मेरा भी अजीब दिमाग है छोटी-छोटी बातों को पकाने के लिए बैठ जाती हूं। कई दिनों से इस उधेड़-बुन में लगी हूं कि क्या पति-पत्नी एक साथ रह कर स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को समाज में व्यक्त नही कर सकते? क्या उनके विचार अलग-अलग होने का मतलब उनके आपस में अच्छे सम्बन्ध का नही होना बताता है? जरूरत के हिसाब से किसको कहाँ होना चाहिए, किसे कौन सी जिम्मेदारी निभानी है, इसका निर्णय मिल बैठकर कर लिया जाता है और पति-पत्नी में कोई विवाद नहीं पैदा होता, तो क्या यह खराब बात मानी जाएगी? दूसरों को यह तय करने की जरूरत ही क्यों पड़ती है कि घर की महिला और पुरुष में कौन अधिक स्वतंत्र है। क्या नारी की स्वतंत्रता तभी मानी जायेगी जब वह बात-बात पर पति का विरोध करती रहे?
मै पूछती हूँ कि पूरी तरह स्वतंत्र रहने का इतना ही शौक है तो नर-नारी वैवाहिक सूत्र में बंधते ही क्यों हैं?
शादी करना किसी की भी मजबूरी नही होती। न ही शादी कर लेने से किसी कि स्वतंत्रता में बाधा उत्पन्न होती है। शादी का मतलब ही यही होता है कि इस समाज को एक स्वस्थ माहौल देना। एक सामाजिक अनुशासन और सुव्यवस्था के लिए यह बहुत जरूरी है। मुझे तो लगता है कि शादी के बाद हमारी स्वतंत्रता बढ़ जाती है। व्यक्ति मानसिक रूप से और भी मजबूत हो जाता है। एक नारी को प्रकृति ने जो जिम्मेदारियाँ दी हैं उनका निर्वाह शादी के बगैर कैसे हो सकता है? शादी और परिवार के अनुभव से उसके निर्णय लेने की क्षमता और बढ़ जाती है। उसको गलत और सही का भान अच्छी तरह हो जाता है।
इलाहाबाद में हुए ब्लॉगर सम्मेल्लन में नामवर सिंह जी का यह वक्तव्य मुझे बहुत अच्छा लगा था कि ब्लॉगरी में हम कुछ भी लिखने पढ़ने को स्वतंत्र है लेकिन इसके साथ एक जिम्मेद्दारी भी है कि हम क्या लिख रहे हैं। हमें स्वतंत्र होना चाहिए मगर स्वछन्द नही होना चाहिए कि जो मन में आया लिख दिया। ब्लॉगरी भी एक जिम्मेद्दारी है। इसी प्रकार हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से किसी भी क्षेत्र में भाग नहीं सकते।
क्या आप जानते है कि हर एक व्यक्ति को चाहे नर हो या नारी ईश्वर ने कितनी बड़ी जिम्मेद्दारी सौपी है? प्रत्येक नर-नारी का यह कर्तव्य बनता है कि वह इस देश और समाज को एक सच्चा इंसान दे। अगर हम यह प्रण कर ले कि हमें स्वयं के रूप में और अपने बच्चों के रूप में इस समाज को एक अच्छा और सच्चा नागरिक प्रदान करना है तो इससे बड़ी जिम्मेद्दारी और क्या होगी?
इसलिए मै कहूंगी कि एक स्त्री जो घर के अंदर रहती है जिसे हम गृहिणी कहते है वह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रही है। उसके जिम्मे समाज ही नही बल्कि पूरे देश की नींव ही टिकी है अगर वही मजबूत नही होगी तो देश का क्या होगा? घर के कुशल संचालन और बच्चों की उचित परवरिश का काम समाज और राष्ट्र के निर्माण की पहली शर्त है।
इसलिए आप सबसे मेरा विनम्र निवेदन है कि आप एक स्त्री के कार्यों के महत्व को समझे और उसका सम्मान करें। जिस दिन एक गृहिणी के कार्यों को महत्व मिलने लगेगा हमें लगता है कि उसी दिन नारीवादी आन्दोलन समाप्त हो जायेगा।
(रचना त्रिपाठी)
रचना जी ,
ReplyDeleteआपने तो हमारे दिल की बात कह दी ....क्या तोड़ निकला है नारीवाद आन्दोलन को सही दिशा में लाने का ...आज मुक्ति जी ने भी कुछ लिखा है इस बारे में ...
क्या नारी की स्वतंत्रता तभी मानी जायेगी जब वह बात-बात पर पति का विरोध करती रहे? मै पूछती हूँ कि पूरी तरह स्वतंत्र रहने का इतना ही शौक है तो नर-नारी वैवाहिक सूत्र में बंधते ही क्यों हैं?
यही प्रश्न तो मेरे भी है ...आपके इन मिलते जुलते सवालों ने आपका पीछा करने पर मजबूर कर दिया है ...!!
रचना जी..
ReplyDeleteआपने नारीवाद का मसला समूल हटाने का सबसे कारगर नुस्खा बताया है...
हमारे समाज में गृहिणी के काम को कभी भी महत्वपूर्ण नहीं माना गया है....हर स्त्री एक गृहणी by defalt माना जाता है ...और यह भी कि कौन सी बड़ी बात है..यह तो है ही...औरत है तो घर के काम तो करेगी ही....और घर का काम करना कोई बड़ी बात नहीं है.....जब तक इस सोच से नहीं उबरा जाएगा...समानता नहीं आएगी.....
