‘बचना ऐ हसीनों लो मैं आ गया’ की तरह यह एक सवाल “क्या बनेगा?” हर दो घंटे बाद हम जैसी ‘हसीनों’ के सामने सीना तानकर खड़ा हो जाता है।
यह उन हसीनों (गृहिणी) की बात है जिसकी सुबह की शुरुआत ही इस प्रश्न से होती है कि क्या बनेगा? और रात्रि-विश्राम के बाद पुनः वही प्रश्न— क्या बनेगा? दाँत निपोरे अगली सुबह का इंतज़ार करते मिल जाता है। जीवन का सवाल है और जीभ की बात है तो भला इससे बच कर कोई कहाँ जा सकता है? लेकिन है कोई ऐसा प्राणी जो एक बार यह प्रश्न हल कर के इतिहास बना सके? मेरे विचार से अभीतक तो कोई नहीं है।
एक अच्छे स्टूडेंट की तरह वह पूरी लगन और उत्साह के साथ अपनी कॉपी में मतलब रसोई में जाती है। ताजी और महकती हुई पत्तियों से सजाकर एक ही चीज को अलग-अलग कलेवर में बेहतरीन ढंग से गढ़ कर टेबल पर व्यंजनों के समीकरण प्रस्तुत करती है। उपभोगकर्ता द्वारा जिसका उपभोग भी बड़े चाव से किया जाता है। तत्पश्चात उसके चेहरे पर अगाध तृप्ति का बोध स्पष्ट नमूदार होता है। लेकिन "बच्चा अभी इससे भी बढ़िया कर सकता है (इससे भी अच्छा बन सकता है)" इस जजमेंट के साथ उपभोक्ता अपनी मुस्कुराहट वाली स्याही के छीटें मारते हुए आगे बढ़ लेते हैं।
पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे दो-तीन घंटे बाद आते हैं और फिर वही क्लास शुरू। कुछ 'बढ़िया बनाओ-खिलाओ' की डिमांड डाइनिंग टेबल पर रख जाते हैं। मतलब वह व्यक्ति जो अभी दो घंटे पहले अपना बेस्ट देकर थोड़ी चैन की सांस लेना चाहता है, उसके सामने फिर वही प्रश्न आ जाता है- क्या बनेगा?
इधर यूट्यूब वाले अलग नाक में दम कर रखे हैं। 'सेहतमंद के साथ स्वाद भी भरपूर' का दावा करते हुए तरह-तरह के चैनल खोल रखे हैं। पैतालिस मिनट की डिश अपने चैनल पर तीन मिनट में दिखाकर ये दुनिया को न जाने क्या बताना चाहते हैं...! जैसे इनसे पहले सब भूसा ही खाते रहे हों। अभी एक क्लास ख़त्म नहीं हुई कि चलो अब एक्स्ट्रा कोचिंग में।
अब तो ये बहाना भी नहीं चलता कि फला सामान रसोई में नहीं है। उसकी रीफ़िल के लिए उन्हें कहीं निकल कर नहीं जाना पड़ता है। मन में सोचा नहीं कि तमाम डिलीवरी ब्वाय दरवाज़े की बेल बजाते मिल जाएंगे। मतलब अब किसी भी हाल में यह क्लास वो बंक नहीं कर सकती।
सारा दिन इसी उधेड़-बुन में निकल जाता है और प्रश्न वहीं सिर पर खड़ा रहता है - क्या बनेगा?
(रचना त्रिपाठी)
बनाते रहो रचना | बहुत कुछ कहा दिया है हल करो :) और खुश रहो |
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