Monday, May 18, 2020

सन्नाटा

आज दैनिक जागरण 'साहित्यिक पुनर्नवा' में छपी लखुकथा 'सन्नाटा'
अपनी सामंती कुलीनता बोध से प्रेरित मालकिन जब भी झाड़ू-पोछा बर्तन करके निकल रही महरिन के हाथों में कुछ बचा हुआ खाना देतीं तो वे अपनी उंगलियों के छोर को जल से भिगोती और मन ही मन 'ओम पवित्राय नमः' बुदबुदाते हुए दोनों हथेलियों की पोछी कर लेती। उनके चेहरे की चमक बताती कि ऐसा करके मानो उन्होंने गंगा नहा लिया हो। ठकुराइन को कभी-कभार कुछ विशेष खाद्य पदार्थ ज्यादा मात्रा में देना होता तो वे उससे अपना बर्तन ले आने को कहतीं। अब वो बेचारी घर से सुबह की निकली हुई, चार-चार घरों में काम करने वाली अपना बर्तन कहाँ से लाती? इसलिए वह अपने बात-व्यवहार से दाएं-बाएं दूसरे घरों से कुछ डब्बा-डिब्बी का प्रबंध कर लेती और ठकुराइन के हाथों से वह खाना लेकर घर चली जाती। 

ठकुराइन अपने पड़ोसियों को अपने शुचिता-बोध और इस महान करनी का लेखा-जोखा भी प्रतिदिन उसी प्रकार परोसतीं जैसे उस कामवाली को खाना देती थीं। "आज थोड़ी दाल बची थी तो उसे दे दी...  फ्रिज में (कई दिनों से) मिठाइयां पड़ी थी, उसे दे दी।" यह सिलसिला लम्बे अरसे से चलता आ रहा था। ठकुराइन की हथेलियों ने अपनी महरिन चम्पा के हाथों में ऊपर से  कुछ न कुछ टपकाकर परोसने का और फिर खुद के शुद्धिकरण के लिए जल से 'वजू' कर लेने का शगल पाल रखा था। 

यह सब क्रिया-कलाप चम्पा के सामने ही होता था और वो यह सब देखते-समझते हुए भी कुछ कर नहीं पाती थी। तभी अचानक चीन से कॅरोना की खबरें आने लगीं और फिर स्वयं कॅरोना ने भी पदार्पण कर दिया। सरकार द्वारा लॉक डाउन लागू करने से पहले ही सोशल मीडिया ने काफी ज्ञान बांट दिया था।

उन्हीं दिनों दरवाजे पर कागज के ठोंगे में रखा सामान यूँ ही पड़ा देखकर ठाकुर साहब के सामने मालकिन बड़बड़ा रही थीं, "आजकल चंपा का बहुत मन बढ़ गया है... कुछ दिनों से देख रही हूँ... जब भी कुछ देती हूँ तो कहती है वहीं रख दीजिए, जाते वक्त ले लूंगी... और बिना लिए चली जाती है... मुझे कचरे में डालना पड़ता है... आने दीजिये आज, मैं भी ख़ूब ढंग से समझाती हूँ उसे... सड़क पर बहुत भूखे-नंगे पड़े हैं, उसे दे दिया होता तो वे इसे खाकर अघा जाते... और ये महारानी है कि... इनको अन्न की कीमत ही समझ में नहीं आती..." 

यह सब दरवाजे की घंटी बजाने से पहले चंपा ने लगभग सुन लिया था लेकिन चुप थी। मालकिन ने ओठ भींचे हुए दरवाजा खोला। चम्पा ने बिना नजर मिलाए अपनी साड़ी का पल्लू कमर में खोंसा और घर में रखे सामानों के छू जाने से खुद को बचाने के लिए दाएं-बायें लहराते हुए रसोई में पहुँच गयी। उसने सिंक में पड़े जूठे बर्तनों को हाथ लगाया ही था कि मालकिन बड़ी तेजी से आयीं और लगभग गरजते हुए बोलीं - "अपने-आप को तुमने क्या समझ रखा है... आजकल कुछ भी देती हूँ तो दरवाजे पर ही छोड़कर चली जाती हो... चार पैसा कमा क्या लिया बड़े नखरे हो गए है तेरे!"  

चम्पा कुछ देर तक चुपचाप सुनती रही। फिर जब अति हो गयी तो पलटकर बोली– "मालकिन, बुरा न मानो तो एक बात कहें...! आजकल हम हर वक्त जितना बर्तन नहीं माँजते उससे ज्यादा अपना हाथ माँजते है। एक  किरौना का बड़ा डर फैला हुआ है। बताते हैं कि यह बड़े और अमीर लोगों में ही ज्यादा पाया जा रहा है... हम छोटे-गरीब लोग अब अगर सावधान नहीं हुए तो यह हमको मार ही डालेगा। आपके बड़के बेटा भी तो बाहर से आए हैं...! फिर आपका छुआ हम कैसे घर ले जाएं? आजकल तो सब कोई अछूत हो गए हैं।"

घर में अचानक सन्नाटा पसर गया।

(रचना त्रिपाठी)

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