी सहजता से आपने इस कटु सच्चाई को बयाँ कर दिया....बहुत अच्छे....सच....आपका आभार....!!
ReplyDeleteकहानी घर घर की। मध्यम वर्ग के परिवारों का सजीव चित्रण किया है। बधाई।
ReplyDeleteयह मन की चाहत है जो बदलती रहती है। तभी तो कहते हैं कि घुटने पेट की तरफ ही मुड़ते हैं। इसी का नाम दुनिया है।
ReplyDeleteरचना जी लगता है आप मेरी कहानी लिख रही होँ क्योँकि मेरी लाइफ सेम इसी तरह है मैँ तो अपनी जिँदगी से तंग आ गया हूँ पता नहीँ कब मेरे मम्मी पापा इस बात को समझेँगे।
ReplyDeleteमैँ अगर अपनी ससुराल एक दिन रुक जाऊँ तो उन लोगोँ को लगता है कि मैनेँ कितना बड़ा पाप कर दिया और जब उनका दामद आता है तो सोचते हैँ वो घर ही न जायेँ।