आपका आलेख बहुत सही लगा..
आभार...
भला हो श्री अरविन्द मिश्र जी का , जिन्होंने
ReplyDeleteआपके मूल्यवान ब्लॉग तक पहुँचने का मार्ग सुझाया ..
( पोस्ट - लेखन के द्वारा )
आपसे सहमत हूँ ..
पर कुछ खटकता है , मन में ..
एक सिरे से आन्दोलन गलत नहीं
कहा जा सकता और उसके ' उसके समाप्त होने' को विजय नहीं कहा
जा सकता . यह सवाल जाने क्यों
पीछा नहीं छोड़ता कि इतनी मजबूत और आदर्श परिवार-संस्था होने के
बावजूद नारी शोषण क्यों होता रहा आज तक और अबतक .
परिवार की इस सकारात्मक भूमिका ( ? )
को नारीवादी आन्दोलन प्रश्नविद्ध करता है तो इसमें कुछ आधार भी है . '' वेस्ट '' के नारीवादी
आन्दोलन की उपलब्धियां भी तो हमारे सामने हैं .
सही प्रश्न के साथ खड़े आन्दोलन का सम्मान होना चाहिए ..
उसकी दशा और दिशा पर बहस होनी चाहिए .
आपने ब्लॉग के सामाजिक - सोद्देश्यता की वकालत की , इससे बड़ी खुशी हुई ..
................ आभार ,,,
देखिये आपकी बातों को लोग '' नारीवाद का मसला समूल हटाने
ReplyDeleteका सबसे कारगर नुस्खा '' के रूप में ही ले रहे हैं ..
'' नारीवादी आन्दोलन '' क्या इतना नकारात्मक है , सबके लिए ?
आतंकित - से क्यों हैं सब !
Excellent Rachnaji
ReplyDeleteI will read more and write
Ashok
इसलिए आप सबसे मेरा विनम्र निवेदन है कि आप एक स्त्री के कार्यों के महत्व को समझे और उसका सम्मान करें। जिस दिन एक गृहिणी के कार्यों को महत्व मिलने लगेगा हमें लगता है कि उसी दिन नारीवादी आन्दोलन समाप्त हो जायेगा।
ReplyDeletebilkul shat partishat sehmati haen is baat sae
क्या बात है रचना जी , नाम तो आपका किसी के साथ बखूबी मेल कर रहा है लेकिन सोच मे बहुत अन्तर है , लाजवाब और बिल्कुल सटीक बात कही है आपने । आपका ये सवाल उनके मूहं पर जोरदार चाटा है अपने आपको बहुत ही स्वतन्त्र करना चाहती है जिसका वे हमेशा समर्थन भी करती है "मै पूछती हूँ कि पूरी तरह स्वतंत्र रहने का इतना ही शौक है तो नर-नारी वैवाहिक सूत्र में बंधते ही क्यों हैं? क्या पूछा है आपने सच में , वैसे यहाँ आपको कोई भी ऐसे लोग इसका जवाब आपको नही देंगे जो इसकी माँग करते है ।
ReplyDeleteफिर बात आती है आपकी विवाह कि तो यहाँ भी मैं आपका पूर्णतः समर्थन करता हूं क्योकिं बिना विवाह के ये संसार चलना ही संभव नहीं है । बिना विवाह के नर और नारी पूरा हो ही नही सकते , इसके परिपेक्ष्य में --
पतयोSर्धने चार्धेन पत्नयोSभूवन्निति श्रुतिः।
यावन्न विन्दते जायां तावदर्धो भवेत् पुमान् ।।
अर्थात आधे देह से पति और आधे देह से पत्नी हुई हैं , । जबतक पुरुष स्त्रीसे विवाह नहीं दोंनो नर और नारी आधा ही होता है" ।
रही बात नरी सम्मान की अधिकार तो ये आज से नहीं हमारे इसका प्रवाधान बहुत पहले से ही है लेकिन पहले भारतीय संस्कृति को आधार मानकर इन अधिकारो की बात की जा रही थी परन्तु अब ये पाश्चात और कथित प्रगतिवादी रुपी हो गया --
ReplyDeleteयत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रेतः तू न पूज्यन्ते सर्वा त्रता पद क्रिया ।।
अर्थात : जहा नारियों का सम्मान होता है वहा देवता (दिव्य गुण ) निवास करते है, और जहां इनका सम्मान नहीं होता है , वहां उनकी सब क्रियायें निष्फल होती है। समाज में स्त्रियों की दशा बहुत उच्च थीं, उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। आर्थिक मामलो की सलाहकार और समाज-व्यवस्था को निर्धारित करने में भी स्त्रियों का महत्वपूर्ण योगदान था। उन्हें भाग्योदया कहा जाता था,,
प्रजनार्थ महाभागः पूजार्हा ग्रहदिप्तया ।
स्त्रियः श्रियस्च गेहेषु न विशेषो स अस्ति कश्चन ।।
अर्थात :संतान उत्पत्ति के लिए घर का भाग्य उदय करने वाली आदर सम्मान के योग्य है स्त्रिया , शोभा लक्ष्मी और स्त्री में कोई अंतर नहीं ये घर की प्रत्यक्ष शोभा है। अर्थात नारी घर की लक्ष्मी है ।
आनवाली पीढी के प्रति अपने उत्तरदायित्व को निभाती स्त्री सिर्फ परिवार के लिए ही नहीं .. समाज और देश के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है .. इसे समाज को समझना चाहिए !!
