दो दिन बाद पच्चीसवीं सालगिरह है। पता नहीं सुबह से बक्से में क्या टटोल रही है? न जाने कौन सा खजाना उसके हाथ लग गया है। उसी में उड़ी-बुड़ी जा रही है। कभी मुस्कुराती है तो कभी सिसकियों की आवाजें आने लगती हैं। कितना काम पड़ा है? ये औरत भी न, हद करती है!
— “अरी भई, जल्दी करो। कहाँ खोयी हो? बहुत काम है मेरे ज़िम्मे। चलो पहले तुम्हारा गिफ्ट दिला दूँ उसके बाद बाक़ी के काम होंगे। ऐसा कौन सा ख़जाना मिल गया जो वहाँ से हिलती नहीं तुम?”
शायद कुछ चिट्ठियाँ थी। जो राघव ने उसके नाम अपनी नौकरी से पहले पढ़ाई के वक्त लिखी थी।
— “खजाना ही समझो, सनम। वो मोतियों सी अक्षर में गुथी लटपटी बातें, मीठे-मीठे गानों की रोमांटिक पक्तियाँ… छोटे-छोटे प्यार से रखे हुए वे नाम जो तुमने मेरे लिए इन चिट्ठियों में लिखे हैं। मेरे लिए किसी भी ख़ज़ाने से बढ़ कर है। उन दिनों इन्हें पढ़कर मैंने ख़ुद को वहीदा रहमान तो कभी वैजयन्ती माला से कम नहीं समझा। सच कहूँ, तो नई-नवेली दुलहिन के सारे नख़रे तो इन चिट्ठियों ने ही ढोये हैं।
इनको पढ़कर इतने वर्षों के बाद मन में वहीं पुराने बसन्ती उमंग भरे एहसास उमड़ पड़े हैं। जो अबतक न जाने कहाँ गुम से पड़े थे? आज जाके हाथ लगे हैं। सब पढ़ लूँगी तभी हिलूँगी यहाँ से। कितनी मीठी यादें हैं। सबको अपनी स्मृतियों में समेटना है अभी। वक्त तो लगेगा ही।
वही चिट्ठियाँ हैं जो तुमने मेरे लिए लिखी थीं। आज बहुत सही समय पर मिली हैं। देखो न, उन लम्हों को कैसे इन चिट्ठियों ने अपने अंदर क़ैद कर लिया है। आज सब तरो-ताज़ा हो गये। वो लम्हें वो बातें … ऐसा लगता है जैसे आज भी मैं वहीं खड़ी हूँ। और तुम हमसे कोसों दूर अपने रोज़गार की तैयारी में लगे हो। इन चिट्ठियों ने उस दूरी को कितना कम कर दिया था ! इससे हरदम तुम्हारे आलिंगन का एहसास होता था।
जब डाकिया पिताजी के हाथों में लिफ़ाफ़ों का संकलन देकर साइकिल की सीट पर फ़लांग कर बैठता और तेज गति से पैडल मारते हुए दरवाज़े से दूर मेरी आँखो से ओझल हो जाया करता था, तबसे मैं खिड़की पर खड़ी दिल की धड़कनों को थामें घर के भीतर पिताजी की कदमों की आहट सुनते ही कितना बेचैन हो उठती थी! उन लिफ़ाफ़ों में अपने नाम की चिट्ठी न पाकर कष्ट होता था। अगली चिट्ठी में यह पढ़कर तब और बुरा लगता था कि तुमने इसके पहले भी कई चिट्ठियाँ मेरे नाम से भेजी है जो मुझे नहीं मिली।
कुछ मेरी चिट्ठियाँ भी जो मैंने तुम्हें लिखी थी, इसी बेठन के नीचे मिली हैं। इन्हें कितना सहेजकर रखा था तुमने। अब यही सब सोचकर रोना आ रहा है। हम दोनों अपनी गृहस्थी में इतने मशगूल हो गए कि अपना वो सलोना दौर हमें याद ही नहीं रहा। जैसे हमने उनको किसी तहख़ाने में धकेल दिया हो।
अच्छा हुआ जो उस वक्त मोबाइल नहीं था। नहीं तो आयी-गई बात कब की ख़त्म हो गई होती। याद भी नहीं आता कि एक समय हमारा भी हुआ करता था, जिसमें सिर्फ़ मैं थी और तुम थे और वो एकाद विलेन, जो हमारी चिट्ठियों को चुपके से शरारत वश खोलकर पढ़ लिया करते थे। जिसका ख़ाली लिफ़ाफ़ा भी कभी मुझे सुपुर्द नहीं किए। उसमें लिखी बातों को लेकर घरवालों के सामने हमारी कितनी किरकिरी करते थे। तुम क्या जानों वो बेचैनी… मुझे तो आजतक उन चिट्ठियों को न पढ़ पाने का मलाल है। काश अबसे वो सारी चिट्ठियाँ मुझे मिल जाती !
ऐ सुनो न, उनसे कहो न कि हमारी इस एनीवर्सरी पर वे हमें वो सारी चिट्ठियाँ तोहफ़े में वापस कर दें। उसके बदले में हम उन्हें कुछ महँगे रिटर्न गिफ्ट दे देंगे। उनसे माँगो न, प्लीज़!
उनके लिए तो वह सब मनोरंजन था लेकिन मेरे लिये तो यह अनमोल निधि है। उस वक्त तुमसे दूर रहकर भी तुम्हारे पास होने का एहसास दिलाती थी ये चिट्ठियाँ।”
(रचना)
हम 70-80 के दशक में पैदा हुए लोग
ReplyDeleteकितना लगाव रखते हैं ना चिट्ठियों से डायरी से
मैं भी निकाल निकाल कर पढ़ता हूँ हर वर्ष