जो चला गया वो कायर था। अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं जानता था। अपने पीछे अपने माता-पिता के सपने और भाई-बन्धुओं की उम्मीदों पर पानी फेर उन्हें जीवन भर के लिए रात-दिन सीने में चुभता हुआ एक शूल छोड़ गया। अपने दोस्तों के लिये वह बुरे सपने की तरह उनके भविष्य का हर वक्त पीछा करने वाला एक काला साया छोड़ गया। इस समाज में आने वाली नौनिहाल पीढ़ी के लिये सही-गलत के भ्रम में डालने वाला एक सवाल छोड़ गया।
अफसोस होता है ऐसे युवा पर जो अपनी मौलिक और नैतिक जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने के लिये आत्महत्या जैसा कुकृत्य कर बैठा। जीवन का दूसरा नाम ही संघर्ष है जिसपर विजय पाने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है। इसे बिना लड़े ही हार मान लेना हमारी युवा पीढ़ी को शोभा नहीं देता। क्योंकि यह बलिदानों की धरती रही है। बलिदान कायरता नहीं वीरता की निशानी है। अधिकारों के लिये आत्महत्या नहीं, लड़ाई जरुरी है, एक क्रांति जरुरी है, ऐसी क्रान्ति जिसका उदाहरण यह देश खुद है। उसका ऐसे चोरी से चले जाना इस सामाजिक ढांचे के ताने-बाने के लिये बहुत घातक है। हाँ, अलबत्ता धर्म, जाति व संप्रदाय को बाँटने वाली घटिया राजनीति में जरूर बहार आ गई है।
इनके लिये दलित हो या ब्राह्मण क्या फ़र्क पड़ता है? वे तो रोज पैदा होते हैं और आगे भी होते रहेंगे। लेकिन दलित ने आत्महत्या की- ऐसा सुनहरा अवसर उनके हाथ बार-बार नहीं लगने वाला। इसलिये अब वे बारी-बारी से उसकी चिता की आग में हवन करना शुरू कर उसकी राख से अपने-अपने पार्टी कार्यालयों की चौखट टीक रहे हैं। अगले चुनाव में उसपर नींबू-मिर्चे का तोरण बनाकर लटकायेंगे। ताकि अपनी गिरती राजनीति की नजर उतार सकें, बलैया ले सकें और इस टोटके से अपनी फिर उसी गन्दी राजनीति को संवार सकें। इसी फेरे में अब राजनेता अपने वोट की भूख मिटाने के लिये रोहित की लाश पर अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाये हुये हैं।
(रचना त्रिपाठी)
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