ReplyDeleteलेख पढ़ते-पढ़ते याद आया कि हम इकॉनॉमिक्स में पढ़ा करते थे कि अगर गृहिणियों के काम को paid माना जाए तो हिन्दुस्तान की जीडीपी दुनिया में सबसे ज़्यादा पहुंच जाएगी। अब सोच लीजिए, गृहिणियों के काम की वकत।
ReplyDeleteबहुत ही सधा हुआ आलेख...पर वह दिन कब आएगा...जब गृहणी के कार्यों को भी उतने ही सम्मान की दृष्टि से देखा जायेगा...
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा,आपने हर बात का विरोध करने वाली को नारी स्वतंत्रता का पक्षधर नहीं कह सकते...पर ये नारीवाद है क्या बला??...जो भी नारी के पक्ष में दो शब्द बोले...उसपर नारीवादी होने का तमगा लगा दिया जाता है.
नारीवाद कुछ है ही नहीं वह समाज में बराबरी का दर्जा प्राप्त करने का संघर्ष है। और यदि इस से अधिक कुछ है तो वह सही नहीं। लेकिन केवल गृहणी बने रहना स्त्री के लिए अब संभव नहीं है। मैं तो समझता हूँ कि गृहणी के कार्य का स्थान पुरुष के किसी भी काम से बहुत बहुत ऊँचा है, लेकिन उसे महत्व मिल कहाँ रहा है। यहाँ तक कि उसे मामूली निर्णयों तक में सम्मिलित नहीं किया जाता है। गृह उस के लिए बंदीगृह बन जाता है। वास्तविक झगड़ा परिवार में जनतंत्र का है, उसे स्थापित कर लिया जाए तो बराबरी कायम हो जाती है।
ReplyDeleteनारी घर का वह सूर्य है जिसके इर्द-गिर्द अन्य सभी सदस्य ग्रहों की तरह घूमते रहते हैं॥
ReplyDelete"जिस दिन एक गृहिणी के कार्यों को महत्व मिलने लगेगा हमें लगता है कि उसी दिन नारीवादी आन्दोलन समाप्त हो जायेगा।"
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने !
सादर वन्दे
ReplyDeleteपूरी तरह सहमत है आपके विचारों से
रत्नेश त्रिपाठी
मैंने भी आपके लेखन के बारे में अरविन्द जी के लेख के माध्यम से जानकारी प्राप्त की. मैं आपकी बात से अंशतः सहमत हूँ. स्त्री-पुरुष दोनों के ही सम्मिलित प्रयास से समाज में समानता आ सकती है. यह समानता कार्यों की नहीं बल्कि अवसर की है, निर्णय लेने की स्वतन्त्रता की है. गृहिणी के कार्य को सम्मान मिलना ही चाहिये, इससे कोई भी असहमत नहीं हो सकता. पर उतना ही सम्मान उस नारी को भी मिलना चाहिये जो स्वेच्छा से अविवाहित रहने का निर्णय लेती है, विधवा है अथवा परित्यक्ता है. नारीवादी आन्दोलन का उद्देश्य नारी को इसी विकल्प की स्वतन्त्रता का अधिकार दिलाना है. अतः वह मात्र गृहिणी के कार्य को सम्मान मिलने से समाप्त नहीं होगा, बल्कि तब समाप्त होगा जब प्रत्येक नारी को सम्मान मिलेगा, प्रत्येक बालिका को शिक्षा का अधिकार मिलेगा, भ्रूण-हत्या समाप्त हो जायेगी, दहेज-हत्या नहीं होगी और जब उसे अपनी इच्छा से अपना जीवन जीने का निर्णय लेने का हक मिलेगा.
ReplyDeleteअच्छा लिखा है।
ReplyDeleteगृहणी के कामों को महत्व तो मिलना ही चाहिये। सच तो है कि सबके योगदान का सम्यक सम्मान होना चाहिये।
स्त्री-पुरुष दोनों का महत्व है समाज की संरचना में, निर्माण में और विकास में। दोनों को सार्थक और धनात्मक भूमिका अदा करने के लिये दोनों से उचित व्यवहार होना ही चाहिये।
आज भी महिलाओं की स्थिति में बहुत-बहुत सुधार की आवश्यकता और गुंजाइश है। आंदोलन जिंदाबाद, मुर्दाबाद के रूप में भले न चलें लेकिन प्रयास तो निरंतर होते रहने चाहिये।
आप लोग अपने अपने स्तर से महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिये अलख जगाये रखिये। हम तो मानते ही हैं कि समाज में महिलाओं का योगदान अमूल्य है। उनके हर योगदान का महत्व है। आपकी पोस्ट पढ़ने के बाद यह धारणा और पक्की हो गयी। :)
Aapke is aalekh ke ek ek shabd se sahmat hun....
ReplyDeleteBilkul sahi kaha aapne हमें स्वतंत्र होना चाहिए मगर स्वछन्द नही होना चाहिए...
adhikaar aur kartaby yadi santulit rahen to fir vivaad ka koi karan hi nahi banega...
aapne is aalekh ke shirshak me sou baat ki ek baat kah di hai...
"स्त्री के कार्यों के महत्व को समझे और उसका सम्मान करें। जिस दिन एक गृहिणी के कार्यों को महत्व मिलने लगेगा हमें लगता है कि उसी दिन नारीवादी आन्दोलन समाप्त हो जायेगा।"
ReplyDeleteबहुत मुददे की बात है ये ।
ये बेहद ज़रूरी है कि घर को चलाने के जो रोज़-रोज़ के काम में, उन कामो का सम्मान हो. जिस दिन गृहणी के कार्य उबाऊ नहीं रह जायेगे, और वाकई सम्मान की दृष्टी से देखे जायेंगे. उस दिन शायद ये गृहणी के काम बचेंगे ही नहीं. बिना लिंगभेद के घर की ज़रुरत के लिए सारे सदस्य अपना अपना योगदान देंगे. और पढी-लिखी स्त्री को चुल्हा झोकने के अतिरिक्त शायद एक मनुष्य की सम्पूर्णता में जीने का अवसर मिले. तभी स्त्री मुक्ती के आन्दोलन की ज़रुरत नहीं बचेगी.
ReplyDeleteहम तो श्वेत श्याम चित्र पर भी टिप्पणी करेंगे। माता जी की बाईं तरफ जो छोरा या छोरी है, वह एकदम सत्यार्थ लगता/ती है। कौन है यह?
ReplyDelete____________________________
बहुत सरल सी बात से आप ने जटिल रागियों को सोचने पर मजबूर किया है। आगे हम क्या कहें? कलम या बेलन की मार से डर रहे हैं :) फिर भी कुछ बिन्दु, बस बिन्दु और कुछ नहीं !
(1) विवाह - पुरुषवादी व्यवस्था का एक हथियार । नारी को बन्धन में रखने और सम्पदा संसाधन पर पुरुष और उसकी संतति पर कब्जा कायम रखने का षड़यंत्र।
(2) विवाह प्रासंगिक है ?
(3) विवाह का विकल्प क्या हो?
(4) उपर के बिन्दु इसलिए कि गृहिणी की अवधारणा से टकराते हैं।
(5) गृहिणी ही क्यों, गृही क्यों नहीं?
(6) संतान धारण और प्रजनन के कारण नारी को प्रकृति प्रदत्त विशिष्टियाँ उसकी शक्ति हैं या मजबूरी?
(7) उनके कारण ही शोषण हो तो नारी क्या करे?
(8) क्या ऐसा हो सकता है कि राज्य शिशुओं का पालन पोषण करे, नर नारी अपनी सुविधा और सहमति के रहते तक साथ साथ रहें और फिर चल दें अलग अलग राहों पर। संतान हो तो राज्य सँभाले। विवाह की संस्था समाप्त हो ।
(9) ऐसे में नर नारी के प्राकृतिक रागात्मक सम्बन्धों का क्या/कैसा रूप आएगा?...
(10) ऐसे में शिशु के अधिकारों का क्या होगा? वात्सल्य की प्राप्ति भी तो एक अधिकार है।
ReplyDelete(11) क्या राज्य के कर्मचारी शिशु को यह अधिकार दे पाएँगे?
...
खड़े होंकर ताली बजाने का मन कर रहा है...
ReplyDeleteaapka aalekh un thakathit nareevadiyo ko chubh sakta hai jo narivad ki nai pairibhasha gadh rahi hai. nari ghareloo ho kar bhi mahan ho sakti hai vo hai bhi lekin is vaqt lahar aisi chalai ja rahi hai goya ghar ek bandjhan hai... vivah bandhan hai. naitikata bandhan hai. aurat in sabse mukt ho jae.lekin aisa nahi hai aap jaisi nariyaa hi bharat ki aan-baan aur shan hai. aise vichar hi aurat ko ooncha uthayenge.badhai
ReplyDeleteहमारी टिप्पणी को अरविन्द मिश्र जी ने जप्त कर लिया अन्यथा वो यहाँ टीक बैठती, मै आपे १००% सहमत हूँ, aaj aapne mere man ki aat kah diya. Mujhe bhi खड़े होंकर ताली बजाने का मन कर रहा है... :)
ReplyDeletebadhai
एक स्त्री के कार्यों के महत्व को समझे और उसका सम्मान करें। जिस दिन एक गृहिणी के कार्यों को महत्व मिलने लगेगा हमें लगता है कि उसी दिन नारीवादी आन्दोलन समाप्त हो जायेगा।
ReplyDeleteआपके कथन से पूर्णतया सहमत हूं.
रामराम.
आपसे कई मुद्दों पर सहमत होती हूँ अक्सर ..पर आप ही कहिए रचना जी अगर महिलाओं को गृहणी के रूप में सम्मान मिला होता यह सब बाते आती ही क्यों ? ..आप मेरी यह कविता देखिए ..फिर सोंचिए ..यह हमारे समाज का सच है की नही ?
ReplyDeleteपति अथवा पुरुष का विरोध कुछ नही होता ..उस मानसिकता का विरोध होता है जिसमे नारी को कमतर आँका जाता है ..पहले घर तक सिमित किया जाता है फिर इस बात को लेकर ताने दिए जाते हैं की "तुम्हे क्या पता कमाने में कितनीमेहनत लगाती है बैठे बैठे खाना मिल जाता है बहुत समझो " ..अब ताने मिलेंगे तो प्रतिक्रिया होगी उस उस घेरे को तोड़ कर बाहर आने का प्रयास भी ..आपकी नजर में यह गलत है ?
@ गिजिजेश जी - भईया आप बहुत भावुक हैं..जरा शांत हो जाइए..पढ़ कर साफ लग रहा है आप गुस्से में खीज कर लिख गए हैं.
कविता का लिंक - http://sanchika.blogspot.com/2009/03/blog-post_30.html
ReplyDeleteसही सन्देश
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेखन. सार्थक ब्लोगरी यही है.
आप इलाहबाद से हैं. आपको और सिद्धार्थ जी को बधाई.
-सुलभ
रेडियो कार्यक्रमों में साक्षात्कारों के दौरान बहुत सी गृहिणियाँ यह पूछने पर कि आप क्या करती है जवाब देती हैं "कुछ नहीं, हम घर में रहते हैं." अब आप ही बताइए कि जिसे अपने काम का ही अहसास नहीं उससे एक सफल नारीवादी आन्दोलन की अपेक्षा करना कहाँ तक उचित ?
ReplyDeleteहमें पहले महिलाओं को उनके अपने बारे में बताना होगा, जागरूक बनाना होगा रचना जी. माँ के साथ आप लोगों की फोटो बहुत प्यारी है.
fully agree with you. but i am surprise by the the same people who said one thing to other blog and other things to other .these oldies .
ReplyDeletekeep writing.
रचना जी, गृहिणी के बारे में कही गई बातों से सहमत हूं. लेकिन शादी के बाद महिलायें स्वतंत्र हो जाती हैं या मानसिक रूप से मजबूत हो जातीं है, इस बात से मैं आंशिक रूप से सहमत हूं. महिलाओं की आज़ादी या मानसिक मजबूती उनके जीवन साथी पर निर्भर करती है. यदि साथी सुलझे दिमाग का हुआ तभी ये आज़ादी या मजबूती मिल सकेगी, जैसा मेरे या आपके साथ है. लेकिन मैने ऐसे तमाम उदाहरण , जहां साथी के शक्की स्वभाव या पत्नी को केवल औरत समझने की मानसिकता के चलते अच्छी-भली, मानसिक रूप से मजबूत लडकियों का मनोबल कमज़ोर होते, बल्कि टूटते देखा है मैने.
ReplyDeleteपुरुष का दम्भ स्त्री को कमतर आंकने में ही संतुष्ट होता है. कितनी भी खुली मानसिकता का उच्च शिक्षित पति हो, कार्यक्षेत्र में, यदि समान है तो, कभी पत्नी की तारीफ़ से खुश नहीं होता. उसकी तुलना में पत्नी को श्रेष्ठ ठहराया जाये, ये पति की कुंठा का ही कारण बनता है, वह अपने को चाहे कितना ही आज़ाद खयाल या पत्नी को बराबरी का दर्ज़ा देने वाला क्यों न कहता हो.
और नारी-आंदोलन? गृहिणियों ने हमेशा खुद को कमतर आंका है, जब वे अपनी या अपने काम की अहमियत ही नहीं जानतीं तो आंदोलन कैसा? सबसे पहले हमें खुद अपनी अहमियत समझनी होगी.
आपने एक बहुत ही सटीक बात कही हैं। लेकिन, यहाँ परेशानी ये है कि इसे जानता हरेक हैं मानता कोई नहीं। जिस तालमेल की आप बात कर रही हैं वो घर ही नहीं कहीं भी आ जाएं जीवन सुलभ हो जाएगा। रही बात नामवर सिंह के ये कहने कि ब्लॉग पर कुछ भी नहीं लिखा जाना चाहिए तो मुझे लगता है कि ये ग़लत होगा। ब्लॉग ही वो ज़रिया है जोकि हम जैसे रिजेक्ट लेखकों को प्लेटफॉर्म देता हैं। ये जानना ज़रूरी है कि लोग क्या सोचते हैं जोकि ब्लॉग के लेखों से समझा जा सकता हैं।
ReplyDeleteलेकिन लाख टके का सवाल यह कि जहाँ पर जीवन की हर वस्तु पैसे से तौली जाती हो, वहाँ पर ऐसा कैसे होगा?
ReplyDelete--------------
मानवता के नाम सलीम खान का पत्र।
इतनी आसान पहेली है, इसे तो आप बूझ ही लेंगे।
ekdam dil ki baat keh di aapne Rachna ji...sateek ...
ReplyDeleteroman main likhne ke liye mafi chahti hoon kuch gadwad hai hindi font main.
दुबारा आया हूँ तो देख रहा हूँ की वही हल्की-हल्की व काम - चलाऊं
ReplyDeleteबातें ही चल रही हैं .
लोगों में टिप्पणी - अमृत पाने की लालसा और रिस्क न लेने की
आराम-तलबी भीतर तक घुस गयी है .
काश , ब्लॉग-जगत पर दायित्व का ज्ञान भी होता लोगों में , महज
लेखन का ही नहीं .
किसी ने इसपर लिखना जरूरी नहीं समझा कि ' सफल गृहणी ' और
' अधिकार प्राप्त नारी ' में फर्क है ,. घर में नारी को महत्व देना तथा
राज -व्यवस्था , समाज - व्यवस्था और अर्थ - व्यवस्था में नारी को
महत्व देना एक जैसा नहीं है . इन तीनों क्षेत्रों में नारी की कितनी
भागीदारी है, यह किसी से छुपा नहीं है . ऐसे में नारीवादी आन्दोलन
वंचितों की आवाज बने तो कुछ भी बुरा नहीं है .
कड़े-कड़े श्लोक रखने से बात प्रभावी नहीं
हो जाती . सार तो थोथा ही रहा .
निराशा होती है कि ब्लॉग में जो नारीवाद पर जरा भी नहीं पढ़े हैं वे
निर्णय देते हैं जैसे ब्रह्मा हों !
........... हाँ , जो ठीक समझा सो कह दिया , चाहे बात पचे चाहे न पचे ..
@ भावुकता
ReplyDeleteअशांति
गुस्सा
खीज
बहुत ढूढ़ा अपनी टिप्पणी में लेकिन नहीं मिल पाए। उस समय की मनोदशा के उपर भी विचारे, ऐसा कुछ याद नहीं आया। बस टिप्पणी में एक जगह 'पर' की जगह 'का' होना चाहिए। खैर, दिव्य दृष्टि प्राप्त लोग भी चूक कर ही जाते हैं। :) चिह्न भी नहीं दिखा। इस तरह की चूकें बहुत बार बात को पटरी से उतार चुकी हैं। लेकिन इस बार नहीं .... टिप्पणी करने वाले की मनोदशा पर 'अनुमान शास्त्र' का प्रयोग करने के बजाय उसमें उठाए गए मुद्दों पर मनन विवेचन हो तो बात बने।
सही एवं सुलझे हुए विचारों को प्रस्तुत करता आपका यह सार्थक आलेख प्रभावित करता है.
ReplyDeleteआपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ.
सभी लोग इस तरह खुली और स्वच्छ सोच से लिखें तो समस्या का निदान भी हो जाये और कोई विवाद न हो.
अनेक शुभकामनाएँ.
संविधान में अधिकारों के साथ कर्तव्यों की चर्चा हुई तो बहुत हांव हांव मची थी।
ReplyDeleteपर ड्यूटी बिना राइट्स क्या होते हैं!?
@गिरिजेश जी - क्या ऐसा हो सकता है कि राज्य शिशुओं का पालन पोषण करे, नर नारी अपनी सुविधा और सहमति के रहते तक साथ साथ रहें और फिर चल दें अलग अलग राहों पर। संतान हो तो राज्य सँभाले।
ReplyDeleteआप सिर्फ यह बताइए किस "तथाकथित नारीवादी" ने ऐसा कहा जिसे आपने यहाँ उल्लेखित किया है ..और रही बात बाकि बिन्दुओं पर विमर्श की ....मैं उसपर चर्चा करुँगी...जरा यह अवचेतन वाली लेखमाला निपटा लूँ ..विलंब संभव है ..आपकी टिप्पणी पर प्रति टिप्पणी करने का कारन सिर्फ यह था की मुझे आपके द्वारा उठाये गए कई बिंदु चर्चा योग्य लगे ..पर यह बात जो मैंने ऊपर लिखी खीज का परिणाम(मैं गलत हो सकती हूँ क्योंकि स्क्रीन पर मुझे सिर्फ शब्द दिखाते हैं) लगी.
चर्चा ही हम भी चाहते हैं..या कहा जाए तो चर्चा ही चाहते हैं ..पर लोग अक्सर व्यक्तिगत हो जाते हैं..जो किसी भी संतुलित व्यक्ति को नागवार गुजरेगा.
मुझे आपका intention ठीक लगा..पर मुझे कहना होगा कि जिस तरह के नारीवादी आंदोलनों के एकतरफ़ा पैटर्न के प्रतिक्रियास्वरुप आपने यह आलेख लिखा है यह भी एक दूसरे तरह से एकतरफ़ा हो चला है...
ReplyDeleteएक गृहणी जो संतुष्ट है..समस्त जिम्मेदारियाँ निभाती है,घर,परिवार की व्यापक महत्ता समझती है..देश और समाज की आवश्यकताओं के मध्य अपनी भूमिका भी समझती है ..निश्चित ही आदर्श है..नारीवादी आंदोलन इस नारी के ख़िलाफ़ नही है..पर यही नारी जब स्कूटी पर जीन्स कसे किसी थियेटर मे हॉलीवुड मूवी देखने जाना चाहती है तो एक समूची संस्कृति के ढहने का संकट आ जाता है तो ये भी तो ठीक नही...गृहणी जब घर मे नए समय के साथ परिवार के सदस्यों के लिए एक बदली हुई प्रासंगिक भूमिका की अपेक्षा रखती तो कुछ थातियों के चरमरा जाने का संकट क्यों होने लगता है और किसी तात्कालिक भय,डर अथवा नुकसान का कारण उस गृहणी की आधुनिक मानसिकता के मत्थे यदि डाल दिया जाने लगे तो क्या गृहणी का चुप रह जाना ठीक रहेगा...!
भाई अमरेन्द्र जी की चिंता बेहद वाज़िब है.....नारीवादी आंदोलन की बेहद सीमित भूमिका आपने ले ली है..यह एक बार फिर से गलत होगा. तथाकथित आंदोलन-वीरांगनाओं/वीरों की बात जाने दीजिये पर अपने-आप मे नारीवादी आंदोलन की प्रासंगिकता कहीं से भी कम नही है. हो सकता है इसकी दशा या दिशा ठीक ना हो पर इस मुहिम का बने रहना और अपने व्यापक विमाओं मे बने रहना बेहद ही जरूरी है....!
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ReplyDeleteबहुत बातें हो गईं लोगों में, लेकिन सार्थक कितनी??
ReplyDeleteरचना दी, यहाँ तुमसे असहमति जताना चाहूँगा! मेरी मान्यता है कि विवाह नामक संस्था ही नारी शोषण का सबसे बड़ा जरिया है.. आर्थिक रूप से पिछड़े समाजों में दहेज की माँग और तथाकथित मॉडर्न समाजों में इंग्लिशस्पीकिंग गोरी लड़की की माँग से निबटने के बाद कोई लड़की अगर ससुराल में पहुँचती भी है, तो सर्वाइवल के लिये अपने आत्मसम्मान को कुचलना कितना जरूरी होता है, यह तथ्य शायद सबको पता होगा। मैं जनरलाइज नहीं कर रहा.. एक्सेप्शंस आर आल्वेज देयर! लेकिन समाज के बहुत बड़े तबके की बात कर रहा हूँ, जिसे अपने निर्गुण, नकारा लड़के के लिये भी ‘सर्वगुणसम्पन्न’ ‘गोरोचन सी गोरी’ लड़की चाहिये- भले ही लड़का काकभुशुण्डि का अवतार हो! ब्राह्मण कर्मकांड के आतंकित करने वाले मंत्र कानों को भले ही सुखद लगें, लेकिन नारी को बराबरी का अधिकार कहाँ देते हैं??
क्यों स्त्री को बार-बार खुद को तवज्जो देने की गुहार करनी पड़ती है? यह अधिकार लेने के लिये सविनय अवज्ञा के नारीवादी आंदोलन को एक जरिये से मैं ग़लत नहीं मान सकता।
मैं भी इसी पितृसत्तात्मक समाज का एक अंग हूँ..कल हो सकता है मेरी आदिम प्रवृत्तियां अपनी पत्नी को वही अधिकार देने में आड़े आ जायें जिनकी आज मैं वक़ालत कर रहा हूँ.. निस्संदेह यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा, कदाचित पशुवत होने जैसा. उस समय उस स्त्री को अपना अधिकार लेने के लिये मेरे सामने अनुरोध करने की जरूरत नहीं.. अधिकार चाहिये तो उसे लड़कर लेना होगा और मेरी आज की सोच इस बात की तस्दीक भी करेगी।
विवाह नामक संस्था के दिन गिने हुए हैं... गिरिजेश जी से पूरी तरह सहमत. विदिन फिफ्टी ईयर्स इसकी जगह एक ऐसा रिश्ता लेगा, जिसकी बुनियाद स्वार्थ नहीं, बल्कि म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग और कॉमन रिस्पांसिबिलिटी पर टिकी होगी..
मानवीय रिश्तों के इसी भविष्यत से बराबरी संभव है.. कोई पुरुष सत्ता को इतनी आसानी से शेयर करने वाला नहीं। इस समाज में जींस पहनकर हॉलीवुड मूवी देखने वाली लड़की को न तो सभ्यता विरोधी ठहराया जायेगा, न ही केवल ‘अर्धांगी(माई फुट!)’को दिन रात बर्तन घिसने होंगे।
@ लवली जी
ReplyDeleteऐ दोस्त न ढूँढ़ मेरे हरफों में वो: बात
जो लिखी न गई वो: बात है ही नहीं ।
सामने देख अगल बगल औ' पीछे भी
दिक्खे साफ,ऐनक आँखों पर है ही नहीं।
माना कि दुश्वारियाँ हैं, है शब्दों की जमीं
दूर तलक जाएगी,वो: बात जो है ही नहीं।
कितना सुन्दर और प्रखर विमर्श हुआ है यहाँ -संतुष्टिदायक !
ReplyDeleteपारिवारिक समरसता की भी तो कोई सुधि ले !
श्रीश जब वाचस्पति बनते हैं जो वे वस्तुतः हैं भी तो सुन कर तालियाँ बजाने का मन करता है !
गिरिजेश भोगे देखे अनुभूत यथार्थ को व्यक्त कर देते हैं
बाकी नर नारी प्रतिक्रियात्मक हो रहे हैं !
पर देवियों सज्जनों! हम समरसता , समर्पण त्याग की अब बात क्यों नहीं करते ?
क्या मानव प्रजाति अब इतनी कृतघ्न हो गयी ?
जब तक नर नारी का एक दूसरे के प्रति अन्यतम अनुराग है ,प्रेम है और एक दुसरे के प्रति मर मिटने की प्रतिबद्धता है
यह दुनिया तभी तक सलामत है !
प्रिय भाई कार्तिकेय,लगता है तुमने मेरी पोस्ट जल्दीबाजी में पढ़ी। मैने नारीबादी आंदोलन के समाप्त होने की जो शर्त बतायी है उसका पूरा हो जाना आसान है क्या? कितने सिंहासन हिल जायेंगे, छातिया दरक जायेंगी, भूचाल आ जायेगा इस पुरुषप्रधान समाज में जब एक गृहिणी का कार्य बराबर की महत्ता पाना लगेगा। कागज पर बड़े-बड़े सिद्धांत लिखना और मंच पर भाषण देना आसान है पर अमल करना उतना ही मुश्किल।
ReplyDeleteविवाह नामक संस्था को त्यागने की बात करने वाले जबतक इसका बेहतर विकल्प नही लाते तब-तक उनकी बाते बेमानी हैं। हो सकता है जो इससे बाहर हैं वो भी अपने हिसाब से सुखी होंगे, लेकिन वे बहुत कुछ ‘मिस’ भी करते है जिसका उन्हें शायद पता ही नही होगा। अपनी आदिम प्रवृत्तियों को नियंत्रित न कर पाने कि आशंका तुम्हारे पलायनवाद को दर्शाती है, सामाजिक जिम्मेदारी के भाव को नही।
हम सुधरेंगे जग सुधरेगा। अपने घर से शुरुआत करें।
ReplyDelete"हम सुधरेंगे जग सुधरेगा। अपने घर से शुरुआत करें।"
ReplyDeleteयही निष्कर्ष है - विमर्श सफल रहा।
अच्छा लगा विमर्श, और सार्थक भी रहा....इसपर पोस्ट लिखूंगी ...धन्यवाद रचना जी और गिरिजेश जी आपका भी. :-)
ReplyDeleteअमरेन्द्र जी इस बात में दम है सफल गृहणी ' और
ReplyDelete' अधिकार प्राप्त नारी ' में फर्क है ,. घर में नारी को महत्व देना तथा
राज -व्यवस्था , समाज - व्यवस्था और अर्थ - व्यवस्था में नारी को
महत्व देना एक जैसा नहीं है .....
सच तो यही है हम आज भी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा है ओर इसे ज्यूं का त्यूं बनाये रखना चाहते है ..महत्वपूर्ण बात ये है के सफल ग्रहिणी के काम को हम उसका कर्तव्य मानते है ...ओर यही उससे उम्मीद करते है ...ओर उसके कुछ दुखो को हम दुःख भी नहीं मानते ....अगर किसीसमाज को मजबूत करना है तो मां को मजबूत करना होगा ..मां तभी मजबूत होगी जब बेटी मजबूत होगी .....
फिर भी अच्छा लगा ये विमर्श भी
रचनाजी
ReplyDeleteसशक्त आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई |
एक बेहद सार्थक लेख लिखा आपने, इसके लिए बधाई।
ReplyDeleteआपसे कई मुद्दों पर पूर्ण सहमत हूँ लेकिन शादी के बाद महिलाएं स्वतंत्र हो जाती है इस बारे में वंदना अवस्थी दूबे ने ठीक ही कहा है कि यह परिस्थितिजन्य है। एक बात और,मेरी समझ से नारीवादी आंदोलन पुरुषवादी मानसिकता का विरोध करता है और यह पुरुषवादी मानसिकता नारी के अंदर भी हो सकता है...
lamba intjar karaya aapne par ek sarthak post padhakar achchha laga.aisi poston ke liye intjar kiya ja sakata hai par thodi jaldi ho to behtar hoga.
ReplyDeleteपरिवार का पालन एक नियोजित श्रम है,
ReplyDeleteइसमें शारीरिक श्रम के साथ मानसिक उद्दात भावनाओं को भी अत्यधिक परिश्रम करना होता है. किसी आठ घंटे की एक पाली के समाप्त होने की कोई गुंजाईश नहीं है और साल के अंत में तीस तो क्या एक भी अर्जित अवकाश खाते में नहीं होता. समझते हैं पर जताना नहीं चाहते...
बहुत सुंदर पोस्ट.
आप शायद सबसे बाएं हैं ?
वर्ष नव-हर्ष नव-उत्कर्ष नव
ReplyDelete-नव वर्ष, २०१० के लिए अभिमंत्रित शुभकामनाओं सहित ,
डॉ मनोज मिश्र
"घर के कुशल संचालन और बच्चों की उचित परवरिश का काम समाज और राष्ट्र के निर्माण की पहली शर्त है।" पूर्ण सहमति. सच्चा और सोने जैसा खरा आलेख. सपरिवार नव वर्ष २०१० की मंगल कामना के साथ.
ReplyDeleteAchhi post. aaj bahut din bad blog jagat se judne ka mauka mila aur bahut sari achhi posten bhi padhne ko milin. swatantra apne aap me ek achhi chij hai lekin swatantra kabtak? aur kaha tak? ye bat well define honi chahiye.
ReplyDeleteगिरिजेश के दिए लिंक से यहाँ आया। बहस सही लगी। गुस्सा भी आया कि लोग अपनी कायरता के खोल से बाहर क्यों नहीं आ पाते?
ReplyDeletehttp://benamee.blogspot.com/2010/03/blog-post_27.html
पता है बहुत देर से आ रहा हू.. लेकिन कुश की तालिया खत्म होते ही मेरी भी सुनियेगा..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया....
ReplyDeleteलेख मे चिन्तन की प्रोढ़ता है संदेश और संकेत शुभ है साधुवाद.
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